मार्च महीने में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के सन्दर्भ में प्रस्तुत लेखों की श्रृंखला के इस अंतिम आलेख में I4I की संपादकीय सलाहकार नलिनी गुलाटी भारत में महिलाओंके स्वास्थ्य पर आर्थिक शोध का एक सार प्रस्तुत करती हैं, जिसमें मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य, स्वास्थ्य देखभाल तक लैंगिक पहुँच, अन्तरंग-साथी द्वारा हिंसा और मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी चिंताओं के पहलुओं को शामिल किया गया है। लेख में इन सभी पहलुओं में व्याप्त असमानताओं को दूर करने में संसाधन, लैंगिक दृष्टिकोण और जानकारी की भूमिका पर विचार किया गया है।
भारत में लैंगिक असमानता की दीर्घकालिक समस्या स्वास्थ्य सहित अधिकांश आर्थिक और सामाजिक परिणामों में व्याप्त है। देश में परम्परागत रूप से, लिंग और स्वास्थ्य के अंतर्सम्बन्ध पर मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य (एमसीएच) का वर्चस्व रहा है। हालांकि इस क्षेत्र में सुधार और गैर-संचारी रोगों (एनसीडी) के बढ़ते बोझ जैसे रुझानों के चलते, नीति व अनुसंधान में 'महिलाओं के स्वास्थ्य' के बारे में व्यापक दृष्टिकोण अपनाना अनिवार्य हो गया है।
लेख में भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य पर चुनिन्दा आर्थिक अनुसंधानों के सार को प्रस्तुत किया गया है, जिनके ज़रिए मातृत्व को सुरक्षित बनाने के नीतिगत प्रयासों की जाँच करने वाले ऐसे अध्ययनों का पता लगाया गया है जो स्वास्थ्य देखभाल पहुँच में लैंगिक अन्तर को अधिक व्यापक रूप से उजागर करते हैं, अन्तरंग साथी द्वारा की जाने वाली हिंसा (आईपीवी) का विश्लेषण करते हैं, मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी चिंताओं पर प्रकाश डालते हैं और संसाधनों, लैंगिक दृष्टिकोण तथा सूचना तक पहुँच के दायरे में सम्भावित समाधानों की प्रभावकारिता का पता लगाते हैं।
मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य : नीति और अनुसंधान
1990 और 2000 के दशक में, भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य पर चर्चा मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य, एमसीएच, पर केन्द्रित थी। यह देश के असाधारण उच्च मातृ मृत्यु अनुपात (एमएमआर)1 से प्रेरित था, जो 1990 में वैश्विक औसत 385 (महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, एमडब्ल्यूसीडी, 2022) के मुकाबले 556 था। इससे निपटने के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के साथ-साथ सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (2000-2015)2 के तहत समयबद्ध लक्ष्य निर्धारित किए गए थे।
सरकार की मुख्य प्रतिक्रिया प्रमुख सुरक्षित मातृत्व कार्यक्रम, जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई) थी। वर्ष 2004 में लागू की गई यह योजना, जेएसवाई, गरीब महिलाओं को स्वास्थ्य केन्द्रों पर जन्म देने और प्रसवपूर्व तथा प्रसवोत्तर देखभाल के लिए वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करती है। इन महिलाओं को एमसीएच सेवाओं से जोड़ने के लिए मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, आशा को नकद प्रोत्साहन भी दिया जाता है।
कुल मिलाकर, भारत में 2004-2006 और 2014-2016 (पॉल 2018) के बीच एमसीएच सेवाओं के उपयोग में वृद्धि हुई और इस अवधि (जोस 2018) में एमएमआर में 5% की वार्षिक दर से कमी आई, जो 2018-2020 (एमडब्ल्यूसीडी 2022) में 97 के आँकड़े तक पहुँच गई। पॉल (2018) ने यह दर्शाया कि घरेलू संपत्ति की स्थिति के आधार पर एमसीएच सेवाओं के उपयोग में असमानता में गिरावट आई है, लेकिन अमीर-गरीब का अन्तर अभी भी बना हुआ है। इसी तरह, मिश्रा और श्यामला (2021) ने प्रमुख (हेडलाइन) आँकड़ों के पीछे अन्तर-राज्य और ग्रामीण-शहरी असमानताओं के अस्तित्व को दर्ज किया।
इन वर्षों में, शोधकर्ताओं ने जेएसवाई के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन किया है। उदाहरण के लिए, डैनसेरो, कुमार और मरे (2013) ने पाया कि स्वास्थ्य सुविधा से दूरी संस्थागत प्रसव कराने की दिशा में एक महत्वपूर्ण बाधा थी। यह बाधा परिवार में वाहनों का स्वामित्व और बेहतर सड़क कनेक्टिविटी कम करने वाले कारकों के रूप में कार्य कर रही थी। जोशी और शिवराम (2014) पाते हैं कि जेएसवाई का लाभ पहुँचाने के लक्ष्य कुछ कमज़ोर महिलाओं (ग्रामीण, बिना औपचारिक शिक्षा के) के लिए प्रभावी था, तथापि यह योजना सबसे गरीब महिलाओं तक पहुँचने में विफल रही। ऐसा शायद इसलिए हुआ कि लाभार्थियों की पहचान और निगरानी में समस्याएं थीं और गर्भवती महिलाओं के गतिशीलता पैटर्न का पूरी तरह से ध्यान नहीं रखा गया था। चटर्जी और पोद्दार (2023) ने जेएसवाई लाभार्थियों के बीच प्रजनन प्राथमिकताओं में बदलाव पर प्रकाश डाला- उनमें बेटे की प्राथमिकता के प्रति पूर्वाग्रह नहीं था, ऐसा इस विचार के अनुरूप हो सकता है कि नकद हस्तांतरण ने महिलाओं की सौदेबाज़ी की शक्ति और सशक्तिकरण को बढ़ाया हो।
प्रजनन की उच्च दर और खराब एमसीएच के बीच के सम्बन्ध को देखते हुए, शोध साहित्य के एक खंड ने परिवार नियोजन पर ध्यान केन्द्रित किया। मिशन परिवार विकास3 के प्रभाव का आकलन करते हुए, अग्रवाल, चटर्जी और डे (2023) ने पाया कि सरकारी हस्तक्षेपों के कारण जन्मों की संख्या में गिरावट आई, महिलाओं और पुरुषों के बीच प्रजनन सम्बन्धी प्राथमिकताओं में बदलाव आया और गर्भ निरोधकों और नसबंदी को अपनाने में वृद्धि हुई। सामाजिक मानदंडों और पारिवारिक बाधाओं की भूमिका की खोज करने के लिए उत्तर प्रदेश में किए गए एक सर्वेक्षण (अनुकृति, हेरेरा-अल्मांज़ा और कर्रा 2020) से पता चला कि अपनी सास (सास) के साथ रहने वाली युवा, विवाहिता महिला के घर के बाहर के साथी कम थे, जिसके परिणामस्वरूप प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक उसकी पहुँच और उनका उपयोग कम रहा। यह प्रजनन प्राथमिकताओं (अर्थात् बच्चों और बेटों की आदर्श संख्या) की तुलना में महिलाओं और उनके सास के बीच गलत तालमेल को दर्शाता है। इसी तरह, बिहार में दत्ता, घोष और हुसैन (2021) द्वारा किए गए फील्डवर्क से पता चला कि सास आशा और प्रजनन आयु की महिलाओं के बीच बातचीत में मध्यस्थ के रूप में कार्य करता है।
उत्तर प्रदेश में एक अनुवर्ती अध्ययन में (अनुकृति एवं अन्य 2023) यह देखा गया कि यदि महिलाओं को स्थानीय क्लिनिक में सब्सिडी वाली परिवार नियोजन सेवाओं की पेशकश की जाती है, तो उनके सास के साथ संबंधित चर्चा शुरू करने की अधिक सम्भावना थी और ऐसे में सास द्वारा परिवार नियोजन को मंजूरी दिए जाने की अधिक सम्भावना थी। इसके अलावा, यदि महिलाओं के साथ कोई सहकर्मी क्लिनिक में जाता था, तो परिवार नियोजन सेवाओं का लाभ उठाने की उनकी सम्भावना बढ़ जाती थी (अनुकृति एवं अन्य 2023)।
यह साक्ष्य इंगित करता है कि देश ने वास्तव में मातृ मृत्यु दर से निपटने और परिवार नियोजन को बढ़ावा देने में प्रगति की है, हालांकि क्षेत्रों और सामाजिक-आर्थिक समूहों में असमानताओं को कम करने के लिए और भी बहुत कुछ किया जा सकता है। सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंडों और पारस्परिक सम्बन्धों के अंतर्निहित सन्दर्भ का पता लगाने के लिए रचनात्मक दृष्टिकोण की भी गुंजाइश प्रतीत होती है।
स्वास्थ्य देखभाल की बदलती ज़रूरतें, पहुँच में असमानताएं
भान और शुक्ला (2023) ने पाया कि एमएमआर में गिरावट के साथ-साथ, संक्रामक रोगों से ग़ैर- संक्रामक (एनसीडी) तक एक महामारी संक्रमण हुआ है, जिसके कारण भारत में महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल आवश्यकताओं में बदलाव आया है। वर्ष 2018 में महिलाओं में 53.5% मौतों के लिए हृदय रोग, कैंसर, मधुमेह आदि जैसे एनसीडी ज़िम्मेदार थे, जो वर्ष 2000 के 33% की तुलना में वृद्धि दर्शाता है। इससे पहले, एंडरसन और रे (2013) ने अधिक उम्र में महिला मृत्यु दर की अधिकता के लिए मुख्य रूप से एनसीडी को ज़िम्मेदार ठहराया था। इस कार्य ने शोध का एक व्यापक क्षेत्र खोल दिया है जो जन्म के समय विषम लिंग अनुपात, युवा लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार और मातृ मृत्यु दर को "मिसिंग वुमन अर्थात- महिलाओं की संख्या में कमी" (सेन 1990) की व्याख्या के रूप में पेश करता है। हालांकि उक्त लेख में इस तंत्र पर विस्तार से चर्चा नहीं है, उसमें की गई ‘व्याख्या’ यह थी कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में चिकित्सा देखभाल का कम उपयोग करती हैं या प्राप्त करती हैं।
इसी विचार का अनुसरण करते हुए, जयरामन, रे और वांग (2014) ने दक्षिण भारत के एक प्रमुख नेत्र अस्पताल में देखभाल और उपचार में लैंगिक अन्तर की जाँच की। उन्होंने पाया कि प्रस्तुति के समय, महिलाओं में रोगसूचक बीमारियों के सम्बन्ध में पुरुषों की तुलना में खराब निदान होता है, जो यह दर्शाता है कि पुरुष (या उनके माता-पिता) खराब स्वास्थ्य के प्रति अधिक संवेदनशील हैं। हालांकि, इस बात का कोई व्यवस्थित प्रमाण नहीं था कि महिलाओं और पुरुषों को सुविधा में अलग-अलग चिकित्सा उपचार मिलता है। स्पर्शजन्य बीमारी के सन्दर्भ में, कोई स्पष्ट लैंगिक अन्तर नहीं था, जिसका अर्थ है कि या तो स्त्री-पुरुष दोनों समान अंतराल पर निवारक स्वास्थ्य जाँच के लिए जाते हैं या अधिक सम्भावना है कि वे ऐसी जाँच के लिए बिल्कुल नहीं जाते हैं।
कपूर एवं अन्य (2019) ने दिल्ली के एक प्रमुख तृतीयक देखभाल सार्वजनिक अस्पताल में नैदानिक अपोइन्टमेंट का जायज़ा लैंगिक आधार पर किया, जिसका इस अध्ययन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण सन्दर्भ है। प्रसूति एवं स्त्री रोग सम्बन्धी चिकित्सा को छोड़कर, लिंग अनुपात (प्रत्येक महिला दौरे के लिए, पुरुष बाह्य रोगी दौरा) प्रासंगिक जनसंख्या लिंग अनुपात से अधिक था। युवा और अधिक उम्र के समूहों में और अस्पताल से दूरी बढ़ने के कारण यह स्थिति और भी ख़राब थी। शोधकर्ताओं ने अपने निष्कर्षों की व्याख्या लैंगिक-अन्तर से जुडी बीमारी के बजाय लिंग पूर्वाग्रह के प्रतिबिंबित होने के रूप में की, क्योंकि विश्लेषण में कई चिकित्सा विशिष्टताएं शामिल थीं और उन्हें अस्पताल विभाग-विशिष्ट प्रभावों के अनुसार समायोजित किया गया था।
माध्यमिक और तृतीयक स्तरों पर स्वास्थ्य देखभाल पहुँच का विस्तार करने के नीतिगत प्रयास के सन्दर्भ में, हाल के वर्षों में भारत में सबसे प्रमुख साधन, गरीब परिवारों के लिए राज्य द्वारा प्रदान किया गया स्वास्थ्य बीमा रहा है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आरएसबीवाई) वर्ष 2008 में राष्ट्रीय स्तर4 पर शुरू की गई थी, जो गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) के परिवारों को सार्वजनिक और (सूचीबद्ध) निजी अस्पतालों में रोगी की देखभाल के लिए सालाना 30,000 रु. रुपये का स्वास्थ्य बीमा कवरेज प्रदान करती है। वर्ष 2018 में, एक नए कार्यक्रम ‘आयुष्मान भारत’ में आरएसबीवाई को शामिल किया गया, जिसमें राशि बढाकर प्रति वर्ष प्रति परिवार रु 5,00,000 कर दी गई और आबादी के निचले 40% तक को इसमें कवर किया गया। इसमें दिए जाने वाले लाभ 'फैमिली-फ्लोटर' आधार5 पर प्रदान किए जाते हैं, और आधिकारिक जानकारी में कहा गया है कि 'लैंगिक आधार पर कोई प्रतिबंध' नहीं है।
डुपास और जैन (2021) ने राजस्थान राज्य के 2015-2019 के दौरान के डेटा का विश्लेषण करते हुए, राज्य के स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम के तहत सब्सिडी वाले अस्पताल देखभाल के उपयोग में पर्याप्त लैंगिक अन्तर विशेष रूप से युवा और वृद्ध आयु समूहों के बीच पाया और इन असमानताओं को लैंगिक आधार पर जनसंख्या की संरचना या लिंग-विशिष्ट बीमारी के प्रसार का अनुमान के आधार पर स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। बल्कि, ऐसा प्रतीत होता है कि ये परिवारों द्वारा महिला सदस्यों की तुलना में पुरुष सदस्यों की स्वास्थ्य देखभाल के लिए अधिक ध्यान देने और अधिक संसाधन आवंटित करने के इच्छुक होने से प्रेरित हैं। सेवा से जुड़े ज़ेब-खर्च (आउट-ऑफ-पॉकेट)6 में वृद्धि के साथ किसी सेवा के लिए आने वाली महिलाओं की हिस्सेदारी में कमी आई है। इसके अलावा, स्वास्थ्य देखभाल प्राप्त करने के लिए पुरुषों द्वारा अस्पताल की चिकित्सा देखभाल के लिए तय की गई दूरी, परिवारों के अलग-अलग संसाधनों को देखते हुए भी महिलाओं की तुलना में काफी अधिक थी।
संक्षेप में, ये अध्ययन भारत में माध्यमिक और तृतीयक स्वास्थ्य सेवा उपयोग में लैंगिक अन्तर की उपस्थिति स्थापित करते हैं। फिर भी, उन अंतर्निहित कारकों के बारे में बहुत कम जानकारी है जो चिकित्सा सुविधा स्तर पर स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच में लैंगिक असमानता के रूप में प्रकट हो रहे हैं।
जीवन-साथी द्वारा हिंसा
भारत और विश्व स्तर पर महिलाओं को प्रभावित करनेवाली एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या आईपीवी (जीवन-साथी द्वारा हिंसा) है और स्वास्थ्य क्षेत्र को इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है (विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ), 2021)। परिवारों में महिलाओं के खिलाफ इस प्रकार की हिंसा में कोविड-19 महामारी के दौरान वृद्धि देखी गई, घरेलू हिंसा के प्रति दृष्टिकोण ने लॉकडाउन के समय में इसकी घटनाओं और रिपोर्टिंग को प्रभावित किया (रवींद्रन और शाह 2020)। सीता मेनन (2023) के एक अध्ययन ने महिलाओं में अन्तंरग या जीवन साथी द्वारा हिंसा (आईपीवी) और उच्च रक्तचाप के बीच एक कारणात्मक सम्बन्ध स्थापित किया, जो यह दर्शाता है कि "घरेलू हिंसा का छिपा हुआ स्वास्थ्य बोझ पहले की तुलना में अधिक होने की सम्भावना है।"
कई शोध अध्ययनों ने आईपीवी की सम्भावना को प्रभावित करने वाले कारकों की जाँच की है। उदाहरण के लिए, धमीजा और रॉयचौधरी (2018) ने आईपीवी के कम गम्भीर और गम्भीर, दोनों रूपों पर महिलाओं की शादी की उम्र का एक मज़बूत नकारात्मक प्रभाव पाया।7 वर्ष 2022 के अपने एक अध्ययन में, दोनों शोधकर्ताओं ने यह भी दर्शाया कि हाइपरगैमी का उल्लंघन यानी, पत्नी की आर्थिक स्थिति पति के बराबर या उससे अधिक होने पर आईपीवी की सम्भावना बढ़ जाती है। आईपीवी सम्बन्धी शोध के एक हिस्से ने आईपीवी के साथ पुरुष साथियों द्वारा शराब पिये जाने के सम्बन्धों की जाँच की है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2016 में शराब की बिक्री और खपत पर पूर्ण प्रतिबंध लगानेवाले बिहार राज्य के मामले में, देबनाथ, पॉल और सरीन (2023) ने पाया कि विवाहित महिलाओं को घर पर हिंसा का अनुभव होने की सम्भावना कम हो गई।
आईपीवी का समाधान करने के किसी भी प्रयास में पुरुषों को प्रमुख मानते हुए, विशेषज्ञों ने युवकों को लिंग-परिवर्तनकारी जीवन कौशल प्रदान करने पर ज़ोर दिया है। प्रारम्भिक किशोरावस्था चरण में इस तरह के हस्तक्षेपों के नियमित सम्पर्क से पुरुषों के दृष्टिकोण में काफी बदलाव आ सकता है और परिणामस्वरूप महिलाओं के खिलाफ हिंसा की घटनाओं पर असर पड़ सकता है। इसका एक उदाहरण बिहार में 'दो कदम बराबरी की ओर' पहल (संथ्या और ज़ेवियर 2021) है।
मानसिक स्वास्थ्य
कोविड-19 महामारी ने महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य के मामले पर भी ध्यान आकर्षित किया है। महामारी जैसे संकट का महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर असंगत प्रभाव आईपीवी के बढ़ते जोखिम और अधिक देखभाल ज़िम्मेदारियों जैसे कारकों के कारण हो सकता है।
कोफ़ी एवं अन्य (2020) ने वर्ष 2018 में बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र में सोशल एटिट्यूड रिसर्च, इंडिया द्वारा प्रशासित मानसिक स्वास्थ्य पर एक स्व-रिपोर्ट की गई प्रश्नावली के निष्कर्षों पर चर्चा की। इसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि जो महिलाएं परिवारों में सबसे अंत में भोजन करती हैं, उनका मानसिक स्वास्थ्य उन महिलाओं की तुलना में खराब होता है जो ऐसा नहीं करती- आंशिक रूप से अंत में भोजन और निर्णय लेने की शक्तियों के बीच सम्बन्ध के कारण ऐसा होता है। मार्च-अप्रैल 2020 के लॉकडाउन के दौरान दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में अफरीदी, ढिल्लों और रॉय (2020) द्वारा किए गए एक फोन सर्वेक्षण से पता चला कि महिलाओं ने पुरुषों की तुलना में उच्च स्तर के वित्तीय और स्वास्थ्य तनाव का अनुभव किया। छह भारतीय राज्यों (बाउ एवं अन्य 2021) में किए गए एक बड़े पैमाने के फोन सर्वेक्षण के दौरान, बड़ी संख्या में महिला ने सूचित किया कि महामारी के दौरान अवसाद, थकावट, चिंता और सुरक्षा की धारणा की उनकी भावनाओं पर बुरा असर पड़ा। महिलाओं के कल्याण पर ये प्रतिकूल प्रभाव विशेष रूप से छोटे बच्चों वाली कामकाजी माताओं, बेटियों वाली महिलाओं और परिवार की महिला मुखियाओं पर अधिक थे। कम संसाधन वाली सेटिंग में मानसिक स्वास्थ्य सहायता तक महिलाओं की सीमित पहुँच को ध्यान में रखते हुए, अहमद एवं अन्य (2021) ने ग्रामीण बांग्लादेश में कम लागत वाले टेली-परामर्श, जिसमें स्वास्थ्य जागरूकता, आत्म-देखभाल और प्रियजनों के साथ जुड़े रहने की प्रासंगिकता जैसे मॉड्यूल शामिल हैं, हस्तक्षेप के सकारात्मक प्रभाव को दर्शाया।
भारत में कोविड-19 महामारी के बाद से, मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के बारे में जागरूकता और संवेदनशीलता बढ़ाने के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों को मज़बूत करने की आवश्यकता के बारे में मान्यता बढ़ रही है। उपरोक्त साक्ष्य ऐसे प्रयासों के लिंग-उत्तरदायी होने के महत्व को दर्शाते हैं।
सम्भावित समाधान : संसाधन, दृष्टिकोण, सूचना सम्बन्धी तत्वों का आधार लेना
एक दृष्टिकोण यह है कि वित्तीय संसाधनों पर नियंत्रण की कमी महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल पहुँच को प्रतिबंधित कर सकती है। उदाहरण के लिए, इस लेख में चर्चा किए गए उत्तर प्रदेश के अध्ययन में, परिवार नियोजन सेवाओं तक पहुँच के लिए सब्सिडी प्रदान करना इस विषय पर युवा महिलाओं और सास के बीच गतिशीलता को बदलने में मददगार साबित हुआ। दूसरी ओर, अग्रवाल, चटर्जी और चटर्जी (2023) द्वारा किए गए के एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि महिलाओं की ‘डिस्पोजेबल’ आय में वृद्धि से ज़रूरी नहीं कि उनके स्वास्थ्य देखभाल पर अधिक खर्च हो, और यहाँ तक कि उसमें गिरावट भी हो सकती है। ऐसा पारिवारिक कल्याण में योगदान देने की महिलाओं की या तो अंतर्निहित या सामाजिक, पारिवारिक या साथियों के दबाव से प्रेरित प्राथमिकताओं के कारण हो सकता है।
आम तौर पर, महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण और स्वास्थ्य सशक्तिकरण के बीच सम्बन्धों का पर्याप्त रूप से पता नहीं लगाया गया है। सिद्धांत रूप में, परिवार के बाहर भुगतान वाले काम में संलग्न होना और/या संसाधनों पर नियंत्रण होना महिलाओं के सशक्तिकरण और उनके अधिकार के साधन के रूप में काम कर सकता है। हालांकि, महिलाओं की विस्तारित आर्थिक सम्भावनाएँ परिवारों के भीतर उनकी प्रतिक्रिया को जन्म दे सकती हैं (एंडरसन 2023)- जैसा कि हाइपरगैमी और आईपीवी के सम्बन्ध में इस लेख में पहले भी उल्लेख किया गया था। जबकि मैक्सवेल और वैष्णव (2021) ने महिलाओं की कार्य स्थिति और पारिवारिक निर्णय लेने में उनके अधिकार के बीच एक सकारात्मक सम्बन्ध पाया, महिलाओं के स्वास्थ्य- प्रजनन और उससे आगे से संबंधित निर्णयों को शामिल करने के लिए इस प्रकार के अध्ययन को बढ़ाने की आवश्यकता है।
भान और शुक्ला (2023) तर्क देते हैं कि "महिलाओं की अपनी आवश्यक स्वास्थ्य देखभाल को त्यागने या कम तरजीह देने को अच्छी तरह से नहीं समझा गया है और यह उनकी आत्म-जागरूकता में कमी के साथ-साथ कम आत्म-मूल्य, दोनों से संबंधित हो सकता है।" उन्होंने असंक्रामक रोगों (एनसीडी) से संबंधित कार्यक्रमों में ऐसे तत्वों को शामिल करने की वकालत की जो महिलाओं के बीच आत्म-देखभाल को बढ़ाना चाहते हैं ताकि उनके स्वास्थ्य को परिवारों और स्वास्थ्य प्रणालियों में प्राथमिकता दी जा सके। लेखकों ने स्वास्थ्य प्रणाली के साथ परस्पर-क्रिया में महिलाओं के सन्दर्भ में "सम्मानजनक देखभाल" के विशेष महत्व पर भी प्रकाश डाला है।
एक दृष्टिकोण को आकार देने के सन्दर्भ में, कई अध्ययनों ने महिला नेताओं की भूमिका का पता लगाया है। भालोत्रा एवं अन्य (2023) द्वारा एक क्रॉस-कंट्री विश्लेषण में यह देखा गया है कि लैंगिक आधार पर कोटा के कार्यान्वयन के बाद राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी में उछाल आया और एमएमआर में भारी गिरावट आई। लेखकों ने जन्म के समय कुशल सहायता और प्रसवपूर्व देखभाल के उपयोग में वृद्धि, प्रजनन क्षमता में कमी और महिला स्कूली शिक्षा में वृद्धि जैसे तंत्रों पर भी प्रकाश डाला। राजस्थान राज्य के के इस अध्ययन में, लेखकों ने पाया कि स्थानीय महिला नेताओं के साथ लम्बे समय तक सम्पर्क से एमसीएच में अधिक निवेश और गांव में महिला के अधिकार को बढ़ावा मिलने से फर्क पड़ा है।
अंत में, यह सर्वविदित है कि ‘जानकारी का होना’ स्वास्थ्य देखभाल के उपयोग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। देबनाथ (2021) ने जेएसवाई के तहत नकद प्रोत्साहनों का विश्लेषण करते हुए पाया कि माताओं के लिए बड़े प्रोत्साहनों की तुलना में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के लिए बड़े प्रोत्साहन संस्थागत प्रसव की सम्भावना बढ़ाने में अधिक प्रभावी थे। माताओं और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को दिए गए प्रोत्साहनों के बीच मज़बूत संपूरकता विशेष रूप से गरीब या कम जानकारी वाले परिवारों के मामले में सच साबित हुई।
राजस्थान अध्ययन के अनुवर्ती अध्ययन में, डुपास और जैन (2023) ने माना कि सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम के लक्षित लाभार्थियों को अपने अधिकारों के बारे में कम जागरूकता थी, तब भी जब वे कई महीनों से बीमा का लाभ उठा रहे थे। यह देखा गया कि रोगियों को फोन-आधारित जानकारी प्रदान करने से, विशेषकर गरीब, कम शिक्षित और महिला रोगियों के बीच कार्यक्रम के प्रति उनकी जागरूकता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। जानकारी से लैस मरीज़ "सार्वजनिक अस्पतालों में अपनी बात रखने और अपना उचित लाभ प्राप्त करने में सक्षम थे।"
अतः संसाधन में वृद्धि, सूचना तक पहुँच और व्यवहार में परिवर्तन किस प्रकार प्रभाव डालते हैं और बेहतर परिणामों में परिवर्तित होते हैं, इसकी अंतर्दृष्टि प्रभावी हस्तक्षेप तैयार करने में मदद कर सकती है।
स्वास्थ्य नीति के प्रति लैंगिक दृष्टिकोण
जैसा कि डुपास और जैन (2021) ने बताया, विशेष रूप से महिलाओं के प्रति लक्षित कार्यों के बिना, स्वास्थ्य देखभाल पर किया जानेवाला सार्वजनिक खर्च प्रभावी रूप से पुरुष-समर्थक होगा। स्थापित लैंगिक पूर्वाग्रहों वाले माहौल में, लैंगिक-तटस्थ नीतियाँ पर्याप्त नहीं होंगी और सम्भावित रूप से मौजूदा असमानताएं बढ़ा सकती हैं। प्राप्त साक्ष्य से अपेक्षित है कि भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों और कार्यक्रमों के लिए एक लैंगिक दृष्टिकोण अपनाए जाने की आवश्यकता है। महिलाओं की विभिन्न स्वास्थ्य देखभाल आवश्यकताओं और स्वास्थ्य प्रणालियों से जुड़ने में उनके सामने आने वाली विशेष बाधाओं की गहरी, सूक्ष्म समझ, सभी के लिए अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त करने के अंतिम उद्देश्य के अनुरूप, नवीन रणनीतियों के डिजाइन और कार्यान्वयन किए जाने की ओर इशारा करती है।
टिप्पणियाँ :
- प्रति 1,00,000 जीवित जन्मों पर प्रसव के दौरान मरने वाली महिलाओं की संख्या।
- एनएचपी, 2017 में एमएमआर लक्ष्य वर्ष 2020 तक 100 के आँकड़े तक पहुँचना था। एमडीजी के लक्ष्य 5 के अनुसार, भारत को वर्ष 2015 तक अपने 1990 एमएमआर को तीन-चौथाई तक कम करने की उम्मीद थी।
- वर्ष 2016 में लागू, मिशन परिवार विकास [उच्च-प्रजनन क्षमता वाले] कार्यक्रम जिलों में गर्भ निरोधकों और परिवार नियोजन सेवाओं तक पहुँच बढ़ाने के लिए एक स्तरीकृत दृष्टिकोण अपनाता है..." (स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, 2016)
- कुछ राज्य सरकारों के पास अपने स्वयं के सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम हैं।
- बीमा कवर का उपयोग परिवार के एक या सभी सदस्यों द्वारा किया जा सकता है।
- हालांकि, अस्पताल की देखभाल गरीबों के लिए मुफ़्त है, मरीजों को दवाओं, निदान, अस्पताल की यात्रा आदि पर अपनी जेब से (ओओपी) खर्च (आर्थिक सर्वेक्षण, 2021) करना पड़ता है।
- नीतिगत पक्ष पर, भारत में लड़कियों के लिए शादी की न्यूनतम कानूनी उम्र वर्ष 2021 में 18 से बढ़ाकर 21 कर दी गई।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : नलिनी गुलाटी 'आइडियाज़ फॉर इंडिया' (I4I) में संपादकीय सलाहकार हैं। वह 2012 और 2022 के बीच I4I की संस्थापक प्रबंध संपादक और इंटरनेशनल ग्रोथ सेंटर (IGC) के भारत कार्यक्रम में कंट्री इकोनॉमिस्ट भी थीं।
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