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वन अधिकार अधिनियम : विरोधाभासी संरक्षण कानूनों का लेखा-जोखा

  • Blog Post Date 21 नवंबर, 2023
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Bharti Nandwani

Indira Gandhi Institute of Development Research (IGIDR)

bharti@igidr.ac.in

वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के बारे में अपने दूसरे लेख में, भारती नंदवानी ने इस बात की जांच के लिए कि एफआरए की शुरूआत के बाद भूमि सम्बन्धी विवाद क्यों बढ़े, भूमि संघर्षों पर डेटा का उपयोग किया है। वे विरोधाभासी कानून की व्यापकता की ओर इशारा करते हुए, प्रतिपूरक वनीकरण निधि या ‘कम्पेन्सेटरी अफॉरेस्टेशन फण्ड’ के मामले को उजागर करती हैं, जिसका वितरण इस तरह से होता है कि वनवासियों की खेती की भूमि पर अतिक्रमण हो जाता है। वे उन समुदायों के बेहतर ज्ञान को पहचानने और उन्हें वनों के प्रबंधन और संरक्षण की ज़िम्मेदारी देने की आवश्यकता पर ज़ोर देती हैं।

वनों की बहाली और वृद्धि, भारत सहित दुनिया भर की सरकारों के घोषित लक्ष्यों में से एक है। वन-पारिस्थितिकी तंत्र से पर्यावरण को जो असंख्य लाभ प्राप्त होते हैं, उनसे वे हमारे अस्तित्व के लिए एक बड़े ही महत्वपूर्ण संसाधन का रूप ले लेते हैं। एक साझा संसाधन होने के कारण, वनों का उपयोग कई समूहों द्वारा किया जाता है और किसी भी समूह को इसके उपयोग के दायरे से बाहर रखना कठिन है। अतः स्वामित्व को परिभाषित करना और वनों के प्रबंधन अधिकार प्रदान करना, इनके स्थाई उपयोग के लिए एक महत्वपूर्ण निहितार्थ हो जाता है। हालाँकि, 22% वन-क्षेत्र वाले भौगोलिक क्षेत्र भारत में, पारम्परिक वनवासी समुदायों, जिनमें से अधिकांश अनुसूचित जनजातियाँ (एसटी) हैं और सरकार के बीच वनों के भूमि स्वामित्व को लेकर विवाद का एक लम्बा इतिहास रहा है।

भारत में वन भूमि अधिकार

सदियों से एसटी समुदाय वन क्षेत्रों में बिना औपचारिक स्वामित्व के रह रहे हैं, जबकि सरकार ने औपनिवेशिक काल में वन भूमि को अपने कानूनी अधिकार में किया था। औपनिवेशिक काल से पहले, स्थानीय समुदाय वन संसाधनों का प्रबंधन करते थे थोड़े से सरकारी नियंत्रण के बावजूद अपनी आजीविका अधीन इनसे प्राप्त करते थे। फिर भी 1865 के भारतीय वन अधिनियम के माध्यम से लाई गई औपनिवेशिक वन नीति के कारण, वन क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा सरकारी स्वामित्व के अधीन आ गया, जिसके चलते लाखों वनवासियों के पारम्परिक दावे अवैध हो गए। वनवासियों के अधिकारों का निपटारा किए बिना ही स्वतंत्रता के बाद भी, वनों पर सरकारी नियंत्रण जारी रखा गया। बढ़ती औद्योगिक आवश्यकताओं के साथ-साथ, औपचारिक स्वामित्व की कमी के कारण वन भूमि का उपयोग अन्य कार्यों के लिए किया गया और लाखों वनवासियों को बेदखल किया गया। इस के कारण कई मामलों में वन भूमि के स्वामित्व पर सरकार और वनवासियों के बीच विरोधाभासी दावे सामने आए हैं।

वर्ष 2008 में, भारत सरकार ने पारम्परिक वन निवासियों के वन पारिस्थितिकी तंत्र के बेहतर ज्ञान को मान्यता देने और उन्हें वनों के प्रबंधन और संरक्षण की ज़िम्मेदारी देने के लिए एक ऐतिहासिक कानून,  वन अधिकार अधिनियम, एफआरए, लागू किया। एफआरए को वनवासियों द्वारा परम्परागत रूप से खेती की जा रही भूमि के व्यक्तिगत स्वामित्व, लघु वन उपज (जिसमें उनकी आय में महत्वपूर्ण रूप से पूरक होने की क्षमता है) के स्वामित्व और साथ ही उसके प्रबंधन एवं वनों के संरक्षण का अधिकार देने वाले सामुदायिक स्वामित्व को मान्यता देने के लिए लागू किया गया था।

अध्ययन

यद्यपि एफआरए के अधिनियमन को डेढ़ दशक का समय हो गया है, लेकिन यह अधिनियम अभी तक वनवासियों के भूमि अधिकारों की मान्यता और सुरक्षा के अपने घोषित लक्ष्य को पूरी तरह से हासिल नहीं कर पाया है। मैंने एक हालिया शोध (नंदवानी 2022) में हाल ही में विकसित ‘लैंड कॉन्फ्लिक्ट्स वॉच’ (एलसीडब्ल्यू) डेटाबेस के आँकड़ों का उपयोग यह दिखाने के लिए किया है कि एफआरए के अधिनियमन के बाद, वनवासियों और सरकार द्वारा वन भूमि पर परस्पर-विरोधी दावे बढ़ गए हैं। आकृति-1 और 2 में देश में भूमि सम्बन्धी विवादों (भूमि स्वामित्व के परस्पर-विरोधी दावों के रूप में परिभाषित) के अस्थाई विकास और भौगोलिक वितरण को दर्शाया गया है। आकृति-1 वर्ष 2008 के बाद भूमि सम्बन्धी विवादों में हुई वृद्धि को दर्शाती है और आकृति-2 यह दर्शाती है कि ये विवाद मुख्य रूप से ओडिशा, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र जैसे उच्च वन क्षेत्र वाले राज्यों में केन्द्रित हैं।

आकृति-1. वर्ष 2000-2017 तक भारत में भूमि सम्बन्धी विवादों की संख्या


आकृति-2. भारत में वर्ष 2000-2017 तक, राज्यों के अनुसार भूमि सम्बन्धी विवादों का विवरण


मैं ‘अन्तर में भिन्नता’ यानी ‘डिफरेंस-इन डिफरेंस’ पद्धति का उपयोग करती हूँ और वर्ष 2008 से पहले और बाद में उच्च और निम्न वन कवर क्षेत्रों में भूमि सम्बन्धी विवादों की सम्भावना की तुलना करती हूँ। एफआरए के कारण परिवर्तन का संकेत देने के लिए रिपोर्ट की गई प्रवृत्ति में बदलाव के लिए, मैं यह सुनिश्चित करती हूँ कि वर्ष 2008 से पहले उच्च और निम्न वन आवरण वाले जिलों में भूमि सम्बन्धी विवादों में कोई अलग प्रवृत्ति न हो। मैं इन परिणामों की मज़बूती की मौजूदा सरकारी नीतियों, खनिजों की उपस्थिति, माओवादी विद्रोह की तीव्रता और आर्थिक गतिविधि के सन्दर्भ में भी जांच करती हूँ। हालांकि पारम्परिक वनवासियों को सुरक्षित भूमि स्वामित्व प्रदान करने के प्रावधान वाले कानून के बाद भूमि सम्बन्धी विवादों में वृद्धि हैरान करने वाली लग सकती है, इसी तरह के निष्कर्ष थाईलैंड और ब्राज़ील के अमेज़ॅन में वन भूमि अधिकारों के सन्दर्भ में भी पाए गए हैं (क्रिस्टेंसन और रबीभड़ाना 1994, एलस्टन एवं अन्य 2000, शिमर 2007, डी ओलिवेरा 2008)।

मैं इसके कारणों की जांच करती हूँ और एफआरए के बाद बढ़े विवादों के कारणों को उजागर करने के लिए मौजूदा कानूनी व्यवस्था को करीब से देखती हूँ। स्वतंत्रता के बाद, वन भूमि के सरकारी स्वामित्व की औपनिवेशिक वन नीति को बनाए रखने के अलावा, भारत सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) 1980 और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 जैसे कई वन संरक्षण और वन्यजीव संरक्षण कानून बनाए। इन कानूनों के तहत वनवासियों को वन और वन्यजीव संरक्षण के लिए खतरा बताया गया है और इसमें कई प्रावधान हैं, जो वनवासियों के अधिकारों को नकारते हैं। एफआरए के अधिनियमन के बाद, एफआरए के प्रावधानों के अनुरूप बनाने के लिए इन कानूनों में संशोधन करने का कभी भी प्रयास नहीं किया गया। इस तरह के विरोधाभासी कानूनों के परिणामस्वरूप कानूनी अस्पष्टता पैदा हुई है जिसने प्रतिस्पर्धी दावों का मार्ग प्रशस्त किया है।

ऐसे कानून का एक स्पष्ट उदाहरण वह तरीका है जिसके ज़रिए एफसीए 1980 के अनिवार्य वनीकरण अधिदेश के तहत राज्यों को वितरित धन का उपयोग किया जा रहा है। एफसीए 1980 के तहत, गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि का उपयोग करने वाली संस्थाओं द्वारा वन भूमि के शुद्ध वर्तमान मूल्य के बराबर राशि का भुगतान राज्यों के तदर्थ प्रतिपूरक वनीकरण निधि प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (सीएएमपीए या कैम्पा) द्वारा प्रबंधित ‘प्रतिपूरक वनीकरण निधि’ (कम्पेन्सेटरी अफॉरेस्टेशन फण्ड) में किए जाने की आवश्यकता होती है। ‘कैम्पा’ के अनुसार, राज्यों द्वारा इस निधि का उपयोग खोए हुए वन भंडार की भरपाई के लिए वनीकरण गतिविधियों के लिए किया जाना है। एफआरए के लागू होने बाद यह मानने के लिए कि वन निवासी वन संरक्षण के लिए ज़िम्मेदार हैं, इस अधिदेश में पर्याप्त संशोधन नहीं किया गया। हालाँकि वर्ष 2016 में पारित किए गए प्रतिपूरक वनरोपण निधि अधिनियम, सीएएफए, में उल्लेख किया गया है कि वनवासियों की भूमि पर वृक्षारोपण से पहले उनसे परामर्श किया जाना चाहिए, ऐसे परामर्श किस तरह से किए जाने चाहिए और वनवासियों के निर्णयों का सम्मान न करने के क्या निहितार्थ होंगे, यह कानून में स्पष्ट नहीं है।

मैंने एलसीडब्ल्यू डेटा का उपयोग करते हुए पाया कि वर्ष 2008 और 2017 के बीच वनवासियों और सरकार के बीच वन भूमि सम्बन्धी विवाद के लगभग 154 नए मामले सामने आए और इनमें से 45 से 52% मामले संरक्षण कानूनों में किए गए विरोधाभासी प्रावधानों के कारण शुरू हुए। एलसीडब्ल्यू डेटाबेस में प्रदान की गई भूमि सम्बन्धी विवाद की घटनाओं का संक्षिप्त सारांश दर्शाता है कि वन भूमि पर संरक्षण सम्बन्धी अधिकांश परस्पर-विरोधी दावे इसलिए किए गए क्योंकि वन विभाग वनों के प्रबंधन के लिए सामुदायिक सहमति में विश्वास नहीं रखता है और वनवासियों द्वारा खेती की जा रही भूमि पर वनीकरण अभियान चलाता है। ये वो ज़मीनें हैं जहाँ वन भूमि के मालिकाना हक या तो वनवासियों को दे दिए गए हैं, या मालिकाना हक के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय का इन्तज़ार है। यह निष्कर्ष कई अध्ययनों के अनुरूप है, जिनसे यह पता चला है कि विरोधाभासी नीतियों के अस्तित्व से भूमि स्वामित्व के बारे में असुरक्षा पैदा होने से परस्पर-विरोधी दावों और विवादों की सम्भावना बढ़ जाती है (एल्स्टन एवं अन्य 2000, डी ओलिवेरा 2008, रिग्स एवं अन्य 2016)।

राज्यों को किए गए ‘कैम्पा’ निधियों के संवितरण के आँकड़ों से पता चलता है कि ये संवितरण वर्ष 2009 से 2015 तक लगातार बढ़े हैं, जो राज्य द्वारा की जाने वाली वनीकरण गतिविधि में वृद्धि को दर्शाते हैं और जिसके परिणामस्वरूप एफआरए के उल्लंघन की सम्भावना में वृद्धि होती है। ‘कैम्पा’ निधियों के राज्य-वार संवितरण और भूमि सम्बन्धी विवाद मामलों का उपयोग करते हुए एक सरल विश्लेषण से पता चलता है कि जहाँ भी ‘कैम्पा’ निधियों के वितरण में वृद्धि हुई है, वहाँ वनवासियों और वन विभागों या सरकार के बीच परस्पर-विरोधी दावों के मामले काफी अधिक हैं।

नीति का क्रियान्वयन

यह शोध मौजूदा वन संरक्षण कानूनों को अपनाए बिना एफआरए को लागू करने से जुड़ी चुनौतियों पर प्रकाश डालता है। भले ही ‘कैम्पा’ निधि वनों को बहाल करने के उद्देश्य से शुरू किए गए थे, लेकिन एक अप्रत्याशित परिणाम यह हुआ है कि इससे भूमि सम्बन्धी विवाद बढ़ गए हैं। यह इस बात का उदाहरण है कि कैसे परस्पर-विरोधी संरक्षण और भूमि स्वामित्व कानूनों ने वनवासियों के स्वामित्व और संरक्षण अधिकारों को कमज़ोर कर दिया है। समय की माँग है कि सरकार संरक्षण प्रयासों और वनवासियों के अधिकारों की मान्यता में हस्तक्षेप करने वाले मौजूदा वन संरक्षण और भूमि स्वामित्व कानूनों में सामंजस्य स्थापित करे। एक तात्कालिक और पहला कदम वनवासियों को, जिन्हें वन पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में बेहतर जानकारी के लिए जाना जाता है, वन आवरण में सुधार के लिए प्रतिपूरक वनीकरण निधि खर्च करने की ज़िम्मेदारी या निगरानी देना हो सकता है।

एफआरए के कार्यान्वयन से भूमि स्वामित्व मान्यता की माँग बढ़ गई, जिसके परिणामस्वरूप ओडिशा में अनुसूचित जनजातियों की राजनीतिक भागीदारी में सुधार हुआ है। पहला लेख, 'वन अधिकार अधिनियम- स्थानीय समुदायों की राजनीति में सहभागिता' इस प्रश्न की और पड़ताल करता है और इसे >यहाँ पढ़ा जा सकता है। 

अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया >यहां देखें।

लेखक परिचय : भारती नंदवानी इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (आईजीआईडीआर), मुंबई में अर्थशास्त्र की सहायक प्रोफेसर हैं। उनकी शोध रुचि राजनीतिक अर्थव्यवस्था और शिक्षा के अर्थशास्त्र के क्षेत्रों में है।

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