लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर मैत्रीश घटक का तर्क है कि न्याय द्वारा जिस तरह के नकद अंतरण के बारे में सोचा गया है, उससे जीवन निर्वाह के हाशिए पर जी रहे गरीब लोगों को कुछ राहत और सुरक्षा संजाल (सेफ्टी नेट) उपलब्ध होगा। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि यह लक्ष्यीकरण की समस्या से कैसे निपटेगा। इसके अलावा, यह गरीबी की समस्या का दीर्घकालिक समाधान नहीं है जिसके लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल निर्माण सहित अन्य चीज़ों में निवेश ज़रूरी है।
क्या आप बता सकते हैं कि न्याय क्यों ज़रूरी है जबकि इतनी सारी अन्य गरीबी निवारण योजनाएं पहले ही मौजूद हैं? हमें मौजूदा योजनाओं के लिए ही बजट क्यों नहीं बढ़ा देना चाहिए?
भारत में आवास से लेकर आहार तक, मातृत्व लाभ से बाल कल्याण और वृद्धावस्था में समर्थन तक गरीबी निवारण के सैकड़ों कार्यक्रम हैं। किसी जरूरत का नाम बताइए, किसी राजनेता का नाम या सरकारी टाइटल जोड़िए और बाद में योजना शब्द जोड़ दीजिए और आप गरीबों के लिए लक्षित किसी वास्तविक सरकारी योजना का नाम ले रहे होंगे। हालाँकि उनके प्रदर्शन में पूरे देश में अंतर रहता है, लेकिन इस बात से इनकार करना असंभव है कि ये योजनाएं समस्याओं से भरी हुई हैं जो इनकी प्रभाविता को सीमित कर देती हैं। शुरुआत के लिए, एक समस्या लक्ष्यीकरण की है जिसका सामना न्याय को भी करना है जिस पर हम नीचे चर्चा करेंगे। अक्सर लाभ नहीं पाने योग्य लोग उसे पा जाते हैं (समावेश संबंधी त्रुटियां) जबकि पाने योग्य लोग नहीं पाते हैं (बहिष्करण संबंधी त्रुटियां)। साथ ही, समावेश संबंधी त्रुटियों के मामले में समस्या ऐसी लक्षित योजनाओं की प्रकृति से पैदा होती हैं – अर्थात्, इनमें पात्रता पर गलत तरीके से दावा करने के लिए व्यवस्थित प्रोत्साहन होते हैं।
हालांकि, इन योजनाओं में अन्य समस्याओं की भी आशंका होती है जो सिद्धांत में न्याय में नहीं हैं। पहली है डेलीवरी की प्रक्रिया में रिसाव, बर्बादी और भ्रष्टाचार की समस्या। दूसरा, अगर क्रियान्वयन प्रक्रिया दोषरहित भी हो जिससे पहली दो समस्याएं मौजूद नहीं हों, तो इन कार्यक्रमों के प्रबंधन में अच्छी-खासी जनशक्ति और संसाधन का उपयोग होता है जबकि हमारी सरकारी क्षमता पहले से ही जरूरत से ज्यादा दबाव में है। तीसरा, इनमें से कुछ योजनाओं में ऐसी सब्स्डिी शामिल हैं जिनसे गैर-गरीब लोग अपेक्षाकृत अधिक लाभान्वित होते हैं, क्योंकि वे प्रासंगिक वस्तु या सेवा का अपेक्षाकृत अधिक उपयोग करते हैं। जैसे, विद्युत सब्सिडी उनलोगों के पक्ष में जाती है जिन्हें बिजली उपलब्ध है, और जो उसका अधिक उपयोग करते हैं। चौथा, इस बात पर विश्वास करने के ठोस आर्थिक कारण हैं कि सब्सिडियों का उपयोग करने या कुछ वस्तुओं अथवा सेवाओं को मुफ्त उपलब्ध कराने से नकद अंतरण की तुलना में संसाधनों के आबंटन में विरूपण होता है। फिर कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि नीति निर्माता और शिक्षाविद बहस करते रहे हैं कि गरीबी निवारण के लिए समर्पित संसाधनों की प्रभाविता बढ़ाने के लिए नीति के वर्तमान ढांचे में कैसे सुधार लाया जाय। प्रभाविता पर कोई ध्यान दिए बिना वर्तमान योजनाओं के लिए बजट बढ़ाना छेद वाली बाल्टी में अधिकाधिक पानी उड़ेलते जाने जैसा है।
क्या आपकी समझ में इसके बजाय धनराशि का उपयोग सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी वर्तमान सेवाओं में सुधार के लिए किया जाय तो उसका बेहतर उपयोग होगा? या हमने सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान को कार्यशील बनाने का प्रयास छोड़ दिया है?
यह झूठी दुविधा है और किसी योजना का विरोध करने वाले हमेशा ‘ट्रॉजन हॉर्स’ वाला तर्क देते हैं (उन योजनाओं को छोड़कर जिनका वे पक्ष लेते हैं) कि इससे दूसरी योजनाओं से रकम निकाल ली जाएगी। अगर हम इस तर्क से सचमुच प्रभावित होने लगें तो किसी भी तरह की नई योजना कभी प्रस्तावित ही नहीं की जा सकती है।
मेरे विचार से अलग-अलग समस्याओं को दूर करने के लिए अलग-अलग नीतियों की जरूरत है। इसलिए हां, जिस नकद अंतरण के बारे में न्याय में सोचा गया है उससे जीवन निर्वाह के हाशिए पर जी रहे गरीबों को कुछ राहत और सुरक्षा संजाल (सेफ्टी नेट) उपलब्ध होगा, लेकिन गरीबी की समस्या के लिए यह दीर्घकालिक समाधान नहीं होगा। उसके लिए गरीबों को विकास संबंधी अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम बनाने के लिहाज से स्वास्थ्य, शिक्षा, और कौशल निर्माण पर निवेश करने, और रोजगार सृजन के लिए निजी निवेश में सहयोग के लिए अधिसंरचना और नियामक स्थितियों में निवेश करने की जरूरत पड़ेगी। अगर उपमा दी जाय तो कुछ खास न्यूट्रिशनल सप्लीमेंट्स देने से किसी बीमार व्यक्ति को कुछ ताकत पाने में मदद तो मिलेगी, लेकिन इससे न तो उसका रोग दूर होगा, न वह एथलीट बन जाएगा। दूसरी ओर, जो लोग यह कहते हैं कि नकद अंतरण गरीबी की समस्या के लिए बैंड-ऐड हैं, उनके लिए मेरा प्रश्न है कि: क्या आपको बैंड-ऐड या प्राथमिक चिकित्सा बॉक्स की जरूरत नहीं होती है? समस्या तभी है जब कोई कहे कि लोगों को बैंड-ऐड देकर पूरा स्वास्थ्य बजट हटा दिया जाए।
क्या आप कोई ऐसी वैकल्पिक योजना पसंद करेंगे जिसमें हर प्राप्तकर्ता को मिलने वाली रकम को घटाकर नकद अंतरण के जरिए उतनी रकम का वितरण अधिक संख्या में परिवारों के बीच किया जाय? अगर हां, तो क्यों?
हां, मेरी समझ में न्याय के साथ मुख्य समस्या यह है कि यह एक लक्षित योजना है और मैंने ऐसी योजनाओं की कुछ समस्याएं ऊपर गिनाई हैं। यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआइ) जैसी अधिक सर्वभौमिक (यूनिवर्सल) योजना लक्ष्यीकरण की समस्या को स्वतः समाप्त कर देगी। लेकिन वह अधिक खर्चीली होगी इसलिए किसी तय बजट के लिए अंतरण की रकम कम करनी होगी। लक्षित और सर्वभौमिक योजनाओं के बीच यह मुख्य दुविधा है और फ्रांसवा मनिके के साथ अपने हाल के एक आलेख में मैंने यूबीआइ पर तर्क दिया है कि: सरकार की कमजोर क्षमता और जीवन निर्वाह के हाशिए पर रह रहे लोगों की बड़ी संख्या की समस्या को देखते हुए यूबीआइ का पक्ष विकसित देशों के बजाय विकासशील देशों के लिए अधिक मज़बूत है। मैंने लक्षित योजनाओं की जिन समस्याओं का ऊपर उल्लेख किया है वे मेरे विचार में बहुत गंभीर हैं और मुझे उनको लेकर सामान्यतः कोई सहानुभूति नहीं होती है जब तक कि लक्ष्यीकरण के मापदंड उम्र (जैसे पेंशन, बच्चों के लाभ), लिंग, या क्षेत्र जैसे थोड़े वस्तुनिष्ठ नहीं हों। साथ ही, ये हमारी प्रशासनिक व्यवस्था को जो विवेकाधीनता और अधिकार उपलब्ध कराती हैं, उनसे इनके राजनीतिक संरक्षण के साधनों में बदल जाने का जोखिम होता है जिससे उनकी वैधता समाप्त होते जाने की आशंका होगी। साथ ही, एक और तर्क भी है कि इस लाभ के लिए सहमति देने से सरकार अपना कर संजाल (टैक्स नेट) का विस्तार करने में सक्षम हो जाएगी जैसे कि इस लाभ को पाने पर आपको आय कर रिटर्न भरना पड़ेगा। वस्तुतः मैं तो कहूंगा कि यह देखते हुए कि आय की कुछ खास श्रेणियां डिजाइन (जैसे कृषि आय) या कर प्रशासन प्रणाली की अपूर्णताओं (जैसे कि अनौपचारिक क्षेत्र की आय) के कारण आय कर के तहत नहीं आती हैं, यूबीआइ आय करों में समानांतर सुधार करने और आय करों को सर्वव्यापी तथा निस्संदेह प्रगतिशील बनाने के मामले में कुछ राजनीतिक समर्थन उपलब्ध करा सकती है।
क्या आपको इस अतिरिक्त व्यय के राजकोषीय बोझ को लेकर कोई चिंता लगती है? क्या आपको लगता है कि न्याय को समायोजित करने के लिए करों की वर्तमान दरों को बदलना होगा या वर्तमान सब्सिडियों को समाप्त करना होगा?
हां, न्याय योजना के बारे में एक सबसे स्वाभाविक चिंता वित्तपोषण की है। अभी जिस आंकड़े पर चर्चा हो रही है वह 35 खरब रु. है जो सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवारों की संख्या में 6,000 रु. से गुणा करने पर प्राप्त होता है। भारत की जनसंख्या को देखते हुए और परिवारों की औसत सदस्य संख्या पांच मानने पर सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवारों की संख्या 25 करोड़ हो जाती है। यह रकम सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के हिस्से के बतौर 2.14 प्रतिशत और सरकार के राजस्व के हिस्से के बतौर 16.7 प्रतिशत होती है।
भारत के 5 प्रतिशत वयस्क ही आय कर रिटर्न फाइल करते हैं, और लगभग 3 प्रतिशत कर देते हैं जिनके द्वारा दिए जाने वाले कर की औसत रकम लगभग 60,000 रु. प्रति वर्ष है। सिर्फ 5 प्रतिशत परिवार 50,000 रु. प्रति माह या अधिक कमाते हैं इसलिए आय कर में व्यापक सुधार और कर संजाल का विस्तार किए बिना न्याय के वित्तपोषण के लिए आय करों में वृद्धि की संभावना सीमित है।
इस योजना के वित्तपोषण का दूसरा तरीका पूंजी लाभ पर अतिरिक्त समाज कल्याण कर लगाना (अभी ये कर मात्र 10-15 प्रतिशत हैं), संपत्ति कर लगाना, या उपभोक्ता व्यय के कुछ स्वरूपों पर कर लगाना हो सकता है। यह देखते हुए कि अनुमान सुझाव देते हैं कि देश में काला धन देश के कुल ऑफिशियल सकल घरेलू उत्पाद के लगभग दो-तिहाई से तीन-चौथाई तक है, विलासिता संबंधी व्यय वाली चीजों पर कर लगाना विशेष रूप से सम्मोहक है।
आप ऐसे लोगों को क्या कहेंगे जो इस बात से चिंतित है कि नकद के प्रवाह से डिमांड बढ़ जाएगी लेकिन सप्लाई नहीं जिससे कीमतों में वृद्धि होगी?
किसी भी बड़े पैमाने के नकद अंतरण कार्यक्रम के लिए यह चिंता होती है और गरीबों द्वारा जिन वस्तुओं का उपभोग करने की संभावना होती है (जैसे खाद्य पदार्थ और इंधन), उनकी डिमांड के अल्पावधि में मूल्य के साथ कम लचीलेपन होने के मानक कारणों से यह उचित चिंता है। और मुद्रास्फीति गंभीर आर्थिक चिंता होती है जिसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। हालांकि अभी हम अर्थव्यवस्था में फैली मंदी जैसी स्थिति में हैं जिसमें कृषि में वास्तविक मजदूरी दर की वृद्धि दर नकारात्मक है और कृषि उत्पादों की कीमतें गिरावट का सामना कर रही हैं इसलिए मुद्रास्फीति का भय कम चिंताजनक है।
केंद्र सरकार की वर्तमान सब्सिडियों में से कौन-कौन अनावश्यक हैं और समाप्त करने के लिहाज से विचारणीय हैं?
अगर हम सिर्फ उर्वरक और पेट्रॉलियम सब्सिडियों पर नजर डालें, जिन्हें न तो कुशल माना जाता है और न न्यायोचित, तो इन पर सकल घरेलू उत्पाद का 0.56 प्रतिशत या केंद्र सरकार के व्यय का 4.42 प्रतिशत हिस्सा जाता है जो न्याय के तहत वादा की गई रकम का लगभग एक-चौथाई है। समानता के लिहाज से देखें या कुशलता के लिहाज से, खाद्य पदार्थों के विपरीत इन सब्सिडियों का शायद ही कोई तर्काधार है। अगर हम खाद्य पदार्थों को छोड़कर सभी सब्सिडियों (जैसे विभिन्न प्रकार की ब्याज सब्सिडियों समेत) पर निगाह डालें, तो वे प्रस्तावित रकम का 35 प्रतिशत होती हैं।
साथ ही, केंद्र सरकार कॉपोरेट कंपनियों, व्यक्तियों और व्यक्ति समूहों को सीमा शुल्कों और उत्पाद करों में छूट के अतिरिक्त आय कर पर छूट या प्रोत्साहन भी देती है। इन्हें आम तौर पर ‘रेवेन्यू फॉरगॉन’ (राजस्व माफ़) माना जाता है और जयराज तथा सुब्रामनियन (2016) द्वारा दिए गए अनुमान के अनुसार यह सकल घरेलू उत्पाद के 6.5 प्रतिशत के बराबर है।
मंडल और सिकदर द्वारा किए गए अनुमान दर्शाते हैं कि अगर हम 2015-16 के आंकड़ों का उपयोग करते हुए केंद्र और राज्य सरकारों की सारी सब्सिडियों पर नजर डालें, तो ये सकल घरेलू उत्पाद का 12.12 प्रतिशत हो गई थीं और आय अनुपूरकों तथा खाद्य पदार्थ, बुनियादी शिक्षा, स्वास्थ्य, जलापूर्ति एवं स्वच्छा आदि उचित (मेरिट) चीजों को किनारे कर दें, तो इसमें आधा हिस्सा गैर-मेरिट सब्सिडियों का है। अगर हम 2017-18 में बट्टा खाते में डाले गए (वसूल नहीं होने वाले) ऋणों पर नजर डालें, तो ये सकल घरेलू उत्पाद का 0.76 प्रतिशत ठहरते हैं। यह भी एक तरह की सब्सिडी है जिससे संपन्न लोगों को फायदा होता है। इसलिए न्याय के वित्तपोषण की निस्संदेह गुंजाइश है, लेकिन व्ययों की सारी कटौतियों की तरह इन्हें हटाना राजनीतिक रूप से आसान नहीं होने वाला है।
सबसे निचली 20 प्रतिशत आबादी को लक्षित करना विशाल कार्य लगता है। इसके लिए सरकार किन आंकड़ों का उपयोग कर सकती है? आप किस प्रकार के टार्गेटिंग मैकेनिज्म का सुझाव देंगे?
मैंने कुछ तर्क सुने हैं जो प्रॉक्सी-मीन्स टेस्ट (पीएमटी) जैसे हैं। इनका उपयोग आय या खपत का अनुमान लगाने के लिए तब किया जाता है जब सही माप उपलब्ध नहीं होते हैं या उन्हें प्राप्त करना मुश्किल होता है। इसमें आम तौर पर परिवार की आय या खपत के प्रॉक्सी के बतौर उसके पास मौजूद परिसंपत्तियों (जैसे मकान का प्रकार, पशुधन का स्वामित्व, और विभिन्न टिकाऊ उपभोक्ता सामग्रियों) के बारे में सूचना एकत्र करना होता है। मैं सामान्यतः यह रास्ता पकड़ने को लेकर उत्साहित नहीं रहता हूं, जो हमारे पेरोल और आय कर संस्थानों का लगभग पूरी तरह रूपांतरण कर देने जैसा है ताकि हर किसी को अपनी पूरी आय की सूचना देनी पड़े। हालांकि मैंने जो एक समाधान प्रस्तावित किया है, वह है न्याय योजना को मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) के साथ जोड़ना। न्याय गरीबों के लिए लक्षित नकद अंतरण योजना है जो बिना शर्त है, अर्थात उसे प्राप्त करने के लिए कुछ नहीं करना होता है। और मनरेगा के तहत आपको तभी भुगतान मिलता है जब आप काम करते हैं। फलतः, यह स्वलक्षी है – केवल जिन्हें वास्तव में पैसे की जरूरत है वे इसे कमाने के लिए अतिरिक्त काम करने को तैयार होंगे। दूसरी ओर, यह काम करने में अक्षम गरीबों के लिए बेहतर नहीं है, जैसे कि बच्चों, बुजुर्गों और निःशक्त लोगों के लिए। इसलिए अंतरण की ऐसी नीति पर विचार किया जा सकता है जो निम्नलिखित तरीके से दोनो को जोड़ दे। हम कोई तय आधार राशि (बेस अमाउंट) रख सकते हैं (जैसे कि न्याय योजना में उल्लिखित 6,000 रु. प्रति माह का आंकड़ा) जो सभी को देनी है। और हम उसके बाद व्यक्तियों को स्वीकृति दे सकते हैं कि अगर वे मनरेगा के तहत काम करते हैं, तो अधिक का दावा करें। जिनकी कोई आय नहीं है (मनरेगा से कुछ नहीं कमाने वाले लोगों सहित) उन्हें सिर्फ आधार राशि मिलेगी। वहीं दूसरों को किए गए श्रम के अनुपात में अधिक रकम मिलेगी। इससे मूल रकम से अधिक आय प्राप्त करना लोगों के लिए महंगा बनाकर न्याय योजना को लागू करने का मैकेनिज्म भी उपलब्ध हो जाएगा और न्याय मे अंतर्निहित आय के सत्यापन की जरूरत भी हल हो जाएगी।
प्रस्तावित योजना आबादी के अच्छे-खासे हिस्से को विकृत प्रोत्साहन (परवर्स इंसेंटिव्स) देने के लिए बाध्य है। वे लोग यह दर्शाने की कोशिश करेंगे कि वे अपनी वास्तविक स्थिति से काफी अधिक गरीब हैं या इसकी पात्रता हासिल करने के लिए वे अपनी आमदनी को कम करके दिखाने की कोशिश करेंगे। आप योजना का निर्माण कैसे करेंगे कि इस स्वाभाविक समस्या के कारण कम से कम नुकसान हो?
न्याय की घोषणा के तत्काल बाद मैंने अनेक आलेखों में (यहां और यहां देखें) जानकारी दी है कि यह देखते हुए कि योजना के विवरणों के आधार पर उपलब्ध साधनों की जांच वाली किसी भी योजना के लिए गरीबों को लक्षित करना बड़ी समस्या होता है, इसलिए ऐसा लगता है कि लोगों को अपनी आमदनी कम करके दिखाने के लिए हर प्रोत्साहन होगा। यह एक गंभीर समस्या है और अभी तक जो मैंने सुना है उससे अच्छे इरादे का तो संकेत मिलता है लेकिन ठोस कदमों का नहीं। प्रसंगवश, काम के लिए प्रतिकूल प्रोत्साहन की बात से मैं सहमत नहीं हूं, जैसा कि कुछ लोग तर्क दे रहे हैं। हम न्याय द्वारा वादा की गई प्रति परिवार 6,000 रु. प्रति माह रकम के बारे में सोचते हैं। भारत में परिवारों की औसत सदस्य संख्या लगभग पांच है। इसका अर्थ हुआ कि यह रकम 1,200 रु. प्रति व्यक्ति, प्रति माह है। भारत में गरीबी रेखा कितनी है? यह ग्रामीण क्षेत्रों में 32 रु. प्रति व्यक्ति प्रतिदिन और शहरी क्षेत्रों में 47 रु. प्रति व्यक्ति प्रतिदिन है। प्रति महीने के लिहाज से यह रकम क्रमशः 960 रु. और 1,410 रु. प्रति व्यक्ति होती है। अगर हम इन आंकड़ों को मुद्रास्फीति के लिए समायोजित करें (जो रंगराजन रिपोर्ट के हैं और उनमें 2011-12 के मूल्यों का उपयोग किया गया है) तो यह ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 42 रु. और शहरी क्षेत्रों के लिए 62 रु. प्रति व्यक्ति होगा जो क्रमशः 1,200 रु. और 1,800 रु. प्रति माह के आसपास होता है। मेरी समझ में यह सोचना उचित नहीं है कि यह रकम इतनी अधिक है कि इससे किसी व्यक्ति की और अधिक आमदनी कमाने की प्रेरणा समाप्त हो जाय। अगर इस रकम में 5 से गुणा कर दिया जाय, तो मैं एक उचित तर्क उभरता हुआ देखना शुरू कर सकता हूं।
आप यह कैसे सुनिश्चित करेंगे कि यह योजना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (नैशनल फ़ूड सिक्योरिटी एक्ट या मनरेगा जैसी वर्तमान योजनाओं को कमजोर या बर्बाद करने के लिहाज से ट्रोजन हॉर्स नहीं बन जाएगी?
यहां समस्या वचनबद्धता की है। अगर मुद्रास्फीति या बजट घाटे के लक्ष्यों की तरह हम खास योजनाओं के लिए बजट का खास प्रतिशत निर्धारित कर दें, तो इस समस्या का आंशिक समाधान हो जाएगा। इसकी कमी में, लगातार निगरानी और चुनावी जवाबदेही ही उपलब्ध एकमात्र मैकेनिज्म हैं।
वर्तमान गरीबी निवारण योजनाओं में मौजूद कमियां सरकार की कमजोर क्षमता की उपज हैं। क्या ‘न्याय’ योजना भी इस समस्या से पीडि़त नहीं होगी?
हां। यह सही है लेकिन नकद अंतरण की योजना होने से सिद्धांत में इन समस्याओं का इस पर थोड़ा कम असर होगा। हालांकि, इसका लक्ष्यीकरण वाला हिस्सा अन्य किसी साधनों की जांच वाली योजना की तरह ही मुश्किलों से भरा है।
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