कोविड -19 और इससे संबंधित लॉकडाउन के कारण बड़े पैमाने पर लोगों की नौकरियां चली गई, जिसके फलस्वरूप शहरों से प्रवासी श्रमिकों का पलायन हुआ। इस लेख में, चक्रवर्ती एवं अन्य, उनके द्वारा ग्रामीण बिहार और झारखंड के युवा व्यावसायिक प्रशिक्षुओं पर किये गए सर्वेक्षण से निकाले गए निष्कर्षों जैसे रोजगार पर पड़े गंभीर प्रभाव, अनौपचारिकीकरण में वृद्धि, पुन:प्रवासन की कमी और महिलाओं पर पड़े प्रतिकूल प्रभाव पर प्रकाश डालते हैं । वे युवाओं को नौकरी खोजने में मदद करने के लिए एक डिजिटल हस्तक्षेप की भी जाँच करते हैं।
भारत सरकार ने जब मार्च 2020 में कोविड -19 की आई पहली लहर का सामना करने हेतु राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन लगाया तो यह स्पष्ट हो गया था कि इस स्वास्थ्य आपातकाल की वजह से आर्थिक संकट भी पैदा होगा। विनाशकारी दूसरी लहर के बाद, अब पहली लहर के आर्थिक और सामाजिक नतीजों के बारे में जानना पहले से कहीं अधिक जरूरी हो गया है।
हमने 2020-2021 के दौरान ग्रामीण बिहार और झारखंड के लगभग 2,260 युवा महिलाओं और पुरुषों के रोजगार और प्रवासन प्रक्षेप-पथ का आकलन किया। महामारी से पहले, ये युवा भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय, डीडीयू-जीकेवाई1 (दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना) के प्रशिक्षण और प्लेसमेंट कार्यक्रम के लाभार्थी थे। वे एक यादृच्छिक प्रयोग का हिस्सा थे, जिसमें प्रशिक्षुओं को उनके रोजगार परिणामों में सुधार हेतु प्रशिक्षण के बाद प्लेसमेंट अवसरों के बारे में जानकारी का प्रावधान शामिल था (चक्रवर्ती और अन्य 2021)। आईजीसी के हालिया शोध के एक भाग में, हमने दो फोन सर्वेक्षण किए, एक जून-जुलाई 2020 में (राष्ट्रीय लॉकडाउन के तुरंत बाद) (चक्रवर्ती और अन्य 2020, 2021), और दूसरा मार्च-अप्रैल 2021 (राष्ट्रीय लॉकडाउन के एक साल बाद) में। जून-जुलाई 2020 के सर्वेक्षण के उत्तरदाताओं से लॉकडाउन से पहले की उनकी रोजगार और प्रवासन की स्थिति के बारे में पूर्वव्यापी रूप से पूछा गया। झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी (जेएसएलपीएस) के सहयोग से, हमने प्रयोगात्मक रूप से इस बात की भी जांच की कि सरकार द्वारा समर्थित नौकरी मंच (ऐप) के जरिये नौकरी की तलाश में उन्हें कैसे सहायता मिल रही थी। हम इस नोट में अपने निष्कर्षों पर चर्चा करते हैं।
चित्र 1. फोन सर्वेक्षण और प्रयोग की समय अवधि
अधिकांश युवाओं ने अपना वेतनभोगी काम खो दिया, और कई ने अनौपचारिक काम करना शुरू कर दिया
महामारी के आर्थिक झटके से वेतनभोगी नौकरियों में काम करने वाले उत्तरदाताओं के अनुपात में कमी आई है - यह लॉकडाउन से पहले 40.5% था, जो घटकर लॉकडाउन के एक साल बाद 24.2% हो गया। लॉकडाउन से पहले जो लोग वेतनभोगी नौकरियों में थे, उनमें 10 लोगों में से छह ने अपनी नौकरी खो दी या एक साल बाद नौकरी छोड़ दी। वेतनभोगी काम में आई इस गिरावट के चलते अनौपचारिक कार्यों में वृद्धी हुई है: अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले उत्तरदाताओं का अनुपात लॉकडाउन से पहले 8.8 फीसदी था जो लगभग तीन गुना बढ़कर लॉकडाउन के एक साल बाद 23 फीसदी हो गया ।
चित्र 2. रोजगार प्रक्षेप-पथ
नोट: 'प्री-लॉकडाउन' का तात्पर्य होली के त्योहार (10 मार्च 2020) के बाद की तथा 25 मार्च 2020 को देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा होने के पहले की अवधि से है ।
महिलाओं के श्रम-बल से बाहर होने की संभावना अधिक होती है, और केवल कुछ ने ही नौकरी की तलाश की
महिलाओं और पुरुषों के रोजगार के प्रक्षेप-पथ में काफी अंतर है। लॉकडाउन से पहले वेतनभोगी नौकरी करने वाली आधी महिलाओं ने अपनी नौकरी खो दी और लॉकडाउन के एक साल बाद भी कमाई नहीं कर रही हैं। उसी समय में, लॉकडाउन के पहले की अवधि में वेतनभोगी नौकरी कर रहे कई पुरुषों ने लॉकडाउन के एक साल बाद अनौपचारिक काम करना शुरू किया है। यह लैंगिक अंतर बने रहने की संभावना है - हमारे सर्वेक्षण में तीन चौथाई पुरुषों की तुलना में केवल आधी महिलाओं का कहना है कि वे नौकरियों की तलाश कर रही हैं, और हमारे नमूने में से केवल 13% महिला श्रमिकों ने (पुरुषों के एक चौथाई की तुलना में) पिछले दो महीनों में नौकरी के लिए आवेदन किया।
चित्र 3. लैंगिक आधार पर रोजगार प्रक्षेप-पथ
नोट: बाईं ओर का ग्राफ पुरुषों के रोजगार प्रक्षेप-पथ को दर्शाता है और दाईं ओर का ग्राफ महिलाओं के रोजगार प्रक्षेप-पथ को दर्शाता है।
कई प्रवासी श्रमिक अपने घर वापस आ गए, और एक साल के बाद भी घर पर ही हैं
हमारे नमूने में, अपने गृह राज्य से बाहर काम कर रहे युवाओं का अनुपात आधे से कम हो गया, जो लॉकडाउन से पहले 32% था, इसके एक साल बाद 16% हो गया है। अंतरराज्यीय प्रवासियों2 में से लगभग आधे (45%) लॉकडाउन के तुरंत बाद घर लौट आए हैं, और हम पाते हैं कि शेष आधे प्रवासी जो लॉकडाउन (जून-जुलाई 2020) के तुरंत बाद अपने गृह राज्य से बाहर थे, लॉकडाउन (मार्च-अप्रैल 2021 में) के एक साल बाद अपने घर लौट आए हैं। पुन: प्रवासन का- विशेष रूप से महिला श्रमिकों का इरादा अपेक्षाकृत कम है, हमारे द्वारा सर्वेक्षण किए गए लोगों में से 37% पुरुष पुन: अपने गृह राज्य से बाहर काम करने के इच्छुक हैं, जबकि 17% महिलाएं इच्छुक हैं।
चित्र 4. प्रवासन: लॉकडाउन-पूर्व, लॉकडाउन के तुरंत बाद, और लॉकडाउन के एक साल बाद
सरकारी प्रायोजित नौकरी ऐप का नौकरी खोज पर कोई अल्पकालिक प्रभाव नहीं पड़ा
झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी (जेएसएलपीएस) ने हमारे नमूने में से आधे लोगों से उन्हें नौकरी मंच ‘युवा-संपर्क’ से अवगत कराने, उक्त ऐप पर पंजीकरण करने में उनकी मदद करने और नौकरियों के लिए आवेदन करने हेतु उनकी सहायता करने के लिए यादृच्छिक रूप से संपर्क किया। कॉल के दो या तीन सप्ताह बाद, हम 'उपचार' (हस्तक्षेप प्राप्त करने वाले) और 'नियंत्रण' (जिन्हें हस्तक्षेप प्राप्त नहीं हुआ) समूह के बीच नौकरी के आवेदन, नौकरी खोज की पद्धति, या नौकरी खोज की तीव्रता पर कोई प्रभाव नहीं देखते हैं (चित्र 5)। ऐप में कुछ ऐसी समस्याएं थीं जो ग्रामीण युवाओं के लिए इसकी प्रभावशीलता को सीमित करती हैं। सबसे पहले, ऐप में अपेक्षाकृत कम नौकरी पोस्टिंग थी, और वह भी केवल सीमित संख्या में क्षेत्रों में। दूसरा, इस ऐप के सभी मॉड्यूल अंग्रेजी में थे। तीसरा, ऐप का उपयोग करने के लिए एक स्मार्टफोन और अच्छी इंटरनेट कनेक्टिविटी की आवश्यकता होती है, जो भारत के कई हिस्सों में हर जगह उपलब्ध नहीं है।
चित्र 5. दो समूहों में नौकरी के आवेदन
चर्चा और नीतिगत निहितार्थ
हमारे नमूने में से ग्रामीण बिहार और झारखंड के युवा प्रवासी श्रमिकों, जो महामारी से पहले डीडीयू-जीकेवाई कार्यक्रम का हिस्सा थे, पर कोविड -19 महामारी के आकस्मिक परिणाम हुए। पहले लॉकडाउन के बाद कई लोगों की नौकरी चली गई और वे अपने गृहनगर लौट आए, और एक साल बाद, उनमें से कुछ ही वापस गए हैं। उनमें से कुछ ने, ज्यादातर पुरुषों ने अनौपचारिक रोजगार करना शुरू किया है, वे अभी भी नौकरी की तलाश में हैं, और फिर से प्रवासन करने की उम्मीद में हैं। इसके विपरीत, अपनी नौकरी गंवाने वाली अधिकांश महिलाएं श्रम-बल से बाहर हो गई हैं और वे न तो नौकरी की तलाश कर रही हैं और न ही प्रवासन के बारे में सोच रही हैं। इसलिए, ऐसा लगता है कि महामारी के संकट ने ग्रामीण युवाओं, विशेषकर महिलाओं को शहरी क्षेत्रों में औपचारिक नौकरियों तक पहुँचने में होने वाली असुविधाओं को प्रबल कर दिया है।
जैसे-जैसे डिजिटलीकरण अधिक व्यापक होता जा रहा है, डिजिटल समाधानों में ग्रामीण युवाओं को नौकरी की रिक्तियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने में मदद मिलने की जबरदस्त क्षमता है। तथापि, सभी साधन उनके काम नहीं आएंगे। हमारी प्रायोगिक जाँच के परिणाम बताते हैं कि इन डिजिटल समाधानों को सावधानीपूर्वक डिजाइन किया जाना चाहिए ताकि नौकरी चाहने वालों के लिए ये उपयोग में आसान हों और नियोक्ताओं के लिए नौकरी के व्यापक अवसर प्रदान करने हेतु आकर्षक हों।
बिहार और झारखंड के ग्रामीण युवाओं, विशेष रूप से महिलाओं को औपचारिक नौकरियों तक पहुँचने में अतिरिक्त बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जिसके लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है – जो केवल अन्य राज्यों के शहरों में उपलब्ध है। इन बाधाओं को दूर करने में डीडीयू-जीकेवाई की सफलता लॉकडाउन के पहले औपचारिक नौकरियों में नियोजित युवाओं (महिलाओं और पुरुषों के लगभग समान प्रतिशत) संख्या से स्पष्ट होती है और इससे संकेत मिलता है कि सरकार द्वारा इस दिशा में एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) और निजी भागीदारों के सहयोग से समर्पित प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।
इसके लेखक परियोजना पर सहयोग के लिए बीआरएलपीएस, जेएसएलपीएस और ग्रामीण विकास मंत्रालय को धन्यवाद देना चाहते हैं। वे इस अध्ययन के कार्यान्वयन के दौरान व्यापक सहयोग के लिए श्री संजय कुमार (बीआरएलपीएस) और श्री अभिनव बख्शी (जेएसएलपीएस) के भी आभारी हैं।
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टिप्पणियाँ:
- यह कार्यक्रम 15 से 35 वर्ष की आयु के वंचित ग्रामीण युवाओं को अल्पकालिक आवासीय प्रशिक्षण प्रदान करता है।
- लॉकडाउन से पहले राज्य से बाहर रह रहे लोग।
लेखक परिचय: भास्कर चक्रवर्ती यूनिवर्सिटी ऑफ़ वारविक इंस्टीट्यूट ऑफ़ एम्प्लॉयमेंट रिसर्च में पीएचडी के छात्र और चांसलर इंटरनेशनल स्कॉलर हैं। क्लेमों इम्बर्ट यूनिवर्सिटी ऑफ वॉरविक में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। रोलैंड राथेलॉ यूनिवर्सिटी ऑफ वॉरविक में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। मैक्सिमिलियन लोह्नर्ट जे-पाल साउथ एशिया में रिसर्च मैनेजर हैं। पूनम पांडा जे-पाल साउथ एशिया में रिसर्च असोसिएट हैं। अपूर्व यश भाटिया यूनिवर्सिटी ऑफ़ वारविक में अर्थशास्त्र में एक पीएच.डी. छात्र हैं।
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