शिक्षा का अधिकार अधिनियम की धारा 12 (1) (सी) के तहत गैर-अल्पसंख्यक दर्जे के निजी विद्यालयों द्वारा समाज के वंचित और कमजोर वर्गों के लिए कम से कम 25% सीट आरक्षित किया जाना अनिवार्य है। यह लेख अहमदाबाद के शहरी इलाकों में 1,600 से अधिक परिवारों के सर्वेक्षण के आधार पर, यह विश्लेषण करता है कि इस अधिदेश का अपेक्षाकृत वंचित परिवारों के विद्यालय विकल्पों को बदलने में किस प्रकार प्रभाव पड़ा है। इससे ज्ञात होता है कि इस अधिदेश ने, भाग लेने वाले पात्र परिवारों के लिए विद्यालयों की विकल्पों में विस्तार किया है।
भारत में निजी विद्यालयों में नामांकन काफी हद तक बढ़ गए हैं (किंगडन 2017)। जो बच्चे निजी विद्यालयों में पढते हैं, वे लिंग, जाति, और अन्य सामाजिक-आर्थिक मापदण्डों के संदर्भ में, ज़्यादातर अधिक श्रेष्ठ पृष्ठभूमि के होते हैं, जिससे मौजूदा सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के और बदतर होने की चिंताएं बढ़ रही हैं (लिटिल 2010)। शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम की धारा 12 (1) (सी) द्वारा निजी विद्यालयों में प्रवेश को लेकर होने वाली असमानताओं को कम करने का प्रयास किया जा रहा है।
धारा 12 (1) (सी) के आदेशानुसार सभी गैर-अल्पसंख्यक दर्जे के निजी गैर-सहायता प्राप्त विद्यालयों में सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित परिवारों के बच्चों के लिए प्रवेश स्तर पर कम से कम 25% सीटें आरक्षित होनी चाहिए। विद्यालयों द्वारा किसी भी छात्र को प्रवेश हेतु मना करने की अनुमति नहीं है, तथा अधिक छात्र-संख्या वाले विद्यालयों में प्रवेश लॉटरी के माध्यम से तय किया जाता है। राज्य सरकार द्वारा विद्यालयों को, या तो विद्यालय द्वारा वसूले जाने वाले कुल शुल्क या राज्य सरकार द्वारा सरकारी विद्यालयों में प्रति बच्चे पर किए जाने वाले खर्च में से जो भी कम हो, उतने की प्रतिपूर्ति की जानी चाहिए। आरटीई का लाभ उठाने वाले परिवारों पर विद्यालय की फीस का बोझ नहीं डाला जाना चाहिए, और प्रवेश लेने के बाद कक्षा 8वीं तक बच्चे की पढ़ाई मुफ्त में होनी चाहिए। यह आवश्यक नहीं है कि केवल विद्यालयों के विकल्प उपलभ्द हो जाने से वंचित लोग अच्छे विद्यालयों का चयन करेंगे। यह पाया गया है कि ऐसे कार्यक्रमों के लाभ, संदर्भ पर निर्भर होते हैं (एपल, रोमनो और उरक्विओला 2017)। इस तरह के कार्यक्रमों/अधिदेशों के बारे में नहीं पता होना, प्रशासनिक प्रक्रियाओं का जटिल होना, विद्यालयों से संबंधित प्रक्रियाओं या जानकारियों की कमी होना अथवा, उपलब्ध विद्यालयों का चयन करने के बारे में मार्गदर्शन की कमी होना, क्षमता से अधिक खर्च होना, निजी विद्यालयों द्वारा प्रतिरोध होना, 'गलत-लक्ष्यीकरण', यानि, अयोग्य व्यक्तियों द्वारा इस कार्यक्रम के लाभ मिल जाने से, तथा अन्य बाधाओं के कारण योग्य परिवारों को विद्यालय-विकल्प संबंधी नीतियों का पूरा लाभ नहीं मिल पाया है (सरीन और गुप्ता 2014, नमला, मेहेन्डेल और मुखोपाध्याय 2015, नोरोन्हा और श्रीवास्तव 2016, डमेरा 2017, सरीन, डोंगरे और वाड 2017)।
इस लेख में 12 (1) (सी) अधिदेश (अब से केवल ‘अधिदेश’ प्रयोग किया जाएगा) का, अहमदाबाद के शहरी इलाकों में, अपेक्षाकृत वंचित परिवारों के विद्यालय बदलते विकल्पों का विश्लेषण किया गया है।
गुजरात में 12 (1) (सी) का क्रियान्वयन
शैक्षणिक वर्ष 2015-16 के आवेदन प्रक्रिया के लिए परिवारों को पास के सरकारी विद्यालय स्थित ‘सहायता केंद्र’ पर जाकर अपने विवरण तथा विद्यालय के विकल्पों (निर्दिष्ट दूरी के भीतर के पांच विद्यालयों तक) के साथ एक फॉर्म भरना था। आवेदन पत्र को माता-पिता/अभिभावक की पहचान, बच्चे की उम्र, निवास स्थान, सामाजिक श्रेणी और आय को प्रमाणित करने के लिए आवश्यक दस्तावेजों के साथ इन केंद्रों पर जमा किया जाना था। विद्यालयों का आवंटन जिले में शिक्षा कार्यालय द्वारा किया गया था जिसके लिए लॉटरियां आयोजित (भौतिक) की गईं थीं। आवंटन के परिणाम एसएमएस और/या डाक के माध्यम से परिवारों को भेजे जाने थे। जिन बच्चों को सीट आवंटित की गई थी, उन्हें संबंधित विद्यालय में जा कर प्रासंगिक दस्तावेजों के साथ आवंटन का प्रमाण प्रस्तुत करना था और प्रवेश लेना था1।
हमारे अध्ययन का विवरण
अहमदाबाद में, इस अधिदेश के प्रारंभिक वर्षों में, अधिदेश एवं प्रवेश प्रक्रिया के बारे में जानकारी का अभाव आवेदनों की कमी का मुख्य कारण माना गया था। इसलिए, शैक्षणिक वर्ष 2015-16 के लिए आवेदन प्रक्रिया आरंभ करने से पहले, फरवरी 2015 में, शोधकर्ताओं और गैर-सरकारी संगठनों की एक टीम ने स्थानीय सरकार के साथ मिल कर एक सूचना अभियान चलाया था। इस अभियान के अंतर्गत, शहरी अहमदाबाद में बेतरतीब ढंग से चयनित क्षेत्रों में 2,000 से अधिक अपेक्षाकृत वंचित परिवारों के बच्चों के प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए आवेदन प्रक्रिया के बारे में जानकारी का प्रचार-प्रसार किया गया (देखें मिलाप और सरीन 2016)। उनको जानकारी उपलब्ध कराने के लगभग 15 महीनों बाद, शोधकर्ताओं ने सितंबर-दिसंबर 2016 के दौरान इन परिवारों को संपर्क करके 1,600 से अधिक घरों के साक्षात्कार करने में सफलता पाई। इन साक्षात्कारों के माध्यम से, उनकी सामाजिक-आर्थिक विशेषताएँ, 2015 में चयनित विद्यालय-विकल्पों, बच्चों एवं उनके माता-पिताओं की - शिक्षकों एवं विद्यालय प्राधिकारियों के साथ आपसी चर्चाओं के संबंध में उनके अनुभव, और क्षमता से अधिक खर्चों के बारे में विस्तृत जानकारी एकत्रित की गई। अधिदेश के तहत जिन आवेदन करने वालों को सीट आवंटित हुई थी, उनसे आवेदन और प्रवेश प्रक्रिया से संबन्धित उनके अनुभव के बारे में अतिरिक्त प्रश्न पूछे गए थे।
हम यह कैसे पता करें कि अधिदेश ने घरवालों की विद्यालयों के चयन में बदलाव लाया है?
सबसे पहले, हम आवंटन प्राप्त परिवार की तुलना आवंटन नहीं प्राप्त होने वाले परिवारों (अर्थात लॉटरी जीते और हारे हुए) के बीच, लक्षित बच्चों और उनके बड़े भाई-बहनों (प्राथमिक विद्यालय जाने की उम्र के और आवेदन करने के योग्य नहीं) के विद्यालय के पसंद की तुलना करते हैं। यदि इस नीति ने वास्तव में ‘अलग’ (संभवतः ‘बेहतर’) विद्यालयों को चुनने में अड़चनें दूर की हैं, तो विजेताओं को आवंटित विद्यालय उनके भाई-बहनों के विद्यालयों से अलग होने चाहिए। दूसरी ओर, हमें प्रवेश की लॉटरी में असफल परिवारों के बच्चों और उनके भाई-बहनों के बीच ज्यादा अंतर नहीं दिखना चाहिए।
दूसरा, हम उन परिवारों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जो लॉटरी में असफल रहे हैं। हम लक्षित बच्चे द्वारा इस अधिदेश के माध्यम से आवेदन किए गए विद्यालयों और उनके वर्तमान विद्यालयों की तुलना करते हैं (देखें डोंगरे, सरीन और सिंघल 2018)। हमें उम्मीद थी कि यदि अधिदेश बेहतर विद्यालय विकल्प के चयन में मदद कर रहा है तो आवेदित विद्यालय उन विद्यालयों से ‘अलग’ होने चाहिए जिनमें वे वर्तमान में पढ़ रहे हैं।
परिणाम
हमारे निष्कर्षों से पता चलता है कि इस नीति ने परिवारों को उन विद्यालयों में पढ़ाई करने योग्य बनाया है जिनमें वे बिना इस अधिदेश के जाना उनके बस की बात नहीं थी। लॉटरी विजेताओं (जिन्हें सीट आवंटित की गई थी) की उनके भाई-बहिनों की तुलना में, ऐसे विद्यालयों में दाखिला होने की संभावना अधिक थी जिनमें शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी हों, जो 15 मिनट से अधिक की पैदल दूरी पर स्थित हों, और जो निजी हों। लॉटरी में असफल बच्चे और उनके भाई-बहन जिन विद्यालयों में जाते थे उनके बीच ऐसा अंतर नहीं पाए गए। जिन बच्चों को विद्यालय आवंटित नहीं हुआ था उनके इस अधिदेश के तहत विद्यालय विकल्पों की तुलना यदि उन विद्यालयों से की जाए जिनको उन्होंने अंतत: चुना था तो निष्कर्ष समान मिलते हैं। इसके अतिरिक्त, जिन विद्यालयों के लिए आवेदन किया जाता है, औसतन उनमें उन विद्यालयों की तुलना में अधिक फीस ली जाती है जिनमें बच्चे अभी जा रहे हैं। फीस का अंतर उन परिवारों के लिए बड़ा है, जिनके पास सरकारी विद्यालय एक पीछे हटने (फॉल-बैक) के विकल्प के रूप में उपलब्ध है।
सारांशत:, प्रमाण यह दर्शाते हैं कि इस अधिदेश के माध्यम से जिन विद्यालयों में दाखिला हुआ है उनके 15 मिनट से ज्यादा की पैदल दूरी पर स्थित होने, उनमें शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने और उन विद्यालय की फीस अधिक होने की संभावना थी। आम तौर पर यह माना जाता है कि विद्यालयों की ये विशेषताएँ विशेषाधिकार के साथ जुड़ी हुई हैं, अत: यह तर्क दिया जा सकता है कि भाग लेने वाले पात्र परिवारों के लिए इस अधिदेश ने विद्यालय विकल्पों को ‘विस्तारित’ किया है।
हालांकि, इस विश्लेषण में ईस नीति से संबन्धित ऐसे कई मुद्दों का भी पता चलता है, जिन पर ध्यान दिए जाने और विचार-विमर्श किए जाने की आवश्यकता है। हम पाते हैं कि लक्षित पात्र परिवारों में भी, अधिक सुविधा प्राप्त परिवार आवेदन करते हैं और आवंटन प्राप्त कर लेते हैं। जिन परिवारों को फायदा हुआ वे अपेक्षाकृत अधिक शिक्षित थे, आर्थिक रूप से बेहतर थे, और स्थानीय भाषा बोलते थे जिससे प्रवेश प्रक्रिया के निर्देशन में होने वाली चुनौतियों का पता चलता है। इसके अलावा, ऐसे परिवारों द्वारा अपेक्षाकृत 'कुलीन' विद्यालयों (ऊंची ट्यूशन फीस चार्ज करने वाले) को अपनी चयन-सूची में नहीं पाए गए। आवेदित विद्यालयों में से लगभग 90% विद्यालय ऐसे थे जो राज्य सरकार द्वारा प्राथमिक विद्यालयों में प्रति बच्चे से लिए जाने वाले फीस से कम फीस चार्ज करते थे2। इस अधिदेश के क्रियान्वयन के संबंध में काम करने के बाद हमारा अनुभव रहा हैं कि विद्यालयों में भेदभाव किए जाने का डर, प्रवेश प्रक्रिया/विद्यालयों में आवंटित सीटों का दावा करने के दौरान खराब अनुभव और क्षमता से काफी अधिक खर्च की चिंता इसके वास्तविक कारण हो सकते हैं।
अधिदेश का सशक्तिकरण
यदि इस अधिदेश को अपनी क्षमतानुसार वास्तविक सफलता अर्जित करनी है, तो सरकार को पात्र परिवारों तक पहुंचने और उन्हें जानकारी प्रदान करने के लिए अधिक प्रयास करने होंगे। आवेदन प्रक्रिया को और अधिक सरल बनाया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि अधिकांश वंचित परिवार इससे बाहर न रहें। यदि आवेदन प्रक्रिया को ऑनलाइन आवेदन प्रणाली (जिसके लिए गुजरात सहित कई राज्यों ने पहल की है) के माध्यम से संचालित किया जाता है तो इससे एक ओर जहां प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी और पूर्वानुमान योग्य बनाने में सहायता मिलती है, वहीं दूसरी ओर इससे वंचित परिवारों के लिए आवेदन प्रक्रिया और कठिन हो जाती है। प्रशासन को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सुव्यवस्थित प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करने के दौरान अधिकांश वंचित परिवारों को इस तरह की बाधाओं का सामना न करना पड़े जिनके कारण वे इस प्रक्रिया से बाहर हो जाएं (सरीन, डोंगरे, और वाड 2017) ।
अंत में, आवेदक को उपलब्ध विद्यालयों के बारे में अधिक जानकारी देने के लिए ऑनलाइन पोर्टल का उपयोग किया जा सकता है। वर्तमान में, केवल आवेदक के घर से विद्यालय की दूरी दर्शाई जाती है। अधिगम परिणामों सहित ‘विद्यालय की गुणवत्ता’ के बारे में जानकारी प्रदर्शित करने की भी परिकल्पना की जा सकती है, जो विकल्पों पर सकारात्मक रूप से प्रभावशाली सिद्ध हुई हैं (अफरीदी, बरूआ, और सोमनाथन 2017; अंद्राबी, दास, और ख्वाजा 2017)।
नोट:
- आवेदन और आवंटन प्रणाली में 2017-18 प्रवेश चक्र के बाद से काफी परिवर्तन आए हैं, जबसे राज्य सरकार ने इसके क्रियान्वयन को ऑनलाइन प्रणाली के माध्यम से संचालित करना प्रारम्भ किया है। विस्तार के लिए के लिए डोंगरे एट एल. 2017 देखें।
- गुजरात की राज्य सरकार सरकारी विद्यालयों में अध्ययन कर रहे प्रत्येक छात्र पर औसतन रु.17,000 सालाना खर्च करती है।
लेखक परिचय: अंबरीश डोंगरे भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) अहमदाबाद में रवि जे. मथाई सेंटर फॉर इनोवेशन इन एजुकेशन के सहायक प्रोफेसर हैं। अंकुर सरीन पब्लिक सिस्टम समूह एवं रवि जे. मथाई सेंटर फॉर इनोवेशन इन एजुकेशन इन आईआईएम अहमदाबाद में सहायक प्रोफेसर हैं। करण सिंघल आईआईएम अहमदाबाद में एक शोधकर्ता के रूप में काम कर रहे हैं।
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