हाल ही में, शैक्षिक मनोरंजन सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दों के समाधान के लिए एक मंच के रूप में उभरा है। इस लेख में, अग्रवाल, चक्रवर्ती और चैटर्जी जांच करते हैं कि क्या फिल्में स्वास्थ्य देखभाल के प्रति नकारात्मकता या स्टिग्मा को दूर कर सकती हैं और क्या भारतीय फार्मास्युटिकल बाज़ार में उपभोक्ता के लिए औषधियों के विकल्प और पसंद को बढ़ा सकती हैं? वे फर्म-स्तरीय बाज़ार की प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण करके भारत में मनोविकार नाशक दवाओं के बाज़ार पर बॉलीवुड फिल्म ‘माई नेम इज़ ख़ान’ की रिलीज़ के प्रभाव का पता लगाते हैं। शोधकर्ता फिल्म के कारण पैदा हुई सकारात्मकता के कारण बाज़ार में दवाओं की किस्मों की आपूर्ति में वृद्धि पाते हैं।
स्वास्थ्य सेवा में, ख़ासकर निम्न और मध्यम आय वाले देशों में नकारात्मकता, नकारात्मक सोच और कलंक जैसी भावना यानी स्टिग्मा एक बड़ी चुनौती बनी है जो उपभोक्ताओं में उत्पाद लेने की अनिच्छा का कारण बनता है और जिससे आपूर्ति पक्ष को प्रोत्साहन की कमी भी होती है। नकारात्मकता से उस के प्रति बात न करने और उसे वर्जना या टैबू मानने की स्थिति बनती है और यह बाज़ार को बहुत अधिक अक्षम बना देता है जो मानसिक स्वास्थ्य, यौन स्वास्थ्य जैसी स्थितियों और यहां तक कि टीकों को भी प्रभावित करता है। हाल के वर्षों में एक नए तंत्र का उपयोग किया गया है, वह है टीकों (अलातास एवं अन्य 2019), यौन स्वास्थ्य (बनर्जी एवं अन्य 2019) के प्रति बाज़ार में सकारात्मकता लाने के लिए मशहूर लोगों के समर्थन का उपयोग करना- यहां तक कि विभिन्न प्रकार के रोगों की जाँच को बढ़ावा देने के लिए भी। उदाहरण के लिए, खबर आई थी कि एंजेलीना जोली ने बीआरसीए जीन टेस्ट करवा लिया है (देसाई और जेना 2016)।
इस अध्ययन (अग्रवाल, चक्रवर्ती, और चैटर्जी 2023) में, हम बॉलीवुड फिल्म ‘माई नेम इज़ ख़ान’, जिसके नायक, शाहरुख ख़ान का चरित्र एस्पर्जर सिंड्रोम से पीड़ित है, के कारण पैदा हुई सकारात्मकता की प्रतिक्रिया की जांच करते हैं। फिल्म की रिलीज़ से मानसिक विकारों के संदर्भ में नकारात्मकता कम हुई और हम इस बात का मूल्यांकन करते हैं कि क्या इसके साथ-साथ, बेची जाने वाली दवाओं- विशेष रूप से उन्नत मनोविकार नाशक दवाओं (अडवांस्ड एन्टीसाइकोटिक्स) के विकल्पों की उपलब्धता में वृद्धि हुई?
मानसिक स्वास्थ्य को लेकर नकारात्मकता या स्टिग्मा
स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच को लेकर नकारात्मकता, नकारात्मक सोच या स्टिग्मा स्वास्थ्य देखभाल विस्तार व पहुँच के लिए एक विशेष चुनौती है। इस नकारात्मकता के कारण अप्रभावी स्थिती बनती है जिममें ग्राहक इस समस्या के बारे में जागरूक होते हुए भी स्वास्थ्य देखभाल की कोशिश नहीं करते हैं। इसके नतीजे में आपूर्ति-पक्ष की ओर से अपर्याप्त प्रतिक्रिया होती है। कई अतिरिक्त सामाजिक-आर्थिक असमानताओं और सांस्कृतिक कारकों के कारण मानसिक स्वास्थ्य की समस्या अधिक गंभीर है (पटेल एवं अन्य 2016)। भारत में मानसिक बीमारियों के लिए स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं तक पहुंच की कमी के कारण भी मानसिक स्वास्थ्य संबंधी बीमारी के विस्तार का अनुमान सटीक नहीं है (पटेल एवं अन्य 2016)। भारतीय राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के आंकड़े इस बात की ओर इशारा करते हैं कि देश में 150 करोड़ लोगों को मानसिक विकारों के लिए सहायता की आवश्यकता है, लेकिन मानसिक बीमारी से जुड़ी नकारात्मकता, नकारात्मक सोच और कलंक जैसी भावना के कारण, इसके उपचार में उल्लेखनीय कमी है।
डेली के शोध (2004) से पता चलता है कि स्वलीनता यानी ऑटिज़्म के मामले में प्रभावी उपचार के लिए प्रारंभिक निदान किया जाना आवश्यक है, लेकिन भारत में इस गलत धारणा के कारण कि यह एक क्षणिक चरण है और बच्चा समय के साथ अपने आप ठीक हो जाएगा, ऐसा नहीं किया जाता है। इसके अलावा, पारंपरिक पद्धतियों जैसे होम्योपैथी, आयुर्वेद, यूनानी आदि का प्रचलन, उनकी प्रभावकारिता और संभावित दुष्प्रभावों के बारे में चिंताओं के बावजूद, उपचार प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं (तीरतल्ली एवं अन्य 2016)। भारत में मानसिक स्वास्थ्य से पीड़ित लोगों को सामाजिक बहिष्कार के दबाव का भी सामना करना पड़ता है (मैथियस एवं अन्य 2015, कोस्चोर्के एवं अन्य 2017)। इन स्थितियों के चलते, भारत में मानसिक स्वास्थ्य की समस्या के समाधान में कई बाधाएँ आती हैं।
क्या फिल्में सकारात्मकता या फिर नकारात्मकता में बदलाव लाने का कारण बन सकती हैं और आपूर्ति पक्ष की प्रतिक्रिया को बदल सकती हैं?
विविध क्षेत्रों के सुप्रसिद्ध लोगों से प्रेरित सकारात्मकता से लोगों के दृष्टिकोण में बदलाव आ सकता है और यह विभिन्न संदर्भों में टकराव को कम कर सकता है। मीडिया 'शिक्षा-प्रशिक्षण', एडु-टेन्मेंट की भूमिका भी निभा सकता है और मान्यताओं को प्रभावित कर सकता है, जिससे व्यवहार में संभावित बदलाव आ सकता है (ला फेरारा एवं अन्य 2012)।
हमने अपने शोध में फिल्म माई नेम इज़ ख़ान (एमएनआईके) की रिलीज़ और आपूर्ति पक्ष पर इसके प्रभाव का अध्ययन किया है। इस फिल्म में शाहरुख ख़ान ने रिज़वान ख़ान की भूमिका निभाई है, जो एस्पर्जर सिंड्रोम से पीड़ित है और काम करते समय उसमें गंभीर लक्षण नज़र आते हैं। यह फिल्म एक तरह से संभावित सकारात्मकता को दर्शाती है, जिससे एस्पर्जर सिंड्रोम और इससे जुड़े व्यवहार में परिवर्तनों के बारे में जागरूकता बढ़ती है।
एस्पर्जर सिंड्रोम पर काबू पाने के लिए मनोविकार नाशक (एन्टीसाइकोटिक्) दवायें दी जाती हैं। मनोविकार नाशक दवाओं को विशिष्ट और सामान्य मनोविकार नाशक के रूप में विभाजित किया जा सकता है। सामान्य मनोविकार नाशक कम प्रतिकूल घटनाओं से जुडी होती हैं और आमतौर पर सुरक्षित मानी जाती हैं (डोल्डर एवं अन्य 2002, जेन्सेन एवं अन्य 2007, लेक्लर्क और ईस्ले 2015)। हमारी परिकल्पना या हाइपोथिसिस यह है कि इस फिल्म की रिलीज़ से रोगियों के बीच अधिक जानकारी का प्रसार होगा, जो रोगी एवं चिकित्सक के बीच बातचीत को प्रभावित करेगा, जिससे बाज़ार में उपलब्ध दवा विकल्पों में संभावित रूप से विस्तार होगा (बियालकोव्स्की और क्लार्क 2022)।
शोध पद्धति
हम मनोविकार नाशक दवाओं की आपूर्ति पर ‘माई नेम इज़ ख़ान’ के प्रभाव का आकलन करने के लिए आँकड़ों के दो डेटासेट का उपयोग करते हैं- इसमें से एक ऑल-इंडिया ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ केमिस्ट्स एंड ड्रगिस्ट्स (एआईओसीडी) का फार्माट्रैक डेटाबेस है। यह पूरे भारत में खुदरा विक्रेताओं से बिक्री संबंधी डेटा एकत्र करता है और भारत में 60% दवाओं की बिक्री के बारे में जानकारी उपलब्ध कराता है (एड्बी एवं अन्य 2019)। दूसरा, चिकित्सक के व्यवहार में परिवर्तन के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए हम आईक्यूवीआईए प्रिस्क्रिप्शन ऑडिट डेटाबेस का उपयोग करते हैं, जिसमें चिकित्सक के दवाएं लिखने के व्यवहार के बारे में जानकारी उपलब्ध कराने के लिए प्रत्येक माह दस लाख नुस्ख़ों के नमूनों का अध्ययन किया जाता है (दत्ता 2011, डुग्गन और गोयल 2016)।
मुख्य परिणाम बिन्दु
फिल्म ‘माई नेम इज़ ख़ान’ की रिलीज़ से जुड़े सूचना प्रसार का पता लगाने के लिए हमने फिल्म की रिलीज़ के बाद एस्पर्जर सिंड्रोम के बारे में गूगल कीवर्ड खोजों में भारी वृद्धि (आकृति-1) पाई।
आकृति-1. गूगल कीवर्ड खोज में पैटर्न
टिप्पणियाँ: i) यह आंकड़ा अ) एस्पर्जर सिंड्रोम और ब) माई नेम इज़ ख़ान के बारे में संचयी खोज दर्शाता है और भारत में की गई एस्पर्जर सिंड्रोम खोजों की तुलना वैश्विक खोजों से करता है ii) गहरे भूरे रंग की ऊर्ध्वाधर रेखा फरवरी 2010 में एमएनआईके की रिलीज़ से संबंधित है।
हम ‘माई नेम इज़ ख़ान’ के रिलीज़ होने के बाद असामान्य अणुओं के लिए बेची जाने वाली अद्वितीय स्टॉक कीपिंग यूनिटों (एसकेयू) में लगभग 18% की औसत वृद्धि पाते हैं, और प्रिस्क्रिप्शन स्तर पर लगभग 25% की वृद्धि होती है, जिससे हमारे अनुमानों को प्रारंभिक समर्थन मिलता है।
हमने डिफरेंस-इन-डिफरेंस अनुमान1 का उपयोग करके मनोविकार नाशक दवाओं के बाज़ार पर एमएनआईके के प्रभाव का भी विश्लेषण किया। हमें इस बात के पुख्ता सबूत मिले हैं कि एमएनआईके के रिलीज़ होने से पहले, सामान्य बनाम विशिष्ट द्रव्यों की किस्मों में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं हुआ था लेकिन, फिल्म के रिलीज़ होने के बाद सामान्य द्रव्यों की बिक्री की पसंद में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
आकृति-2 दर्शाती है कि एमएनआईके के रिलीज़ होने से पहले विशिष्ट और सामान्य दवाओं की किस्मों में कोई सांख्यिकीय अंतर नहीं था, लेकिन फिल्म की रिलीज़ के बाद, हम विशिष्ट दवाओं की तुलना में सामान्य दवाओं के लिए बेची जाने वाली किस्मों में महत्वपूर्ण बदलाव पाते हैं।
आकृति-2. सामान्य दवाओं की किस्मों पर ‘माई नेम इज़ ख़ान’ का प्रभाव
मानसिक स्वास्थ्य के लिए उपचार और आय (लार्ज एवं अन्य 2008) के बीच नकारात्मक संबंध को देखते हुए, दवाओं की किस्मों में यह वृद्धि रोगियों को अधिक विकल्प प्रदान करती है। इस प्रकार, विशेष रूप से सामान्य मनोविकार नाशक दवाओं के ‘एक्स्ट्रापाइरामिडल’दुष्प्रभाव जैसे कि चेहरे की अनैच्छिक हरकत या अंगों को झटकना आदि कम होने के कारण उनके कल्याण में वृद्धि होती है।
जब हम डेटा को गहराई से देखते हैं तो पाते हैं कि आम तौर पर, कम साक्षरता वाले क्षेत्रों की तुलना में उच्च साक्षरता वाले क्षेत्रों में किस्मों में वृद्धि अधिक होती है, जो उपभोक्ताओं की भुगतान करने की इच्छा के कारण प्रेरित आपूर्ति-पक्ष की गतिविधियों से मेल खाती है। हमें दक्षिणी भारत के बाज़ार, जहां हिंदी एक प्रमुख भाषा के रूप में प्रचलित नहीं है, पर ‘माई नेम इज़ ख़ान’ के प्रभाव में क्षेत्रीय भिन्नताएं मिलती हैं, लेकिन वहां साक्षरता और भुगतान करने की इच्छा शेष भारत की तुलना में अधिक हो सकती है। चूंकि इन राज्यों को आर्थिक विकास की दृष्टि से उच्च स्तर वाला माना जाता है, इसलिए संभव है कि कंपनियां इन क्षेत्रों के बाज़ारों में दवाओं की अधिक किस्में उपलब्ध कराएंगी। हमने यह भी पाया कि उन दवाओं में विस्तार अधिक ठोस है, जो अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा अनुमोदित नहीं हैं और यह ज़रूरत से कम कल्याणकारी प्रभाव की ओर इशारा करते हैं।
इसके बाद, हमने अपने प्रिस्क्रिप्शन डेटा में प्रभाव की जाँच की और हमें समान परिणाम मिले। ‘माई नेम इज़ ख़ान’ के रिलीज़ होने के बाद औसत सामान्य द्रव्यों की किस्मों में 22% का विस्तार हुआ है, जो मनोचिकित्सक के व्यवहार में बदलाव का संकेत देता है। हमारे परिणाम पूर्व-रुझान, सिंथेटिक नियंत्रण और उप-नमूना विश्लेषण के संदर्भ में मजबूत बने रहे।
निष्कर्ष
वर्तमान शोध में इस बात के प्रमाण मिले हैं कि विकल्पों में बढ़ोतरी से लोगों के कल्याण में वृद्धि हो सकती है, जैसे कि ब्यूप्रेनोर्फिन दवा तक पहुंच में वृद्धि के चलते ओपिऑयड उपयोग के लिए इसे चुनने वाले चिकित्सकों में 111% की वृद्धि हुई है (बर्नेट एवं अन्य 2019)। बढ़ी हुई जानकारी उपभोक्ताओं और चिकित्सकों दोनों के इरादों में बदलाव ला सकती है (किचनर और जोर्न, 2002) और इस प्रकार, फिल्म की रिलीज़ के कारण आपूर्ति पक्ष में बदलाव संभावित रूप से महत्वपूर्ण कल्याणकारी प्रभाव डाल सकता है।
विकासशील देशों में मानसिक स्वास्थ्य उपचार बाज़ार में महत्वपूर्ण घर्षण की स्थिति नज़र आती है (पटेल एवं अन्य 2016)। शैक्षिक मनोरंजन प्राथमिकताओं को प्रभावित करता है और व्यवहार को बदल सकता है। उदाहरण के लिए, प्रजनन क्षमता पर धारावाहिकों के प्रभाव (ला फेरारा एवं अन्य 2012) और पोषण संबंधी आदतों पर फिल्मों के प्रभाव (बनर्जी एवं अन्य 2015) या महिलाओं की स्थिति में और सूचना चाहने वाले व्यवहार में सुधार आदि (जेन्सेन और ओस्टर 2009)- हमारे अध्ययन में इस बात के साक्ष्य मिलते हैं कि कैसे यह अधिक उत्पादों और दवाओं की किस्मों के संदर्भ में आपूर्ति-पक्ष की प्रतिक्रिया को प्रेरित कर सकता है और संभावित कल्याण लाभों को जन्म दे सकता है।
हमारे परिणामों से नीति-निर्माताओं को आपूर्ति-पक्ष की प्रतिक्रिया को प्रेरित करने के लिए ‘शिक्षा-प्रशिक्षण’ का उपयोग कहां करना है, इस बात का मार्गदर्शन मिलता है जिससे अंततः मांग में बदलाव आ सकता है। इस प्रकार फिल्में कम लागत वाले हस्तक्षेप विकल्प के रूप में काम कर सकती हैं, जिसका उपयोग स्वास्थ्य देखभाल परिदृश्य में नकारात्मकता या स्टिग्मा के समाधान के लिए किया जा सकता है।
फुटनोट :
1. डिफरेंस-इन-डिफरेंस एक ऐसी तकनीक है जिसका उपयोग ऐसे समान समूहों में समय के साथ परिणामों के विकास की तुलना करने के लिए किया जाता है, जहां एक व्यक्ति किसी घटना इस मामले में, माई नेम इज़ ख़ान की रिलीज़ के बाद सूचना का प्रसार से प्रभावित था, जबकि दूसरा व्यक्ति नहीं था।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : मयंक अग्रवाल ने भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद से रणनीति में पीएचडी की उपाधि, और जी.बी. पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय से प्रोडक्शन इंजीनियरिंग में बीटेक किया है। अनिंद्य चक्रवर्ती भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर हैं। चिरंतन चटर्जी ससेक्स बिजनेस स्कूल विश्वविद्यालय में विज्ञान नीति अनुसंधान इकाई (एसपीआरयू) में नवाचार अर्थशास्त्र के रीडर हैं। वे हूवर इंस्टीट्यूशन, स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी और आईआईएम अहमदाबाद से भी जुड़े रहे हैं।
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