अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता रॉबर्ट सोलोव की हाल ही, दिसम्बर 2023 में मृत्यु हुई। उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए, I4I के प्रधान सम्पादक परीक्षित घोष इस दिवंगत के कुछ योगदानों को रेखांकित करते हैं और अर्थव्यवस्था के लिए उदाहरणों व रूपकों के माध्यम से इस बात पर प्रकाश ड़ालते हैं कि किस प्रकार से सोलोव मॉडल में गणितीय ढाँचे में विकास को मद्धम करने (टेपर करने) का विचार प्रस्तुत किया गया है। इस मॉडल के सन्दर्भ में वे भारत में कैच-अप विकास की जाँच करते हैं और जन-साधारण की समृद्धि के लिए, जो कई देशों के लिए एक सपना बन के रह गया है, सामान्य समझ से परे देखने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं।
मैंने रॉबर्ट सोलोव का नाम पहली बार किसी पाठ्यपुस्तक में नहीं, बल्कि अखबार में पढ़ा। स्नातक के रूप में मेरे अर्थशास्त्र का अध्ययन शुरू करने के कुछ ही समय बाद, उन्होंने नोबेल पुरस्कार जीता था। मुझे बाद में पता चला कि युद्धोत्तर काल में अर्थशास्त्र की शाखा के लिए दो लोगों ने वैचारिक आधार और गणितीय योजना तैयार की थी- सूक्ष्म अर्थशास्त्र या माइक्रोइकोनॉमिक्स के लिए पॉल सैमुएलसन ने और समष्टि अर्थशास्त्र या मैक्रोइकोनॉमिक्स के लिए रॉबर्ट सोलोव ने। वे दोनों एमआईटी में आजीवन सहकर्मी रहे। उस विभाग से निकले कई प्रतिभाशाली अर्थशास्त्री एक नहीं, बल्कि दो-दो दिग्गजों की विरासत को आगे बढाने का सौभाग्य प्राप्त कर चुके हैं। 21 दिसंबर 2023 को जब सोलोव का निधन हुआ, तो वे 99 वर्ष के थे। हालांकि, उनके कार्य की विरासत उनकी दीर्घायु से कहीं अधिक होगी।
क्रय शक्ति समता या पर्चेसिंग पावर पेरिटी (पीपीपी) के सन्दर्भ में भी आज अमेरिका का प्रति-व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बुरुंडी देश के प्रति-व्यक्ति जीडीपी की तुलना में लगभग 80 गुना है और अपने 150 साल पहले के आँकड़े से लगभग 30 गुना है (विभिन्न अनुमान यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत किए गए हैं)। दुनिया के कुछ हिस्सों में सतत आर्थिक विकास by_ने लोगों के जीवन जीने के तरीके को बदल दिया है। यूरोप में, बीसवीं सदी की शुरुआत से जन्म के समय की जीवन-प्रत्याशा लगभग दोगुनी हो गई है, शिशु मृत्यु दर में 99% से अधिक की कमी आई है और कार्य सप्ताह शायद एक तिहाई कम हो गया है। कुछ गिने-चुने देशों में ही आम लोगों के पास छुट्टियों में यात्रा करने, रेस्तरां में दूसरों द्वारा बनाया गया शानदार भोजन करने और सप्ताहांत में कोई नाटक या फिल्म देखने के लिए समय और पैसा है। यह सब जीवन शैली का एक अंग हो गया है जो कभी अभिजात वर्ग का ही हुआ करता था।
यूरोप और उत्तरी अमेरिका के बाहर रहने वाले लोगों के एक बड़े तबके ने अपनी आकांक्षाओं को बढ़ते देखा है, लेकिन उनकी उम्मीदें अक्सर टूटती रही हैं। जन-साधारण की समृद्धि सम्भव है, लेकिन फिर भी अधिकांश देशों के लिए यह एक सपने जैसा है। उस मायावी नगरी एल डोराडो की खोज किसी के लिए भी सबसे महत्वपूर्ण बौद्धिक और व्यावहारिक गतिविधियों में से एक हो सकती है। यह कहना उचित होगा कि उस नगरी का नक्शा किसी रहस्य से कम नहीं है, मगर सोलोव ऐसे इंडियाना जोन्स हैं जिन्होंने इस के कुछ सबसे महत्वपूर्ण अंश खोज लिए थे और ये उनके दो मौलिक शोध आलेखों, एक सैद्धांतिक और दूसरे अनुभवजन्य में बन्द हैं (सोलोव 1956, 1957)।
कोई भी देश अपने श्रमिकों को अधिक उत्पादक बनाकर समृद्ध होता है और श्रमिक तब अधिक उत्पादक होते हैं जब उन्हें अधिक और बेहतर उपकरण मिलते हैं। ट्रैक्टर और कंबाइन हार्वेस्टर वाला एक किसान हंसिया और हल चलाने वाले किसान की तुलना में कई अधिक लोगों को खाना खिला सकता है, क्रेन चलाने वाला एक श्रमिक हाथ रेड़ी वाले मज़दूर की तुलना में अधिक तेजी से सामग्री ले जा सकता है। अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा बचाकर उसे पूंजीगत वस्तुओं में निवेश करने वाला देश स्पष्ट रूप से तेजी से विकास करेगा, जब तक कि उसके सामने कोई अन्य बाधा न आए। सोलोव से पहले के अर्थशास्त्रियों ने भविष्य में विकास का पूर्वानुमान लगाने के लिए प्रचलित पूंजी-उत्पादन या कैपिटल-आउटपुट अनुपात की गणना की और नीतिगत लक्ष्यों को पूरा करने के लिए राष्ट्रीय बचत लक्ष्य निर्धारित किए। भारत की तरह अक्सर पंचवर्षीय योजनाओं को रेखांकित करने वाला 'निश्चित-गुणांक' हैरोड-डोमर मॉडल1 अत्यधिक आशावादी निकला। इस मॉडल ने एक गम्भीर वास्तविकता को नज़रअंदाज़ किया कि मशीनरी व उपकरण सहित अधिकांश आर्थिक संसाधन, ह्रासमान प्रतिफल यानी डिमिनिशिंग रिटर्न के अधीन होते हैं
किसी बैंक जिसमें कर्मचारी अलमारियों में रखे कागज, कलम और भौतिक फ़ोल्डरों के साथ व्यवसाय करते हैं, वहाँ डेस्क पर जब कम्प्यूटर लग जाएंगे तो बैंक की उत्पादकता में उछाल आएगा। लेकिन जैसे-जैसे आधुनिक कम्प्यूटिंग का लाभ शाखा प्रबंधक से लेकर सफाई कर्मचारियों तक पहुँचता है, प्रोत्साहन के कम होते जाने की सम्भावना रहेगी। एक सीमा के बाद, यदि बैंक नई मशीनें खरीदता रहेगा तो वे भंडारणकक्ष की धूल में पड़ी रह जाएंगी और उनका कोई फायदा नहीं मिलेगा। दूसरे शब्दों में, विकास ख़त्म हो जाएगा।
यह अर्थव्यवस्था के लिए एक रूपक हो सकता है। सोलोव मॉडल में सुंदर गणितीय ढाँचे में विकास को मद्धम करने (टेपर यानी नियंत्रित करने) के विचार को सामान्यीकृत किया गया है। बुरी खबर यह है कि हम हमेशा उत्पादकता की स्थिर स्थिति की ओर बढ़ते दिखते हैं। और अच्छी यह कि फिसड्डियों के लिए उम्मीद बनी हुई है। जिस बैंक ने अपना कम्प्यूटरीकरण अभियान देर से शुरू किया, वह भी एक दिन पहले से स्थिर स्थिति में पहुँचे दूसरे बैंकों के साथ जा पहुँचेगा। इसी प्रकार, गरीब देशों को तेजी से विकास करना चाहिए और अंततः अमीर देशों के बराबर पहुँचना चाहिए। ओईसीडी अर्थव्यवस्थाओं की बात ही रहने दें, ब्रिक्स देशों में सबसे गरीब होते हुए भी भारत की अपेक्षाकृत उच्च विकास क्षमता है। जब हम अपनी पीठ खुद थपथपाते हैं तो अक्सर यह भूल जाते हैं कि हमारा बेंचमार्क आज की परिपक्व अर्थव्यवस्थाएं नहीं, बल्कि चीन और दक्षिण कोरिया की प्रारम्भिक चरण की लगभग दो अंकों की विकास दर होनी चाहिए, जिसे पाना उनके लिए तब काफी आसान था।
एक और सावधान करने वाली बात यह है कि समान विकल्प चुनने पर पूर्वानुमानित अभिसरण सशर्त होता है। एक बैंक जो प्रति वर्ष सिर्फ एक टूटे हुए कम्प्यूटर को बदलने के लिए अपने मुनाफे का पुनर्निवेश करने को तैयार है, उसके पास दस कम्प्यूटरों को बदलने के इच्छुक बैंक की तुलना में कम्प्यूटरों का बहुत मामूली स्टॉक होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो, कंजूस बैंक केवल एक निचले समतल पर पहुँच पाएगा। भारत में निजी निवेश की गिरती दर वाकई चिंता का विषय है (राघवन 2023)।
किसी भी दर पर, यह संदेश कि आर्थिक विकास गधे के सर से सींघ की तरह गायब हो जाना चाहिए, को शाब्दिक रूप से नहीं लिया जाना चाहिए। ऐसा करना किसी मुहावरे के आशय को न समझने जैसा होगा। ब्रिटेन या अमेरिका का विकास बन्द नहीं हुआ है, वास्तव में, उनकी विकास दर एक सदी से भी अधिक समय से स्थिर बनी हुई है। बैंक, एक बार हर डेस्क पर कम्प्यूटर लगाने का काम पूरा कर लेने के बाद, अपने कर्मचारियों को कम्प्यूटिंग कौशल में प्रशिक्षित करने, रैम का विस्तार करने, सॉफ्टवेयर को अपग्रेड करने, वर्कफ़्लो को पुनर्गठित करने, टीम भावना का निर्माण करने, बोनस और स्टॉक विकल्पों के साथ प्रोत्साहन को बढाने या यहाँ तक कि एटीएम तथा इंटरनेट बैंकिंग का उपयोग करके कुछ सेवाओं के पूर्ण स्वचालन की दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश कर सकता है। किसी स्थिर स्थिति को प्राप्त करने पर हमेशा एक ख़तरा मंडराता रहता है, लेकिन यदि कोई आविष्कारशील और साधन-संपन्न है तो वह आगे बढ़ना जारी रख सकता है। हालांकि जैसे-जैसे उत्पादकता बढ़ती है, जो कम दिखाई देगा वह विकास नहीं पर यह तथ्य कि विकास कहाँ से आया। कम्प्यूटरों को गिनना, उन्हें सूचीबद्ध करना और उनका मूल्य निर्धारित करना आसान है। प्रबंधकीय नवाचार में ऐसा सम्भव नहीं हैं।
सोलोव के गणितीय मॉडलिंग से विकास लेखांकन नामक अनुभवजन्य जाँच का द्वार खुल गया, जिसका नेतृत्व भी उन्होंने आगे बढ़कर किया। मॉडल के समीकरणों और राष्ट्रीय आय डेटा का उपयोग करके, हम पूछ सकते हैं कि श्रम-बल की वृद्धि और उत्पादक पूंजी में निवेश जैसे मापने-योग्य कारकों के जरिए ऐतिहासिक वृद्धि कितनी प्रेरित हुई है? जाँच हेतु जो हिस्सा अज्ञात है, उसे प्रौद्योगिकी, संस्थानों, राजनीतिक माहौल और इसी तरह के अमूर्त कारकों द्वारा संचालित किया जाना चाहिए, जो व्यापक आर्थिक डेटा में शामिल नहीं हैं। आश्चर्यजनक रूप से, संयुक्त राज्य अमेरिका के सन्दर्भ में सोलोव ने पाया कि 20वीं शताब्दी की पहली छमाही में विकास का एक बड़ा हिस्सा (उनके अनुमान के अनुसार 87.5%) इस ‘ब्लैक बॉक्स’ के अंदर मौजूद चीजों से प्रेरित रहा है। इसे और अधिक सरल शब्दों में कहें तो, हम ठीक से नहीं जानते कि अमेरिका एक आर्थिक महाशक्ति क्यों बन गया!
जैसा कि सुकरात ने कहा था कि अज्ञान के बारे में जागरूकता ही ज्ञान की शुरुआत है, उस कार्य की प्रशंसा करना आसान नहीं है जो प्रकृति में सेनफेल्डियन यानी कुछ भी नहीं के बारे में एक खोज है। आर्थिक विकास के अस्पष्टीकृत हिस्से को ऐसे लेबल देकर 'व्याख्या' करना आकर्षक है जो मजबूती की भावना व्यक्त करते हैं {जैसे कि सोलोव रेसिड्यू या टोटल फैक्टर प्रोडक्टिविटी (हल्टेन 2000) या ‘ब्लैक बॉक्स’ के अंदर क्या है इसके बारे में हमारी कल्पना को प्रोजेक्ट करना (तकनीकी प्रगति)}। सोलोव स्वयं अपने 1957 के आलेख में आशाओं के आधार पर गलत नाम के लिए कसूरवार हैं। इसे जैसा है वैसा न पहचानना हमारी भूल होगी और इस संदेश के प्रतिकूल होगा कि अगर हमें एल डोराडो का पूरा नक्शा ढूंढना है तो हमें सामान्य समझ से परे काफी आगे देखना होगा।
बाद के शोध ने अंधेरे में कुछ उजाला लाने में कामयाबी हासिल की है। मैनकीव, रोमर और वेइल (1992) ने दिखाया कि मानव पूंजी (स्कूली शिक्षा के वर्षों में मापी गई) भौतिक पूंजी की तरह ही विकास के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन कुल मिलाकर, वे अभी भी अभिसरण की शक्ति के अधीन हैं। एसेमोग्लू और रॉबिन्सन (2012) की किताबें संस्थानों की भूमिका के लिए एक मामला बनाती है। 1990 के दशक में पॉल रोमर (1994) के नेतृत्व में सामने आए अंतर्जात विकास सिद्धांत ने दर्शाया कि अनुसंधान एवं विकास के साथ-साथ ‘करके-सीखने’ (लर्निंग-बाय-डूइंग) में निवेश वह कारक हो सकता है जिसने ‘ह्रासमान प्रतिफल’ को पछाड़ते हुए आधुनिक विकास को बनाए रखा है। कुछ लोग यह भी तर्क देंगे कि उत्पादकता वृद्धि के रहस्यों को केवल उद्योग दर उद्योग तथा धीरे-धीरे ही, यानी सूक्ष्म आर्थिक स्तर पर सामने लाया जा सकता है। इन सभी घटनाक्रमों पर सोलोव (1994) की राय विशिष्ट स्पष्टता और बुद्धि से युक्त है- वे अर्थशास्त्र के पेशे में सर्वश्रेष्ठ लेखकों में से एक थे, और न्यूयॉर्क रिव्यू ऑफ बुक्स में लगातार योगदानकर्ता थे।
अंत में, यह कहा जाना चाहिए कि भारत के परिप्रेक्ष्य से, पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं के चश्मे से चीजों को बहुत अधिक देखना भ्रामक हो सकता है। पूर्वी एशियाई चमत्कार हमारे लिए अधिक प्रासंगिक उदाहरण हो सकता है। जबकि यूरोप को वैश्विक प्रौद्योगिकी सीमा को आगे बढ़ाना था, और चीन, दक्षिण कोरिया या ताइवान जैसे देश पश्चिमी प्रौद्योगिकी को मांगने, उधार लेने या चोरी करने की स्थिति में थे। जैसा कि एल्विन यंग (1995) ने दर्शाया है, इन देशों की अभूतपूर्व विकास दर भौतिक और मानव पूंजी में भारी निवेश तथा तेजी से बढ़ती श्रम-शक्ति के कारण कहीं अधिक हासिल की गई। यदि हम महिला श्रम-शक्ति में अपनी घटती भागीदारी और निजी निवेश के बारे में कुछ कर सकें तो हम बहुत आगे बढ़ सकते हैं। लाखों वर्षों में विकास गायब हो सकता है, लेकिन लम्बे समय में, क्या हम सभी मर नहीं जाएंगे? कितना अच्छा हो अगर कुछ दशकों में सूडान स्वीडन बन जाए।
इसके बारे में जो कोई भी गम्भीरता से सोचता है, वह बॉब सोलोव का छात्र है।
टिप्पणी:
- रॉय हैरोड (1939) और एवसी डोमर (1946) द्वारा विकसित हैरोड-डोमर मॉडल आर्थिक विकास का एक मॉडल है, जिसका उपयोग बचत और पूंजी के स्तर के सन्दर्भ में अर्थव्यवस्था की विकास दर को समझाने के लिए किया जाता है। इससे पता चलता है कि किसी अर्थव्यवस्था में संतुलित विकास होने का कोई प्राकृतिक कारण नहीं है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : परीक्षित घोष आइडियाज़ फॉर इंडिया के प्रधान सम्पादक हैं। परीक्षित घोष दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में प्रोफेसर हैं। उन्होंने बोस्टन विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में अपनी पीएचडी प्राप्त की है और टेक्सास ए एंड एम विश्वविद्यालय, ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय और भारतीय सांख्यिकी संस्थान में पढ़ाया है।
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