भारतीय समाज में सांस्कृतिक प्राथमिकताओं के कारण बेटों की चाहत आम बात है। 1986 से 2017 तक राष्ट्रीय रूप का प्रतिनिधित्व करते आंकड़ों का प्रयोग कर यह आलेख बेटों की तुलना में बेटियों की शिक्षा पर, माता-पिता द्वारा किए जाने वाले निवेश की पड़ताल करता है। जहां तक कुल शिक्षित छात्रों की बात है यह पाया गया कि सभी स्तर के विद्यार्थियों की लिंग-भिन्नता में भारी कमी आई है, परंतु जब शिक्षा की गुणवत्ता की बात करें तो यह अंतर बढ़ा है - विशेषकर बेटियां न चाहने वाले परिवारों में।
नकुशा: महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में कई माता-पिता अपनी बेटियों का नाम ‘नकुशा’ रखते हैं जिसका अर्थ है ‘अवांछित’....
बहुत सी वजहें हैं कि माता-पिता कम से कम एक बेटा, या जितनी बेटियाँ हैं उनसे ज्यादा बेटे चाहते हैं, जैसे कि पितृसत्तात्मकता, वृद्धावस्था में सहयोग की अपेक्षा, अनुष्ठान जो केवल पुत्र करते हैं (विशेष रूप से अंतिम-संस्कार संबंधी) और पुरुष प्राइमोजेनरी से संबंधित होते हैं। भारत, चीन और दक्षिण कोरिया में बेटों की चाहत सामान्यत: अधिक है क्योंकि वहाँ लिंग-आधारित भ्रूण हत्या का प्रचलन है (दास गुप्ता एवं अन्य 2003)। इसके परिणामस्वरूप जन्म के दौरान लिंग-अनुपात में गड़बड़ी होती है क्योंकि माता-पिता अपने बेटे और बेटी के रूप में बच्चों की संरचना पर बहुत सावधानीपूर्वक विचार करते हैं। इस प्रकार बेटे की चाह ‘महिलाओं की गैरहाजिरी’ वाले सिद्धांत के मुहाने पर पहुँचती है, जिस पर बहुत से शोध किए जा चुके हैं (सेन 1990)।
हमारी हालिया शोध में (देशपांडे एवं गुप्ता 2020) हम अपनी पड़ताल उन (गैर-लापता) महिलाओं पर लक्षित करते है जो ऐसे समाज में पली-बढ़ी हैं जहां पुत्र-संतान की अपेक्षा गहरी बसी हुई हैं। बेटों की चाहत वाला दृष्टिकोण, बेटों की तुलना में बेटियों की स्कूली शिक्षा पर माता-पिता के निवेश को कैसे प्रभावित करता है? साथ ही, क्या बेटे की चाह एकमात्र कारण है जो माता-पिता के निवेश अंतर पैदा करता है, या कोई और तंत्र भी हावी है? कैसे ये दृष्टिकोण और शिक्षा में वास्तविक लैंगिक-अंतर समय के साथ-साथ बदलता गया है?
हमनें 6 से 9 वर्ष के बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा की मात्रा व गुणवत्ता पर राष्ट्रीय पतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) द्वारा 1986 से 2017 के बीच आयोजित विशेष शैक्षणिक सर्वेक्षणों के आंकड़ों की जांच की है। आंकड़े, मांग (शिक्षा हेतु) एवं आपूर्ति कारकों का संयोजन दर्शाते हैं। तथापि, हमारा शोध ऐसे कारकों पर लक्षित है जो घर में उत्पन्न होते हैं और शिक्षा की मांग को प्रभावित करते हैं। हम यह पता लगाते हैं कि क्या पारिवारिक-स्तर वाले कारक, लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग हैं? यदि हाँ, तो क्या बेटे की चाहत ही इसका एकमात्र कारण है? हम विशेष रूप से इस बात की जांच करते हैं कि कैसे ‘अवांछित बेटियों’ की धारणा शिक्षण की मात्रा व गुणवत्ता में लैंगिक-अंतर को दिशा देती है।
हम ‘अवांछित’ बेटियों की पहचान कैसे कर सकते हैं?
अवांछित बेटियां सही मायने में वे कन्याएं हैं जो जन्म तो ले चुकी हैं, परंतु उनके माता-पिता नहीं चाहते थे कि वे पैदा हों। हम उनकी पहचान कैसे करें? इसका अनुभव चुनौतीपूर्ण है क्योंकि आंकड़ों में हमें केवल वास्तविक संख्या और परिवार के बच्चों लिंग की संख्या ही पता चलती है। इसके अतिरिक्त, हम जानते हैं कि भारत में जन्म-पूर्व लिंग की जानकारी प्राप्त करना गैर-कानूनी है परंतु यह बहुत प्रचलन में है, जिसका मतलब है कि सैद्धांतिक रूप से बेटे की अत्यधिक चाहत रखने वाले माता-पिता अवांछित बेटी को जन्म देने की बजाय स्त्री-भ्रूण को सीधा गिरा ही देते हैं। हम केवल परिजन की संख्या और बच्चों की लिंग-संरचना देखकर बेटों की चाहत रखने वाले माता-पिता की संख्या का अनुमान नहीं लगा सकते क्योंकि सर्वेक्षण के आंकड़े यह नहीं दर्शाते कि माता-पिता ने अपने परिवार की संरचना में जानबूझकर फेरबदल किए हैं या नहीं।
बेटे की चाहत रखने वाले सभी माता-पिता स्त्री-भ्रूण को नहीं गिराते। 2018 के आर्थिक सर्वेक्षण जयचंद्रन (2017) के आधार पर ‘बेटे की तीव्र चाहत’ (आगे से ‘मेटा एस.पी.’ लिखा जाएगा) को दर्शाता है। इसके परिणामस्वरूप कई परिवार पैदाइश पर रोक लगाने के नियम को अपनाते हैं, जिसका अभिप्राय है कि वे तब तक बच्चे पैदा करते रहते हैं जब तक कम-से-कम एक बेटा या वांछित संख्या में बेटों का जन्म नहीं हो जाए। जब पैदाइश रोकने वाला ऐसा कोई नियम नहीं होता है तब लिंग अनुपात स्वाभाविक रूप से उभरने वाला 1.05 (पुरुष/स्त्री) होता, चाहे वो बच्चा अंतिम हो या न हो। पैदाइश रोकने वाले नियम से अंतिम बच्चे के लिंग अनुपात का झुकाव बहुत हद तक बेटे की ओर होता है, और पहले जन्में बच्चों की श्रृंखला में लिंग अनुपात का झुकाव बहुत हद तक बेटियों की ओर होता है। इस प्रकार, बेटे की तीव्र इच्छा ‘अवांछित’ बेटियों के सिद्धांत को ग्रहण करता है, अर्थात माता-पिता द्वारा बेटे को जन्म देने के प्रयास में बेटियों का जन्म।
हमारे शोध की नवीनता दो विशिष्टताओं में निहित है - पहला, मेटा एस.पी. के निर्धारण हेतु पद्धति के आधार पर परिवारों का वर्गीकरण; तथा दूसरा, बच्चों की शिक्षा पर माता-पिता के निवेश को रेखांकित करते तंत्र को सुलझाने के लिए इस वर्गीकरण का प्रयोग करना।
परिवार के प्रकार
मेटा एस.पी. के संग्रहण के लिए हम तीन या तीन से अधिक बच्चों वाले परिवारों की जांच करते हैं। ऐसे परिवारों में केवल बेटियां, केवल बेटे, या बेटे और बेटियां दोनों हो सकते हैं। अंतिम श्रेणी वाले परिवार को हम मिश्रित परिवार की संज्ञा देते हैं। यदि आखिरी बच्चा बेटा है और उससे पहले के सभी बच्चे बेटियां हैं तो हम इन्हें ‘मेटा एस.पी./अवांछित बेटियों वाले मिश्रित परिवार’ के रूप में वर्गीकृत करते हैं। यदि अंतिम बच्चा बेटा नहीं है, तो हम उसे बस ‘मिश्रित परिवार’ ही कहते हैं।
इस प्रकार हमें चार प्रकार के परिवार प्राप्त होते हैं - सभी बेटियों वाले परिवार, सभी बेटों वाले परिवार, अवांछित बेटियों वाले मिश्रित परिवार, तथा मिश्रित परिवार (बिना किसी अवांछित बेटी वाले)। इसके आधार पर, बच्चों के छ: प्रकार के वर्ग बनते हैं - सभी बेटियों (या बेटों) वाले परिवार में बेटियां (या बेटे); मिश्रित परिवार में बेटियां (या बेटे); अवांछित बेटियों वाले मिश्रित पविार में बेटियां (या बेटे)।
एक बार पुन: नोट करें कि हम बच्चों की वास्तविक संख्या को देखते हैं, न कि माता-पिता की प्रत्याशित इच्छाओं को। हम यह पुन: दोहराया रहे हैं कि उजागर सर्वेक्षण आंकड़ों को देखकर स्पष्ट रूप से यह निर्धारित करना संभव नहीं है कि कौन-सी बेटी ‘चाहत’ से हुई है या कौन-सी ‘अवांछित’ है। बच्चों की वास्तविक संख्या और बच्चों की लिंग-संरचना इच्छित परिवार आकार, बेटे की चाहत (अर्थात, माता-पिता ने जन्म-पूर्व लिंग जांच कराई और परिणाम पर कार्रवाई की), साथ-ही-साथ मात्र नसीब का खेल है।
इसके अतिरिक्त यह नोट किया जाए कि हम मेटा एस.पी. का निर्धारण केवल मिश्रित परिवार में ही करते हैं। सभी बेटियों वाले कई परिवारों में अवांछित बेटियां बिल्कुल हो सकती हैं, जहां माता-पिता ने बेटे के लिए प्रयास किया परंतु उन्हें पुत्र-प्राप्ति नहीं हुई और एक समय ऐसा आया कि उन्होंने बच्चे पैदा करना छोड़ दिया। या ऐसे परिवार भी हो सकते हैं जिन्हें पहले या दूसरे बच्चे के रूप में बेटा हुआ और उन्होंने तीसरी बार बेटा चाहा, परंतु बेटी हुई। ऐसे परिवार में दो बेटियां और एक बेटा हो सकता है (जिनमें उनका अंतिम बच्चा बेटा नहीं होता)। यहाँ कम से कम एक बेटी अवांछित होगी, परंतु हमारे वर्गीकरण में इसे इस प्रकार ग्रहण नहीं किया जाएगा। इन्हीं सब कारणों से यह नोट करना महत्वपूर्ण है कि अवांछित बेटियों वाले परिवार की हमारी गणना एक अल्प-आकलन है, और हम शिक्षण में लैंगिक-अंतर पर मेटा एस.पी के प्रभाव का निम्नतर अनुमान उपलब्ध कराते हैं।
माता-पिता की अभिप्रेरणा
सैद्धांतिक रूप से बेटे की चाहत रखने वाले या बेटी से भेदभाव करने वाले माता-पिता के चार प्रकार हो सकते हैं।
- माता-पिता प्रकार 1: ये माता-पिता ‘बेटी के साथ भेदभाव रखने वाले’ बेकेरियन किस्म के होते हैं, या बेटों की इष्टतम संख्या की कामना से परे पुरुष प्रधानता में कड़ा विश्वास रखने वाले होते हैं। वे बेटियों की शिक्षा को महत्वपूर्ण नहीं मानते; यदि उन्हें सिर्फ बेटों की बजाय सिर्फ बेटियां होती तो वे बेटियों की शिक्षा में कम निवेश करते।
- माता-पिता प्रकार 2: ये माता-पिता मेटा एस.पी. वाले होते हैं, जिसका मतलब है कि वे कम से कम एक बेटा या बेटियों से ज्यादा बेटे चाहते हैं, तथापि इन माता-पिता का आंतरिक रवैया बेटियों से भेदभाव का नहीं भी हो सकता अर्थात वे बेटों और बेटियों के लिए बराबर निवेश को महत्व देंगे। तथापि बेटे को पाने की चाह में उन्हें अवांछित बेटियां मिलती हैं, जिससे परिवार का आकार वांछित से अधिक हो जाता है और संसाधन कम पड़ जाते हैं, जिसके फलस्वरूप माता-पिता अपनी बेटियों (जिसमें अवांछित बेटियां शामिल हैं) की अपेक्षा अपने बेटों पर अधिक खर्च करते हैं।
- माता-पिता प्रकार 3: इन माता-पिता की बेटे की कोई अंतर्निहित चाहत नहीं होती और न ही बेटियों के प्रति भेदभाव का रवैया होता है। फिर भी वे संसाधनों के जमाव की वजह से प्रभावित होते हैं, जो संसाधन-मंदन अवधारणा का विपरीत है अर्थात माता-पिता अपने सभी बच्चों में संसाधनों को बराबर बांटते हुए संसाधनों के विलयन के प्रति विमुख होते हैं और उनकी प्रवृत्ति रहती है कि वे अपने संसाधनों को उन बच्चों पर लगाएं, जिनके सफल होने की संभावनाएं अधिक होती हैं। पुरुष प्रधान एवं पितृ पक्षीय समाज में जिस बच्चे के सफल होने की संभावनाएं होती हैं वो बेटा होता है। इस प्रकार ये परिवार बेटियों की अपेक्षा बेटों पर ज्यादा निवेश करने की सोचते हैं, परंतु बेटों की चाहत या बेटियों के प्रति भेदभाव की वजह से नहीं।
- माता-पिता प्रकार 4: ऐसे माता-पिता जिनमें उपर्युक्त में से कोई भी गुण नहीं है। इन माता-पिता में बेटों की चाहत (मेटा एस.पी.), बेटियों के प्रति भेदभाव वाली बात नहीं होती, और बेटों की शिक्षा में अधिक निवेश की कोई वजह नहीं होती।
आंकड़े एवं पद्धति
हम राष्ट्रीय प्रतिरूप सर्वेक्षण (एनएसएस) के चार विशिष्ट शैक्षणिक सर्वेक्षणों से पूल किए गए दोतरफा आंकड़ों की जांच करते हैं : 1986-87 (राउंड 42), 1995-96 (राउंड 52), 2014 (राउंड 71), और 2017-18 (राउंड 75), जिसमें लगभग क्रमश: 77037, 72883, 65926 और 113757 परिवारों को शामिल किया गया। 6 से 19 वर्ष के बीच प्रत्येक बच्चे (परिवार के मुखिया के प्राकृतिक/जैविक बच्चे) के लिए हम शिक्षण की मात्रा हेतु निम्नलिखित परिणामों की जांच करते हैं कि क्या कभी भी बच्चे का नामांकन और शिक्षा के वर्षों की संख्या दर्ज की गई है? विद्यालय की गुणवत्ता के लिए हम कुछ बातों का आकलन करते हैं, जैसे कि क्या बच्चा निजी स्कूल में जाता है, अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में जाता है, शिक्षा पर किए जाने वाले खर्च की मात्रा कितनी है (विद्यालय का शुल्क, निजी ट्यूशन, और अन्य शैक्षणिक उपकरण), और मौजूदा नामांकन की शर्तें।
माता-पिता की प्रेरणा का आकलन करने के लिए हम निम्नवत बच्चों की तुलना करते हैं :
- बेटियों के प्रति भेदभाव का आकलन करने के लिए हम सभी बेटियों वाले परिवार में बेटियों की तुलना सभी बेटों वाले परिवार के बेटों से करते हैं।
- मेटा एस.पी. के आकलन के लिए हम अवांछित बेटियों वाले मिश्रित परिवार में बेटियों की तुलना उनके भाइयों के साथ करते हैं।
- संसाधनों की कमी के आकलन के लिए हम मिश्रित परिवारों (बिना अवांछित बेटियों वाले) की बेटियों की तुलना मिश्रित परिवार के बेटों से करते हैं।
निष्कर्ष
हमने पाया कि 1985-86 और 2018 के बीच कभी भी नामित, वर्तमान में नामित, और शिक्षा के वर्षों की संभावना में – समग्र, और सभी प्रकार के परिवारों में लैंगिक-अंतर पूरी तरह खत्म हो गया है। इसका अभिप्राय है कि बिना उनकी अभिप्रेरणा से किसी संबंध के शिक्षण की मात्रा के संदर्भ में माता-पिता, बेटे और बेटियों के बीच फर्क नहीं करते।
शिक्षा की गुणवत्ता के संदर्भ में, निजी स्कूलों में लैंगिक-अंतर समय के साथ-साथ थोड़ा सा बढ़ा है, जिसमें अधिकतम वृद्धि अवांछित बेटियों वाले परिवारों में हुई है। बेटियों और बेटों में व्यय का अंतर अवांछित बेटियों वाले परिवारों द्वारा किया गया। साथ ही अधिकांश वृद्धि 1995-2018 के दौरान हुई। हमने पाया कि मेटा एस.पी. की गहनता ने ‘अवांछित’ बेटियों के लिए शिक्षण की गुणवत्ता को बुरी तरह से प्रभावित किया है।
विचार-विमर्श
इन मुद्दों की जांच के लिए भारत में आदर्श स्थितियां मौजूद हैं क्योंकि बेटों की चाहत का प्रचलन जन्म के दौरान लिंग अनुपात की विषमता में स्वाभाविक रूप से झलकता है। भारतीय अर्थव्यवस्था, पिछले तीन दशकों से बहुत अधिक संरचनात्मक परिवर्तनों के दौर से गुजर रही है, जैसे कि बढ़ता हुए शहरीकरण, प्रवास, जीविकोपार्जन के स्रोतों में वर्धित विविधता, और पारंपरिक कृषि व्यावसाय से अलगाव की दौड़। बहुत-सी सरकारी योजनाएं इस प्रक्रिया का समर्थन कर रही हैं, जिनका लक्ष्य मूलभूत कानूनों में परिवर्तन सहित छूट एवं अन्य नकदी प्रोत्साहन के माध्यम से बेटियों की अहमियत को बढ़ावा देना है। इसके अतिरिक्त बेटियों को बेटों के बराबर का दर्जा देते ओजपूर्ण मीडिया अभियान भी सरकार द्वारा सक्रिय रूप से चलाए जा रहे हैं।
बेटों की तीव्र इच्छा रखने वाले अन्य राष्ट्र, विशेाषकर चीन एवं उत्तरी कोरिया ने लैंगिक-समानता पर लक्षित, विशिष्ट राजकीय रूप से प्रायोजित हस्तक्षेपों के माध्यम से बच्चों के लिंग अनुपात में सुधार किया है। ऐसे हस्तक्षेप शायद लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में इतनी आसानी से संभव नहीं हैं।
दक्षिण कोरिया का किस्सा भी भारत की तरह ही है, वो यूँ कि उन्होंने भी 1991 से बहुत से संरचनात्मक परिवर्तन देखें हैं। जैसा कि दक्षिण कोरिया में औद्योगिक पूर्व सामाजिक संगठन, तीव्र शहरीकरण की बदौलत तितर-बितर हो गया, जिसकी वजह से महिला शिक्षा एवं श्रम बल प्रतिभागिता दर (एलएफपीआर) में वृद्धि हुई, और कुछ निश्चित आयामों में माता-पिता और बच्चों के बीच संबंध परिवर्तित हुए। पहला, बेटियां भी माता-पिता का सहयोग करने में बेटों के समान ही सक्षम हो गई; तथा दूसरा, वृद्धावस्था में देखभाल बेटे द्वारा की जाएगी या बेटी द्वारा, यह इस बात पर निर्भर है कि माता-पिता के घर के ज्यादा समीप कौन रहता है। इन दोनों ही कारकों से बेटे की चाहत हेतु बुनियादी धारणा में कमी आई (चुंग एवं दास गुप्ता 2007)।
भारत में हम ऐसी व्यवस्था को लागू होते नहीं देख पाते। हमें शिक्षण की गुणवत्ता में बढ़ते लैंगिक-भेदभाव के सबूत साफ-साफ दिखते हैं, जिसका कारण हैं मेटा एस.पी. वाले परिवार। प्रथम दृष्टया, इससे पता चलता है कि पति गृह में निवास और विवाह की करीब-करीब सार्वभौमिकता जैसे मिले-जुले कारणों की वजह से यह उक्ति बनी रही कि ‘बेटियां पराया धन’ अर्थात सच में ‘किसी और की संपत्ति’ होती हैं। परिवार यह सोच सकते हैं कि बेटियों की शिक्षा पर निवेश से उन्हें कोई लाभ नहीं होगा, क्योंकि वह अपने ससुराल चली जाएंगी, जिसे ‘पड़ोसियों के पौधों को पानी देने’ के रूप में उल्लेख किया गया है। इसके साथ-साथ दहेज जमा करने का, अंतर्मन में जमा हुआ और स्थायी दबाव, जो इस बात को फिर से पुख्ता करता है कि बेटियों की बेहतरीन उच्चतर शिक्षा में निवेश, महत्वपूर्ण संसाधनों को बर्बाद करना है।
यह बहुत मुश्किल है: परिवर्तन की बयार
हमारे सरकारी स्कूलों के परिणामों को ध्यान से पढ़ा जाए। बेटियों के शिक्षण हेतु ऐसी बहुत सी सरकारी योजनाएं हैं जो बेटियों के सरकारी स्कूलों में पढ़ने पर लक्षित है। इस प्रकार बेटियों को सरकारी स्कूलों में भेजने का माता-पिता का निर्णय भेदभावपूर्ण होने की बजाय एक तर्कयुक्त निर्णय हो सकता है।
साथ ही राष्ट्रीय गणना के आंकड़ों के आधार पर 2001-2011 के दौरान भारत में सकल जन्म दर (टीएफआर) बहुत तेजी से घटते हुए 3.16 से 2.66 हुई है। 2016 हेतु प्रतिरूप पंजीकरण प्रणाली आंकड़े 2.3 का टीएफआर दर्शाते हैं (जिसमें शहरी इलाकों का 1.8 है)। भारत में बेटों की तीव्र इच्छा वाली मानसिकता में कुछ बदलाव हुए हैं, जैसा कि एसआरबी में आए सुधार में देखा जा सकता है। यह 2004 में अपने उच्चतम 113.6 से 2012 में 110 तक पहुँचा। यह अभी भी 105 के स्वाभाविक औसत से अधिक है, परंतु यह सुधार है जिसे नोट किया जाना चाहिए।
बेटों की चाहत में बदलाव बहुत धीमा और विषम है, परंतु यह दृष्टिगोचर है। गुणात्मक अध्ययन यह दर्शाते हैं कि स्त्रीलिंग-पुल्लिंग की नई सोच का उभरना आरंभ हो गया है - परवाह करने वाली बेटियां और गैर-जिम्मेदार बेटे, विशेषकर विवाह के पश्चात। महिलाओं को उनकी आर्थिक दशा के अनुसार अहमियत देने की साधारण मानसिकता भारत में प्रचलन में नहीं है, क्योंकि महिलाओं के लिए पहले से ही कम एलएफपीआर में और भी गिरावट हुई है।
भारत में वृद्धि, विकास, और संरचनात्मक फेरबदल ने लैंगिक-भेदभाव के स्वाभाविक प्रतिकार के रूप में कार्य नहीं किया। लिंग का चयन एवं बच्चों की शिक्षा में निवेश, उच्चतर गतिशीलता हासिल करने के लिए पारिवारिक योजना का हिस्सा प्रतीत होता है (बासु एवं देसाई 2016, कौर एट एल 2016, कौर एवं वासुदेव 2019)। मेटा एस.पी. नए उच्च वर्ग की उच्चतर गतिशीलता योजना का एक तत्व हो सकता है - छोटे परिवारों का लक्ष्य और बच्चों की सफलता पर ध्यान, तथा कम-से-कम एक (सफल) बेटे की आकांक्षा।
टिप्पणियां:
- पति गृह निवास का संदर्भ ऐसी परंपरा से है जिसमें शादी-शुदा जोड़ा पति के माता-पिता के साथ या उनके पास रहता है।
- उत्तराधिकार में वरीयता ज्येष्ठ पुत्र को दी जाती है।
- लगभग 2 को जन्म देने वाली स्थिति में, एक या दो बच्चों वाले परिवार में ‘अवांछित’ बेटियां होने की संभावना कम है।
- पूल किए गए दो तरफा आंकड़ों में भिन्न-भिन्न समय में व्यक्तियों के दो तरफा यादृच्छिक नमूने शामिल है।
- हम निजी अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों की सामासिक श्रेणी का सृजन भी करते हैं।
लेखक परिचय: अश्विनी देशपांडे अशोका यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं। अपूर्वा गुप्ता दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में अर्थशास्त्र की सहायक प्रोफेसर हैं।
क्या आपको हमारे पोस्ट पसंद आते हैं? नए पोस्टों की सूचना तुरंत प्राप्त करने के लिए हमारे टेलीग्राम (@I4I_Hindi) चैनल से जुड़ें। इसके अलावा हमारे मासिक समाचार पत्र की सदस्यता प्राप्त करने के लिए दायीं ओर दिए गए फॉर्म को भरें।
Comments will be held for moderation. Your contact information will not be made public.