शहरी रोजगार कार्यक्रम के लिए ज्यां द्रेज़ के ड्यूएट प्रस्ताव पर अपना दृष्टिकोण प्रदान करते हुए अश्विनी कुलकर्णी इसकी कार्यान्वयन प्रक्रिया के बारे में प्रासंगिक सवाल उठाती हैं। वे शहरी परियोजनाओं को पूरा करने की वर्तमान प्रक्रिया में 'श्रम ठेकेदारों' की भूमिका को रेखांकित करती हैं, और सवाल करती हैं कि क्या यह उम्मीद करना वाजिब है कि उन्हें आसानी से बदला जा सकता है।
शहरी रोजगार सृजन कार्यक्रम के विचार पर इस प्रकार चर्चा की जा रही है कि जैसे यह शहरी भारत के लिए मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) का ही एक प्रकार हो। हालांकि शहरी स्थिति बहुत अलग है। सरकारी बुनियादी ढ़ांचे से संबंधित परियोजनाओं के लिए अधिक सामग्री इनपुट और विविधतापूर्ण कौशल वाले श्रम की आवश्यकता होती है। मनरेगा परियोजनाओं के विपरीत श्रमिक टीमों को आसानी से उन यादृच्छिक श्रमिकों के साथ नहीं बनाया जा सकता है जो एक दूसरे से अनजान हों। श्रमिकों की भर्ती को स्थानीय निवासियों तक सीमित करना इस कार्य को और अधिक कठिन बना देता है। इसके अलावा इसमें निवास सत्यापन की समस्या भी जुड़ जाती है।
शहरी क्षेत्रों में निर्माण और रखरखाव परियोजनाओं के तरीके से मैं कुछ परिचित हूं। मैं यह समझना चाहूंगी कि ड्यूएट के तहत इस तरह की परियोजनाओं पर किस प्रकार कार्य किया जाएगा और हमें परिणामों के बेहतर होने की उम्मीद क्यों करनी चाहिए। बेहतर परिणामों से मेरा मतलब अधिक से अधिक रोजगार सृजन और/या अधिक उपयुक्त और ज्यादा से ज्यादा शहरी सुधार से है।
मुझे लगता है कि ड्यूएट के लिए अतिरिक्त सरकारी खर्च की आवश्यकता होगी। पहला, क्या यह निसंदेह रूप से कहा जा सकता है कि सरकार के राजस्व से होने वाले किसी भी अतिरिक्त व्यय के लिए शहरी बुनियादी ढांचा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए? दूसरा, अगर ऐसा है भी, तो मौजूदा व्यवस्था के तहत शहरी परियोजनाओं के लिए राज्य सरकार के बजट में इतनी ही बढ़ोतरी किए जाने की तुलना में ड्यूएट के तहत बेहतर नतीजे क्यों आएंगे? क्या शहरी बुनियादी ढांचे के लिए राज्य बजटों में इतनी ही राशि बढ़ा दिया जाने की तुलना में ड्यूएट से अधिक रोजगार या अधिक उपयुक्त कार्य सृजित होंगे? यदि हाँ, तो क्यों? जब तक कि इतने ही अतिरिक्त व्यय के साथ वर्तमान व्यवस्था की तुलना में ड्यूएट के तहत अधिक रोजगार या बेहतर बुनियादी ढांचे का निर्माण नहीं किया जाता तब तक ड्यूएट अपने उद्देश्य को पूरा करता हुआ नहीं माना जाएगा।
वर्तमान में राज्य सरकार शहरी सार्वजनिक परियोजनाओं जैसे सरकारी भवनों के रखरखाव के लिए धन आवंटित करती है और आवेदकों में से कुछ आवेदनों को उनके बजट के अनुसार चयन करती है। ड्यूएट के तहत आवंटन और चयन का निर्णय अभी भी राज्य सरकार (द्रेज़ के प्रस्ताव में पांचवें बिंदु) के हाथों में ही रहेगा। जॉब स्टैंप के प्राप्तकर्ताओं का चयन राज्य की नौकरशाही ही करेगी। यदि हां, तो स्पष्ट है कि परियोजनाओं के चयन में सुधार करने के लिए ड्यूएट को डिज़ाइन नहीं किया गया है। तो फिर ड्यूएट के कारण अधिक उपयुक्त परियोजनाएं क्यों आएंगी?
शहरी केंद्रों में सार्वजनिक परियोजनाओं में आमतौर पर निम्नलिखित शामिल होते हैं: जल आपूर्ति, स्वच्छता, जल उपचार संयंत्र, हरित क्षेत्रों का रखरखाव, सरकारी भवनों का निर्माण और रखरखाव (उदाहरण के लिए, कार्यालय, स्कूल, क्लीनिक, अस्पताल, आदि), सड़क, फुटपाथ, सड़क के किनारे वृक्षारोपण, स्ट्रीट लाइट, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, अपशिष्ट जल प्रबंधन, आदि। यह प्रक्रिया इस प्रकार होती है: कोई राज्य विश्वविद्यालय अपनी इमारतों पर रंगाई-पुताई कराना चाहता है। विश्वविद्यालय राज्य सरकार को आवेदन करता है। यदि इसे आवश्यक धन प्राप्त करने के लिए चुना जाता है तो इसके लिए निविदाएं आमंत्रित करनी होती हैं। विभिन्न कंपनियां निविदाओं के लिए बोली लगाती हैं और अपेक्षाओं को पूरा करने वाली सबसे कम बोली लगाने वाली फर्म को अनुबंध सौंपा जाता है। फिर, चुनी गई फर्म आवश्यक कौशल वाले श्रमिकों की टीम की आपूर्ति करने के लिए श्रम ठेकेदार को एक उप-ठेका देती है। जब टीम अपने स्वयं के उपकरणों और तकनीकी जानकारी का उपयोग करते हुए इमारतों की रंगाई-पुताई का कार्य करती है तो फर्म का एक पर्यवेक्षक इसकी निगरानी करता है। फर्मों को श्रम ठेकेदारों की आवश्यकता क्यों होती है? ऐसा इसलिए है क्योंकि इस तरह के निर्माण और रखरखाव परियोजनाओं को पूरा करने वाली फर्में उसी खास परियोजना के लिए काम पर रखे गए अनियत श्रमिकों के साथ काम करती हैं। ऐसी फर्मों की श्रम शक्ति की आवश्यकता फर्म को दिए गए अनुबंधों की संख्या के आधार पर घटती-बढ़ती रहती है। यदि उन्हें आज 100 और कल 50 श्रमिकों की आवश्यकता है, तो उनके लिए 150 व्यक्तिगत श्रमिकों के बजाय एक या दो श्रम ठेकेदारों के साथ लेन-देन करना काफी अधिक सुविधाजनक है। इसके अलावा फर्म श्रमिकों से संबंधित सभी मुद्दों के लिए श्रम ठेकेदार को जिम्मेदार ठहरा सकती है। अधिकांश परियोजनाओं का कार्य ऐसी टीमों के द्वारा किया जाता है जिनमें श्रमिकों के कौशल के अनुसार उनको उपयुक्त संख्या में मिला-जुला कर शामिल किया जाता है। श्रम ठेकेदार का काम है कि वह आवश्यक कौशल रखने वाले श्रमिकों का चयन करे और सुनिश्चित करे कि यह टीम सामंजस्यता से कार्य करती है। मनरेगा के लिए यह प्रबंधन करना आसान है क्योंकि इसके अंतर्गत कौशल की आवश्यकता इतनी विविधतापूर्ण नहीं है और ज्यादातर कार्य शारीरिक श्रम का होता है। इसके अलावा श्रमिक एक ही क्षेत्र से आते हैं और प्राय:एक दूसरे को जानते हैं। यही कारण है कि शहरी निर्माण परियोजनाओं के लिए श्रमिक ठेकेदार अक्सर एक ही गांव से श्रमिकों को लाते हैं।
ड्यूएट प्रस्ताव बताता है कि 'प्लेसमेंट एजेंसी’ श्रमिकों को पंजीकृत करती है और उन्हें जॉब स्टैंप के साथ संभावित नियोक्ता से संपर्क करने का निर्देश देती है (द्रेज़ के प्रस्ताव का सातवाँ बिंदु)। क्या इसका अर्थ यह है कि प्लेसमेंट एजेंसी श्रम ठेकेदारों का स्थान ले लेगी? क्या प्लेसमेंट एजेंसी अनुभवी श्रम ठेकेदारों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम होगी? क्या वे कार्यस्थल के नजदीक यादृच्छिक आवासीय क्षेत्र में रह रहे मजदूरों के पूल में से अलग-अलग कौशलों वाले मजदूरों के साथ सामंजस्यपूर्ण टीमों को बनाने में सक्षम होंगे? प्लेसमेंट एजेंसी को इसके साथ पंजीकृत सभी श्रमिकों के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है। कौन-सा नियोक्ता श्रमिकों के एक यादृच्छिक समूह को काम पर रखेगा जिनके कार्य-निष्पादन के लिए किसी को जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता है? क्या श्रम ठेकेदार प्लेसमेंट एजेंसी के साथ पंजीकरण कर सकते हैं? यदि हाँ, तो प्लेसमेंट एजेंसी का कार्य क्या है? ज्यां की अवधारणा में यह नियोक्ता और श्रमिकों के बीच साठ-गांठ को रोक देगा। यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसा किस प्रकार होगा। अगर दो लोग मिल सकते हैं तो तीन भी मिल सकते हैं। सरकारी निरीक्षकों को घूस देकर अक्सर सरकारी नियमों को दरकिनार कर दिया जाता है।
अंत में मैं प्रणव बर्धन के सुझाव का समर्थन करना चाहूंगी कि ड्यूएट को छोटे तालुका शहरों की ओर निर्देशित किया जाना चाहिए। महानगरीय शहरों के बजाय उन्हें रखरखाव और मरम्मत की अधिक आवश्यकता है। यदि हम शहरी क्षेत्रों को ग्रामीण प्रवासियों के लिए खुशनुमा बनाना चाहते हैं, तो कम आय वाले आवासों की परम आवश्यकता है।
ड्यूएट एक बड़ी पहल है और इसके लक्ष्य प्रशंसनीय हैं। लेकिन मेरी हिचकिचाहट इन्हीं कुछ व्यावहारिक चिंताओं के कारण है और मुझे आशा है कि ज्यां इन पर विचार और चर्चा करेंगे।
लेखक परिचय: अश्विनी कुलकर्णी नासिक स्थित प्रगति अभियान नामक स्वयंसेवी संस्था की निदेशक हैं।
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