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क्या भारत में निर्यात-उन्मुख विनिर्माण मॉडल के दिन लद गए हैं?

  • Blog Post Date 10 अक्टूबर, 2022
  • दृष्टिकोण
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भारत अपनी तेजी से बढ़ती कामकाजी उम्र की आबादी हेतु अच्छी तनख्वाह वाली लाखों नौकरियां सृजित करने की चुनौती का सामना कर रहा है, अतः देवाशीष मित्र विश्लेषण करते हैं कि कौन-से क्षेत्र और किस प्रकार की रणनीतियां अच्छी नौकरियां उपलब्ध करा सकती हैं। उनका मानना है कि निर्यात-उन्मुख विनिर्माण मॉडल को सफल बनाने में चार कारक सहायक हो सकते हैं- श्रम में सुधार; मुक्त व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर तथा उनका कार्यान्वयन और विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना; और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में भागीदारी। इससे भारत को उत्पादक नौकरियां सृजित करने हेतु देश में उन्नत-प्रौद्योगिकी के साथ-साथ अपने श्रम का लाभ उठाने में सहायता मिलेगी।

भारत की कुल प्रति व्यक्ति आय कृषि क्षेत्र की औसत आय का 2.5 से 3 गुना होने के साथ, हम महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकीय सफलताओं के अभाव में इस क्षेत्र के विस्तार से केवल कम उत्पादकता और कम वेतन वाली नौकरियां सृजित करने की उम्मीद कर सकते हैं। सेवा क्षेत्र को देखें तो: भारत की आबादी में से केवल 12% के पास स्नातक या उच्चतर डिग्री है, और 59% आबादी प्राथमिक-विद्यालय, मध्य-विद्यालय और निरक्षरता की श्रेणियों में आती है, इस प्रकार से जनसंख्या के केवल एक छोटे से हिस्से के पास अच्छी सेवा-क्षेत्र की नौकरियों1 के लिए योग्यता प्राप्त करने का कोई मौका है।

इसलिए, भारत को नौकरियों की समस्या हल करने में कोई ठोस कदम उठाने के लिए विनिर्माण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। जैसा कि नीति आयोग (2017) द्वारा दर्ज किया गया है, छोटी फर्में (जिनमें 20 से कम कर्मचारी हैं) सभी विनिर्माण श्रमिकों में से 75% को रोजगार देती हैं, लेकिन वे कुल विनिर्माण उत्पादन का 10% से थोड़ा अधिक ही उत्पादन करती हैं। इसका तात्पर्य है, बड़ी फर्मों में कई गुना अधिक श्रम उत्पादकता है। इसके अलावा, एक औपचारिक क्षेत्र के निर्माण श्रमिक का औसत वेतन अनौपचारिक क्षेत्र के उद्यमों के औसत वेतन का छह गुना अधिक है, जो आम तौर पर छोटे, कम उत्पादकता वाले2 और अपंजीकृत होते हैं और उन पर अधिकांश श्रम नियम (नीति आयोग, 2017) लागू नहीं होते हैं। इस प्रकार से, मुख्य रूप से अपेक्षाकृत बड़ी फर्मों में, और मुख्य रूप से श्रम-प्रधान उद्योगों में अच्छी नौकरियों का सृजन करना होगा, क्योंकि यह वह स्थति है जहाँ उत्पादन वृद्धि के साथ रोजगार में वृद्धि होना निश्चित  है। उत्पादन के बड़े पैमाने के चलते अर्थव्यवस्थाओं के बढ़ने की उम्मीद है, जिससे उच्च उत्पादकता और मजदूरी प्राप्त होगी।

चीन का श्रम-प्रधान विनिर्माण उत्पादन (कपड़ा, परिधान, जूते आदि का) 1,000 या इससे अधिक श्रमिकों को रोजगार देने वाली फर्मों में केंद्रित है। दूसरी ओर, भारत का श्रम-प्रधान विनिर्माण 20 से कम श्रमिकों वाली फर्मों में केंद्रित है, जो अन्य राज्यों की तुलना में भारत के कठोर श्रम बाजार राज्यों3 में रोजगार का एक उच्च हिस्सा हैं (हसन और जांडोक 2013)। स्पष्ट रूप से, अपेक्षाकृत लचीले श्रम बाजारों वाले राज्यों में बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का बेहतर उपयोग और तेजी से रोजगार वृद्धि प्रतीत होती है, जिसकी गुप्ता एवं अन्य (2009) द्वारा पुष्टि की गई है।

छोटे पैमाने के उद्यमों में भारतीय विनिर्माण के संकेंद्रण के कारणों में श्रम प्रतिबंध शामिल हैं जिन्हें फर्मों द्वारा छोटे रहकर टाला जाता है; भूमि अधिग्रहण प्रतिबंध जो बड़े पैमाने पर फर्मों को संचालित करने के लिए विभिन्न मालिकों से भूमि के कई निकटवर्ती टुकड़ों को प्राप्त करना मुश्किल बनाते हैं; और निम्न अधिकतम फ्लोर-स्पेस इंडेक्स (एफएसआई)4 जो इमारतों की ऊंचाई को प्रतिबंधित करते हैं। खराब बुनियादी ढांचे और वित्तीय अविकसितता ने इन समस्याओं को और बढ़ा दिया है।

परिणामस्वरूप, भारत श्रम की विपुलता से मिलने वाले अपने प्राकृतिक तुलनात्मक लाभ को समझने में विफल रहा है, और यह हाल ही में प्रवेश-स्तर के श्रम-प्रधान वस्तुओं5 पर आयात शुल्क के दोगुने होने से साबित होता है। इलेक्ट्रॉनिक्स और संचार उपकरणों पर आयात शुल्क में हुई वृद्धि भी कम कुशल श्रम-प्रधान इनपुट प्रोसेसिंग एवं असेंबली की प्रतिस्पर्धात्मकता में भारत की कमी को दर्शाती है। यह एक ऐसा क्षेत्र रहा है, जिसने चीन के निर्यात विस्तार और विकास को प्रेरित किया है।

हालांकि, इस विफलता का मतलब यह नहीं है कि भारत के लिए श्रम-प्रधान निर्माताओं के निर्यात के आधार पर रोजगार सृजन का दृष्टिकोण संभव नहीं है। जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है- कृषि और सेवाएं रोजगार सृजन और विकास के इंजन नहीं हो सकते हैं। इसलिए, निर्माताओं और उनके निर्यात को छोड़ना विकास को छोड़ देने और अच्छी नौकरियों के सृजन को त्यागने के समान है। मेरा मानना है कि भारत के सफल होने के लिए अभी भी विशेष रूप से श्रम-प्रधान निर्यात पर जोर देने वाले एक निर्यात-उन्मुख विनिर्माण मॉडल की उम्मीद है।

श्रम सुधारों की दिशा में प्रगति

सबसे पहला, श्रम सुधारों पर कुछ उत्साहजनक गतिविधियाँ हुई हैं। आंध्र प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तराखंड ने औद्योगिक विवाद अधिनियम (आईडीए) के तहत फर्म-रोजगार आकार6 के लिए सीमा 100 से बढ़ाकर 300 श्रमिक कर दी है। सीमा में इसी वृद्धि को अब देशव्यापी औद्योगिक संबंध संहिता (आईआरसी) में भी शामिल किया गया है, जो चार नई श्रम संहिताओं में से एक है जिसे जल्द ही लागू किया जाने वाला है।

इसके अतिरिक्त, राजस्थान ने किसी फर्म में यूनियन हेतु मान्यता के लिए सदस्यता-सीमा को बढ़ाकर रोजगार के 30% तक कर दिया है। इसी क्रम में, आईआरसी के तहत किसी फर्म में एक यूनियन को मान्यता देने के लिए वहां के 51% कर्मचारियों के सदस्य होने की आवश्यकता होगी, अन्यथा एक 'बातचीत परिषद' का गठन करने की आवश्यकता होगी।

निरीक्षकों के जरिये होने वाली परेशानी को कम करने के लिए, कई केंद्रीय अधिनियमों (और अब कुछ राज्य अधिनियमों) के अनुपालन की स्व-रिपोर्टिंग के लिए केंद्रीय स्तर पर एक एकीकृत वेब पोर्टल स्थापित किया गया है। इस पोर्टल में एक ऐसा अंतर्निहित एल्गोरिथम है, जो रिपोर्टिंग में विसंगतियों की तलाश करता है, और यदि विसंगतियां पाई जाती हैं, तो निरीक्षण की कारवाई शुरू होती है। श्रम संहिताएं अनेक विनियमों के दोहराव और अंतर्विरोध को समाप्त करती हैं, साथ ही उन्हें अधिक पारदर्शी बनाती हैं, क्योंकि वे विनियमों को समेकित करती हैं। इसलिए अब, फाइलिंग और अनुपालन की संख्या बहुत कम हो जायेगी।

फर्मों पर नियामक बोझ में उल्लेखनीय कमी आने के साथ-साथ, श्रमिकों को रोजगार देने की प्रभावी लागत भी कम होने की उम्मीद है। हसन एवं अन्य (2013) पाते हैं कि अधिकांश उद्योगों में, विकास के समान चरणों में भारतीय उत्पादन अन्य देशों की तुलना में कहीं अधिक पूंजी-प्रधान था, संभवतः यह पूंजी के सापेक्ष श्रम को नियोजित करने की उच्च प्रभावी लागत से प्रेरित था। यह नए श्रम सुधारों के साथ कम से कम कुछ हद तक बदल सकता है । आईआरसी के तहत नियत अवधि के श्रमिकों के रोजगार हेतु किये गए प्रावधान के माध्यम से रोजगार में लचीलेपन में भी काफी वृद्धि होने की उम्मीद है।

मुक्त व्यापार समझौतों पर बातचीत

मेरे विश्वास में, निर्यातोन्मुखी, श्रम-प्रधान विनिर्माण मॉडल में योगदान देने वाला अगला कारक मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) में हुई कुछ हालिया प्रगति है। क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी)7 से भारत की निराशाजनक वापसी के बाद, हम अब एफटीए में एक नई रणनीति की शुरुआत को देख रहे हैं, और इस दिशा में हाल ही में पहले यूएई और फिर ऑस्ट्रेलिया के साथ बातचीत हुई है।

केवल 2.6 करोड़ आबादी वाला देश-ऑस्ट्रेलिया, जिसका आर्थिक आकार भारत8 से लगभग आधा है, के साथ आर्थिक सहयोग और व्यापार समझौते (ईसीटीए) पर हस्ताक्षर किया जाना महत्वहीन नहीं है। इस तथ्य के साथ कि ऑस्ट्रेलिया की प्रति व्यक्ति जीडीपी भारत की क्रय-शक्ति समता (और बाजार विनिमय दर पर 28 गुना) से सात गुना है, ईसीटीए से भारतीय उत्पादकों और निर्यातकों के लिए पर्याप्त बाजार विस्तार का मौका मिलता है। ऑस्ट्रेलिया में भारत के निर्यात को दोगुना करने और अगले पांच वर्षों के भीतर ईसीटीए के माध्यम से 'लाखों रोजगार' के निर्माण के सरकार के लक्ष्य को हासिल करने के लिए, इस समझौते को लागू करने के अलावा और भी कुछ अधिक किये जाने की आवश्यकता होगी। भारत को चीन और वियतनाम जैसे देशों से मुकाबला करना होगा, जिन्होंने ऑस्ट्रेलिया के साथ भी एफटीए किया है। कारक-बाजार की कठोरता, और बुनियादी ढाँचे की निम्न गुणवत्ता, औसत श्रम-शक्ति कौशल और शिक्षा के संदर्भ में इन देशों की तुलना में भारत में प्रतिकूल परिस्थिति है। स्पष्ट रूप से, ये वे क्षेत्र हैं जिन पर भारत को काम करना होगा। इस एफटीए के माध्यम से होने वाली प्रतिस्पर्धा के चलते, नीति-निर्माताओं पर घरेलू नीति सुधारों को पूरा करने और बुनियादी ढांचे और कौशल में सुधार लाने हेतु कुछ दबाव बना रहेगा।

अंत में, ईसीटीए की एक महत्वपूर्ण विशेषता- ऑस्ट्रेलियाई कपास और एल्यूमीनियम के आयात पर लगने वाले शुल्क में कटौती है। कपड़ा और परिधान में कपास एक महत्वपूर्ण इनपुट है, दोनों अत्यधिक श्रम-प्रधान हैं, जबकि एल्यूमीनियम का उपयोग कई अन्य निर्मित उत्पादों में किया जाता है। जाहिर है, श्रम-प्रधान निर्यात को बढ़ावा देने के लिए कम इनपुट लागत बहुत बढ़ सकती है।

विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) या स्वायत्त आर्थिक क्षेत्र (एईजेड) की स्थापना

आज की भू-राजनीति में, चीन में बढ़ती मजदूरी दरें और वहां लंबे समय तक चले कोविड से संबंधित हालिया लॉकडाउन से निर्यात संबंधी पैटर्न बदल रहे हैं, और भारत जैसे देशों के लिए नए अवसर प्रदान कर रहे हैं। बहरहाल, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारत के 250 एसईजेड (औसत आकार 0.3 वर्ग किलोमीटर) में से कोई भी चीन के शेनझेन के करीब नहीं आता है, जिसका क्षेत्रफल 1,950 वर्ग किलोमीटर9 है। पनगरिया (2020) ने तर्क दिया है कि भारत को स्वायत्त प्रशासन के तहत कुछ एईजेड की आवश्यकता है, जिनमें से प्रत्येक का क्षेत्रफल कम से कम 500 वर्ग किलोमीटर हो।

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, एसईजेड का विचार भारत में नया नहीं है, लेकिन, जैसा कि पनगरिया (2020) और झा और मित्रा (2020) में तर्क दिया गया है, इस विचार को विस्तारित करने की जरूरत है। इससे इन एईजेड के भीतर भूमि अधिग्रहण नियमों और एफएसआई में ढील देकर बड़े उद्यमों के लिए भूमि क्षेत्र की समस्या का समाधान किया जा सकेगा। इन एईजेड के अन्दर श्रम रोजगार निर्णयों में अधिक लचीलेपन की अनुमति देने से वहां के नियोक्ताओं की यह आशंका दूर हो जाएगी कि भले ही वे भविष्य में मांग में कमी का अनुभव करते हों, या यदि उनके कुछ कर्मचारी अक्षम पाए गए हों, तो भी उन्हें अपने सभी श्रमिकों को नौकरी में बनाए रखने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इस लचीलेपन से श्रमिकों की अधिक प्रारंभिक भर्ती हो सकती है और उत्पादन के अधिक श्रम-प्रधान तरीकों को अपनाया जा सकता है। प्रत्येक एईजेड संबंधित आर्थिक गतिविधियों के समूह के रूप में, समूह के लिए एक समन्वय तंत्र के रूप में कार्य करेगा, जिससे श्रम बाजार पूलिंग के माध्यम से उच्च उत्पादकता प्राप्त होगी और आस-पास के इनपुट आपूर्तिकर्ताओं को आकर्षित किया जा सकेगा। इन एईजेड में पूंजी संबंधी बाध्यताओं को दूर करने तथा सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से अवसंरचना विकास में ढील देने की आवश्यकता होगी। श्रमिकों के लिए शयनकक्ष, सड़कों, कार्यालय भवनों, स्कूलों, अस्पतालों आदि के निर्माण की गतिविधि से इन एईजेड के कार्यरत होने से पहले ही रोजगार सृजन शुरू होगा (देखें झा और मित्रा 2020)।

वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में भारत की भूमिका

इसके बाद, वर्तमान भू-राजनीति में, चीन-अमेरिका के बीच के संबंधों के बिगड़ने के साथ-साथ चीन में बढ़ती मजदूरी दरों के परिणामस्वरूप, भारत (और कुछ अन्य एशियाई देशों) को चीन के वैश्विक बाजार में कुछ श्रम-प्रधान विनिर्माणों को हथियाने का अवसर मिलता है। ऐसी भी खबरें हैं कि चीन में हाल के लंबी अवधि के कोविड लॉकडाउन ने पश्चिमी फर्मों को वैकल्पिक आपूर्तिकर्ताओं की तलाश करने के लिए प्रेरित किया है।

इसके परिणामस्वरूप, भारत के हालिया निर्यात आंकड़ों के अनुरूप, उत्तरी अमेरिका में दुकानदारों से अनौपचारिक रिपोर्टें मिली हैं कि हाल में डिपार्टमेंटल स्टोर्स में 'मेड इन इंडिया' ब्रांड-नाम के सूती परिधान की विक्री में वृद्धि हुई है। हालांकि, कृत्रिम रेशों और कपड़ों पर उच्च शुल्क (20-25%) संभवतः सिंथेटिक-कपड़े परिधान निर्यात पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं। इन शुल्कों को समाप्त करने से इस उप-क्षेत्र में भी उत्पादन और रोजगार के विस्तार में काफी मदद मिल सकती है। तो अंतिम उत्पाद आयात (उदाहरण के लिए, ऑटोमोबाइल पर 60-125% की सीमा में) पर उच्च टैरिफ को समाप्त करना होगा, जिसने इस उद्योग को विश्व बाजार में अक्षम और अप्रतिस्पर्धी बना दिया है।

नीतिगत निहितार्थ और निष्कर्ष  

इस संदर्भ में, नीतिगत हलकों में अक्सर माने गए निर्यात संवर्धन के व्यापारिक दृष्टिकोण में ‘विश्वास’ को नोट करना महत्वपूर्ण है- अर्थात् निर्यात संवर्धन और आयात प्रतिस्थापन साथ-साथ चल सकते हैं - जैसा कि प्रधान मंत्री मोदी के 'मेक इन इंडिया' के मामले में है। ऐसा करने की असंभवता प्रसिद्ध लर्नर समरूपता प्रमेय10 का एक स्पष्ट परिणाम है। स्पष्ट रूप से, जब कोई देश घरेलू खपत के लिए अधिक उत्पादन करता है, तो निर्यात हेतु उत्पादन के लिए कम संसाधन बचे होते हैं। साथ ही, आयात संबंधी बाधाएं- विदेशी मुद्रा की मांग में कमी और घरेलू मुद्रा की विनिमय दर में वृद्धि के माध्यम से- निर्यात को और अधिक महंगा बनाती हैं और विश्व बाजार में बेचे जाने वाले निर्यात वॉल्यूम को कम करती हैं। यह पिछले कुछ वर्षों में भारत में हुई टैरिफ वृद्धि को वापस लेना महत्वपूर्ण और जरूरी बनाता है।

विकास के लिए निर्यात को बढ़ावा देने की रणनीति से जुड़ी एक बात का मैं खंडन करता हूं, जो इन दिनों अक्सर सुनी जाती है कि उत्पादन और व्यापार की नई प्रकृति निर्यात का विकास और रोजगार सृजन के इंजन के रूप में उपयोग करना मुश्किल बनाती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि भारत इस रणनीति में चूक गया है; इस बात से मैं दृढ़ता से असहमत हूँ। जबकि स्वचालन में काफी प्रगति हुई है, इसने सभी तरह के श्रम-प्रधान उत्पादन को अपने कब्जे में ले लिया है। उत्पादन विखंडन और ऑफशोरिंग की वर्तमान पद्धति के माध्यम से श्रम-प्रचुर देशों में कई श्रम-प्रधान कार्यों का प्रसार किया जा सकता है, यहां तक कि उन वस्तुओं के उत्पादन में भी जो समग्र पूंजी-गहन हैं। कुल मिलाकर श्रम प्रधान माने जाने वाले सामानों के मामले में उत्पादन विखंडन कम आम है, भारत जैसे देश के पास अब विकासशील-देश के श्रम को उन्नत-देश प्रौद्योगिकी के साथ मिलाते हुए उत्पादक रोजगार सृजित करने की क्षमता के साथ, पहले की तुलना में बड़े पैमाने पर उत्पादक कार्य करने के अवसर हैं। यही तो इनपुट प्रोसेसिंग और असेंबली के माध्यम से निर्यात है।

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टिप्पणियाँ:

  1. इसमें सूचना प्रौद्योगिकी, आईटी-सक्षम सेवाएं, वित्त और अन्य व्यावसायिक सेवाएं जैसी नौकरियां शामिल हैं।
  2. यद्यपि 75% विनिर्माण श्रमिक छोटी फर्मों में कार्यरत हैं, वे केवल 10% उत्पादों का निर्माण करते हैं; बड़ी फर्मों में काम करने वाले शेष 25% श्रमिक, उत्पादन के नौ गुना अधिक निर्माण करते हैं।
  3. यह वर्गीकरण केंद्रीय श्रम अधिनियमों में राज्य संशोधनों और निगरानी तीव्रता पर आधारित है।
  4. किसी भवन का एफएसआई या फर्श क्षेत्र अनुपात (FAR) उसके कुल फर्श क्षेत्र के बराबर होता है जो उस भूमि के क्षेत्रफल से विभाजित होता है जिस पर इसे बनाया गया है। कम एफएआर मानों से इमारत की ऊंचाई कम होती है और इसका मतलब है कि निर्माण संबंधी नियम सख्त हैं।
  5. सौंदर्य सामग्री, घड़ियां, खिलौने, फर्नीचर, जूते, पतंग और मोमबत्तियां जैसे सामान।
  6. यह सीमा उन फर्मों के लिए रोजगार के आकार की ऊपरी सीमा है, जिन्हें कर्मचारियों को निकालने के लिए सरकारी अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है; इस सीमा से ऊपर, सरकार की मंजूरी की आवश्यकता है।
  7. आरसीईपी ऑस्ट्रेलिया, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया सहित कई एशिया-प्रशांत देशों के बीच एक मुक्त व्यापार समझौता है।
  8. मौजूदा सांकेतिक विनिमय दर पर ऑस्ट्रेलिया की जीडीपी 1.33 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर और भारत की 2.66 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है।
  9. सबसे बड़े भारतीय एसईजेड में से एक- मुंद्रा, लगभग 64 वर्ग किलोमीटर है।
  10. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार सिद्धांत में, लर्नर समरूपता प्रमेय में कहा गया है कि आयात बाधाएं (उदाहरण के लिए, आयात की प्रति यूनिट आयात शुल्क या आयात मूल्य के अनुपात के रूप में मूल्यवर्ग) भी निर्यात बाधाओं के रूप में कार्य करती हैं।

लेखक परिचय: देवाशीष मित्रा मैक्सवेल स्कूल ऑफ सिटिजनशिप एंड पब्लिक अफेयर्स, सिराकस यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और ग्लोबल अफेयर्स के क्रैमर प्रोफेसर हैं।

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