'डिसेंट्रलाइज्ड गवर्नेंस : क्राफ्टिंग इफेक्टिव डेमोक्रेसीज़ अराउंड द वर्ल्ड' में दिलीप मुखर्जी कल्याण कार्यक्रमों के विकेन्द्रीकरण के खिलाफ राजनीतिक ग्राहकवाद और अभिजात वर्ग के कब्ज़े की घटनाओं सहित कुछ तर्क प्रस्तुत करते हैं और हाइब्रिड ‘पुनर्केन्द्रीकरण’ पहल के लिए विकासशील देशों द्वारा किए गए प्रयासों का सारांश प्रस्तुत करते हैं। प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) योजना गलत आवंटन और भ्रष्टाचार की गुंजाइश को सीमित कर सकते हैं, इसे स्वीकारते हुए वे स्थानीय झटकों और राजकोषीय संघवाद के लिए केन्द्रीकरण के प्रति प्रतिक्रिया की डीबीटी की क्षमता की जांच करते हैं।
वर्ष 1950-1990 के बीच आधुनिक आर्थिक विकास का पहला चरण ज्यादातर केन्द्रीकृत, ऊपर से नीचे की दिशा में होने वाले विकास योजनाओं के रूप में था। कार्यक्रम की योजना, कार्यान्वयन और सेवा वितरण का कार्य संघीय या राज्य स्तर पर केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त और उसके प्रति जवाबदेह नौकरशाही को सौंपा गया था। फिर भी, लक्ष्यीकरण विफलताओं, खामियों (लीकेज), घाटे, भ्रष्टाचार और स्थानीय ज़रूरतों के प्रति जवाबदेही की कमी के कारण इस प्रणाली से मोहभंग बढ़ रहा था। परिणामस्वरूप, पिछले तीन दशकों में विकेन्द्रीकृत, नीचे से ऊपर की दिशा में कार्यान्वयन की ओर बदलाव देखा गया, जहाँ योजना के प्राधिकार स्थानीय नागरिकों द्वारा चुने गए स्थानीय सरकारी अधिकारियों को दिए गए। इसके पीछे की प्राथमिक प्रेरणा, निर्णय लेने में स्थानीय आवश्यकताओं व क्षमताओं के बारे में जानकारी प्राप्त करना और अधिकारियों के प्रोत्साहनों को स्थानीय नागरिकों के हितों के साथ अधिक निकटता से जोड़ना था।
विकेन्द्रीकरण राज्य की जवाबदेही को बढ़ाता है, यह तर्क अत्यधिक विवादास्पद है। अमेरिकी और भारतीय, दोनों संविधान रचयिताओं ने इसका प्रतिवाद किया है कि इस से केन्द्रीय सरकारों की तुलना में स्थानीय सरकारों द्वारा, ख़ासकर उच्च असमानता और गरीबी वाले क्षेत्रों में, स्थानीय अभिजात वर्ग द्वारा 'कब्ज़ा' करने की सम्भावना अधिक होती है। इन तर्कों को अतिरिक्त चिन्ताओं से बल मिलता है कि स्थानीय लोकतंत्र में उच्च स्तर के राजनीतिक ग्राहकवाद की विशेषता होती है, जिसमें स्थानीय पदाधिकारी फिर से चुने जाने की सम्भावना बढ़ाने के लिए, लाभ का आवंटन अपने वफादार समर्थकों या मतदाताओं के पक्ष में करते हैं। काफी विस्तृत शोध साहित्य (जिनकी समीक्षा मंसूरी और राव (2013) और मुखर्जी (2015) में की है) में ऐसी समस्याओं के व्यवस्थित साक्ष्य को दर्ज करते हुए दर्शाया गया है कि कैसे इन समस्याओं ने लाभों के आवंटन को समूचे स्थानीय समुदायों और उनके भीतर, खराब कर दिया है। यह तथ्य केन्द्रीकृत और विकेन्द्रीकृत शासन तंत्रों के बीच विकल्प के पुनर्मूल्यांकन और संभावित हाइब्रिड रूपों की खोज को प्रेरित करता है जो शायद बेहतर प्रदर्शन कर सकें।
'पुनर्केन्द्रीकरण' के प्रयास
हाल ही में कुछ देशों ने 'पुनर्केन्द्रीकरण' पहल का प्रयोग किया है, जिसने निगरानी बढ़ा दी है या उभरती हुई नई तकनीक और केन्द्र सरकारों की ‘अधिक विशाल डेटा' क्षमताओं का अक्सर उपयोग करने वाले स्थानीय सरकारी अधिकारियों के निहित विवेक को कम कर दिया है। इसके उदाहरणों में विभिन्न भारतीय राज्यों में संचालित एक रोज़गार और सामाजिक बीमा कार्यक्रम, मनरेगा द्वारा 'ई-गवर्नेंस' के क्षेत्रीय प्रयोग शामिल हैं (बनर्जी एवं अन्य 2019, मुरलीधरन एवं अन्य 2016, 2020)। इन प्रयोगों ने खामियों (लीकेज) और भ्रष्टाचार को कम करने में अलग-अलग स्तर की सफलता हासिल की। उनका उद्देश्य समुदायों के भीतर या समुदायों के बीच लाभ के आवंटन में स्थानीय सरकारी अधिकारियों के पक्षपातपूर्ण या व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों को कम करना नहीं था।
अन्य शोध में केन्या (हॉफमैन एवं अन्य 2017), ब्राज़ील (फ़िनन और माज़ोको 2021) और पश्चिम बंगाल (मुखर्जी और नाथ 2021) जैसे भारतीय राज्यों में सुधारों के प्रयोगों या सिमुलेशन के परिणामों को दर्ज किया है, जिनमें अपने अधिकार क्षेत्र के तहत विभिन्न क्षेत्रों में धन आवंटित करने के लिए सरकार के मध्यवर्ती स्तरों के अधिकारियों के विवेक पर निर्भर रहने के बजाय फॉर्मूला-आधारित अनुदान का उपयोग किया गया था। हालाँकि, स्थानीय समुदायों के भीतर अंतिम-मील डिलीवरी निर्वाचित अधिकारियों को सौंपी जाती रही। इन सुधारों के नतीजे भी मिलेजुले नजर आ रहे हैं। केन्या और ब्राज़ील में, अभिजात वर्ग के कब्ज़े से जुड़े अंतर-सामुदायिक आवंटन पूर्वाग्रह नियंत्रित तो हुए, लेकिन स्थानीय भ्रष्टाचार में वृद्धि की कीमत पर। भारत में, स्थानीय सरकारों द्वारा दिए जाने वाले लाभों की मात्रा के बारे में सीमित जानकारी के चलते जो कि उपयोग किए गए फॉर्मूले का आधार है, फॉर्मूला-आधारित अनुदान गरीब-समर्थक लक्ष्य में सुधार करने में विफल रहे। समुदायों में अंतिम-मील वितरण के प्रत्यायोजन के कारण समुदाय के भीतर गलत लक्ष्यीकरण होता रहा।
पाकिस्तान (हबीब और वायबोर्नी 2021) और इंडोनेशिया (बेनर्जी एवं अन्य 2021) में अधिक दूरगामी पुनर्केन्द्रीकरण पहल की गई। इस पहल से संपत्ति-आधारित प्रॉक्सी-मीन्स टेस्ट (पीएमटी) फॉर्मूला1 के आधार पर गरीबी रेखा से नीचे आने वाले नागरिकों को सीधे लाभ पहुंचाकर सभी स्तरों पर स्थानीय अधिकारियों के विवेक की गुंजाइश खत्म हो गई। भारत सरकार ने पारंपरिक कल्याण योजनाओं के स्थान पर प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) अपनाने की भी पहल की है। इन सुधारों के लिए लाभार्थियों के पंजीकरण और बैंक खातों या मोबाइल फोन के माध्यम से सीधे वितरण तंत्र के साथ ही व्यक्तियों, परिवारों और संपत्तियों के देशव्यापी प्रशासनिक डेटाबेस में निवेश की आवश्यकता है। इन योजनाओं के लक्ष्यीकरण में सुधार प्रभावशाली प्रतीत होते हैं और इसलिए अन्य विकासशील देशों द्वारा इन्हें अपनाए जाने की व्यवहारिकता या इच्छा के बारे में नए दिलचस्प प्रश्न उठते हैं।
प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण कार्यक्रम से जुड़ी समस्याएं
प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण कार्यक्रम से पश्चिमी शैली की सामाजिक सुरक्षा प्रणाली को अपनाए जाने के संकेत मिलते हैं, जहाँ केन्द्र सरकार अधिकांश निजी हस्तांतरण योजनाओं का प्रबंधन करती है और जिसमें स्थानीय सरकार की भूमिका स्थानीय बुनियादी ढांचे, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे सामूहिक प्रावधानों तक सीमित है। अभिजात वर्ग के कब्ज़े, भ्रष्टाचार, ग्राहकवाद और कल्याणकारी लाभों के गलत आवंटन की गुंजाइश सीमित करने अलावा यह प्रणाली अधिक पारदर्शी और नागरिकों को स्थानीय बिचौलियों पर कम निर्भर बना पाएगी। साथ ही, यह लाभ विभिन्न स्थानों पर ‘पोर्टेबल’ होंगे अर्थात लोगों के जिलों या राज्यों में प्रवासन के कारण उनकी कल्याणकारी लाभों की पात्रता खतरे में नहीं पड़ेगी।
प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजनाओं के बारे में एक चिन्ता गरीबी को सटीक रूप से मापने में परिसंपत्ति-आधारित पीएमटी उपायों की पर्याप्तता हो सकती है, क्योंकि वे परिवारों द्वारा अनुभव किए गए अस्थाई झटकों को नजरअंदाज़ करते हैं। घरेलू स्तर के झटकों के बारे में स्थानीय सरकारी अधिकारियों को किस हद तक अच्छी जानकारी है और वे लाभ आवंटन के साथ इसे कैसे जोड़ते हैं, इसके हालिया आकलन मिश्रित हैं (बासुर्तो एवं अन्य 2019, ट्रैक्तमैन एवं अन्य 2021)। फिर भी, स्थानीयता-आधारित पर्यावरणीय झटकों को शामिल करने के लिए पीएमटी-आधारित आवंटन में विस्तार की गुंजाइश है।
एक अधिक महत्वपूर्ण चिन्ता केन्द्रीकृत प्रशासनिक डेटाबेस और ई-डिलीवरी तंत्र की व्यवहार्यता और सटीकता से जुड़ी हुई है। वह यह कि कम शासन क्षमता वाले गरीब देश किस हद तक ऐसी प्रणालियों को प्रभावी ढंग से विकसित और संचालित कर सकते हैं? इस बात को बेहतर ढंग से समझने की ज़रूरत है कि पाकिस्तान और इंडोनेशिया जैसे देश कैसे इन प्रणालियों को विकसित और संचालित करने में कामयाब रहे।
एक आखरी चिन्ता राजकोषीय संघवाद के ऐसे दूरगामी पुनर्केन्द्रीकरण योजनाओं के संभावित निहितार्थ के बारे में है। साथ ही यह चिन्ता केन्द्रीय व क्षेत्रीय सरकारों के बीच राजनीतिक शक्ति के संतुलन से जुड़ी हुई है। चीमा एवं अन्य (2006) ने वर्णन किया है कि कैसे पाकिस्तान में विकेन्द्रीकरण और पुनर्केन्द्रीकरण के क्रमिक दौर केन्द्रीय स्तर पर सत्तावादी शासकों और क्षेत्रीय स्तर पर लोकलुभावन लोकतंत्रवादियों के बीच के संघर्ष से भी जुड़े थे। क्या प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण राज्य या केन्द्र सरकारों द्वारा प्रशासित किया जाना चाहिए? विभिन्न दलों द्वारा शासित क्षेत्रीय सरकारों की शक्ति को कमज़ोर करने के लिए वास्तविक हस्तांतरण में हेर फेर करने के बजाय, लाभ हस्तांतरण के लिए पीएमटी-आधारित फॉर्मूले का पालन करने के लिए केन्द्र सरकार पर किस हद तक भरोसा किया जा सकता है? इन प्रश्नों के समाधान के लिए आगे और चर्चा तथा शोध की प्रतीक्षा रहेगी।
यह लेख एलएसई प्रेस, लंदन द्वारा प्रकाशित ‘डिसेंट्रलाइज्ड गवर्नेंस : क्राफ्टिंग इफेक्टिव डेमोक्रेसीज़ अराउंड द वर्ल्ड’, के तहत जीन-पॉल फागेट और सर्मिष्ठा पाल (संपादन) के अध्याय 'स्थानांतरण कार्यक्रमों का विकेन्द्रीकृत लक्ष्यीकरण : एक पुनर्मूल्यांकन' का सारांश है।
टिप्पणी:
- प्रॉक्सी-साधन टेस्ट (पीएमटी) परीक्षण में गरीबी और आय के साथ संपत्ति और पारिवारिक विशेषताओं जैसे कुछ प्रॉक्सी को सह-संबंधित करने के लिए बहुभिन्नरूपी प्रतिगमन यानी मल्टी वेरिएट रिग्रेशन का उपयोग किया जाता है (ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रमंडल, 2011)।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : दिलीप मुखर्जी बोस्टन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं, जहाँ वह 1998 से आर्थिक विकास संस्थान के निदेशक के रूप में कार्यरत हैं। वह वर्तमान में बीआरईएडी के अध्यक्ष हैं।
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