भारत में तेजी से हो रहा शहरीकरण लोगों के व्यवहार के प्रचलित सामाजिक और आर्थिक पैटर्न को इस तरह से बदल रहा है कि विद्वान इसे अभी पूरी तरह से नहीं समझ सके हैं। भारत में तेजी से हो रहा यह शहरीकरण कई महत्वपूर्ण सवालों को उठाता है: देश में सामाजिक दरारें और पदानुक्रम के सन्दर्भ मेंस्थापन पैटर्न के रूपांतरण का क्या मतलब है? क्या कुछ पदानुक्रम प्रवर्धित होंगे, और अन्य क्षीण या रूपांतरित होंगे? विशेष रूप से, शहरीकरण उन सामाजिक मानदंडों और प्रथाओं को कैसे प्रभावित करेगा जो महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक कर्तृत्व को नियंत्रित करते हैं? इस ई-संगोष्ठी के जरिये, उत्तर भारत के चार शहरी समूहों में रहनेवाले 15,000 परिवारों के एक अनूठे सर्वेक्षण के आधार पर इन सवालों के जवाब ढूंढे जायेंगे।
मानव इतिहास में पहली बार, 21वीं सदी के पहले दशक के अंत तक, आधी से अधिक दुनिया शहरी क्षेत्रों में रह रही थी। यह संक्रमण भारत की तुलना में कहीं अधिक स्पष्ट नहीं है, जिसकी शहरी आबादी वर्ष 2020 में लगभग 48.3 करोड़ से बढ़कर वर्ष 2050 में अनुमानतः 87.7 करोड़ होने की उम्मीद है– जो कि अगले तीन दशकों में प्रति माह दस लाख से अधिक (संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग, 2018) होगी। जब कि सब कुछ कहा और किया जा रहा है, वर्ष 2010 और 2050 के बीच लगभग आधा अरब की अनुमानित वृद्धि दुनिया में सबसे बड़ा, अर्थात चीन से भी बड़ा ग्रामीण-से-शहरी रूपांतरण होगा। भारत में हो रहे शहरीकरण के इस विशाल जनसांख्यिकीय परिमाण को देखते हुए, इस बड़े पैमाने पर संरचनात्मक बदलाव के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रभावों को समझना देश के भविष्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है।
चूँकि शहरीकरण के तहत समय के साथ एक आर्थिक और स्थानिक प्रक्रिया के रूप में व्यवहार, संस्कृति और सामाजिक संस्थानों में बदलाव आता है, यह एक सामाजिक प्रक्रिया भी है। शहरीकरण में परिवार, सामाजिक संबंधों का स्वरूप और उनकी घनिष्टता, कार्य के प्रकार और व्यवसायों की विविधता, और व्यक्तिगत स्वायत्तता जैसी प्रमुख सामाजिक व्यवस्थाओं को बदलने की शक्ति है। शहर सामाजिक परिवर्तन के वे स्थल हैं जो ग्रामीण समुदायों के सामाजिक स्तरीकरण को बाधित करके सामाजिक गतिशीलता की संभावनाएं बढाते हैं (कपूर 2017)। हम इनका उल्लेख 'सामाजिक परिवर्तन' के रूप में करते हैं, जिनके जरिये सामाजिक ढांचे को नियंत्रित करने वाले प्रचलित नियम अंतर्जात और बहिर्जात परिवर्तनों के चलते पुनर्परिभाषा या पुनर्निमाण की प्रक्रिया से गुजरते हैं।
इस ई-संगोष्ठी के माध्यम से, हमारा उद्देश्य 21वीं सदी के भारत में लैंगिक, शहरीकरण और सामाजिक परिवर्तन के बीच के परस्पर-संबंधों का एक समग्र मूल्यांकन प्रदान करना है। अर्बनाईजेशन जर्नल के एक नए विशेष अंक में प्रकाशित लेख पेनीसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर द एडवांस्ड स्टडी ऑफ इंडिया (CASI) द्वारा जनवरी-अगस्त 2019 के दौरान किए गए एक सर्वेक्षण के आंकड़ों पर आधारित निष्कर्षों पर प्रकाश डालते हैं। इस सर्वेक्षण नमूने में उत्तर भारत के चार शहरी समूहों: धनबाद (झारखंड), इंदौर (मध्य प्रदेश), पटना (बिहार), और वाराणसी (उत्तर प्रदेश) के लगभग 15,000 यादृच्छिक रूप में चुने गए नमूने वाले परिवार शामिल हैं। शहरी क्लस्टर की हमारी परिभाषा में मुख्य शहर, इसके आसपास के छोटे शहरी क्षेत्र और साथ ही शहर पर आर्थिक रूप से निर्भर वे गाँव भी शामिल हैं जो शहर की सीमा से एकदम सटे हुए हैं। अतः इस विश्लेषण में, ग्रामीण-शहरी स्पेक्ट्रम में फैली आबादी के प्रकारों में भिन्नता को समझा गया है।
इस ई-संगोष्ठी के लेख भारत की कम (और, कुछ उपायों के अनुसार, घटती) महिला श्रम-शक्ति भागीदारी (फ्लेचेर एवं अन्य 2017, देशपांडे और सिंह 2021) संबंधी चिंता को व्यक्त करते हैं, साथ ही, वे उस बड़े पारिस्थितिकी तंत्र पर भी ध्यान केंद्रित करते हैं जिसके अधीन श्रम बाजार चलता है। इतना ही नहीं, ये लेख, श्रम बाजार, सामाजिक दृष्टिकोण, सशक्तिकरण और व्यक्तिगत एजेंसी, और मीडिया एक्सपोजर से सम्बद्ध लैंगिक आधार पर विभाजित नए डेटा1 को भी उजागर करते हैं।
हम शुरू में उन कारकों की जांच करते हैं जो महिलाओं को घर के बाहर रोजगार दिलाते हैं। हम एक सर्वेक्षण प्रयोग के परिणामों की चर्चा करते हैं जो एक उपयुक्त नौकरी मिलने की संभावना, आय पर नकारात्मक आघात, और परिवार को अतिरिक्त सहायता करने के उद्देश्य से श्रम-बल में प्रवेश करने की इच्छा के सापेक्ष प्रभाव को स्पष्ट करने हेतु डिज़ाइन किया गया है (चटर्जी और सरकार 2021)।
फिर हम दो प्रमुख आयामों के साथ महिलाओं के कर्तृत्व का पता लगाते हैं– परिवार में उनकी स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता, और घर से बाहर यात्रा करने की क्षमता। हम महिलाओं की पारिवारिक निर्णयों में सार्थक रूप से भाग लेने की क्षमता और उनकी श्रम-शक्ति भागीदारी (मैक्सवेल और वैष्णव 2021) के बीच के संबंध का अध्ययन करते हैं। फिर हम, महिलाओं के परिवार के भीतर के कर्तृत्व के बजाय उनके बाहर के कर्तृत्व में उनकी गतिशीलता की जांच दो आयामों के जरिये करने हेतु अपना ध्यान केंद्रित करते हैं: (ए) वे जो घर से बाहर जा सकती हैं (और किन गंतव्यों के लिए); और (बी) जिन्हें घर से बाहर जाने के लिए अनुमति (और किससे) की आवश्यकता होती है (मेहता और साई 2021)।
हम यह अध्ययन करके निष्कर्ष निकालते हैं कि सामाजिक और राजनीतिक वरीयता और दृष्टिकोण को किस प्रकार से सामाजिक असमानताएं, स्थानीय संदर्भ और संचार माध्यमों का उपयोग आकार दे रहे हैं। उदाहरण के लिए, उम्र, शिक्षा के अंतर और विजातीय विवाह से संबंधित चयनित वैवाहिक पदानुक्रम, महिलाओं के काम के बारे में दोनों जीवन-साथियों के विचारों को कैसे प्रभावित करते हैं (करिया और मेहता 2021)? और महिलाओं की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए मीडिया और सूचना के प्रदर्शन के क्या निहितार्थ हैं (बद्रीनाथन एवं अन्य 2021)?
आने वाले वर्षों में, शहरीकरण और सामाजिक परिवर्तन के बीच के संबंध एक-रेखीय होने की संभावना नहीं है। राज्य और समाज बढ़ती चुनौतियों- जिनमें से कई तो स्वयं ही लादी गई हैं, का सामना कैसे करते हैं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि सामाजिक असमानताओं को किस हद तक कम किया जाता है या प्रबल किया जाता है। इस ई-संगोष्ठी से हमें उम्मीद है कि उत्तर भारत के एक महत्वपूर्ण क्षेत्र में होने वाले शहरीकरण, सामाजिक परिवर्तन और लैंगिक सशक्तिकरण के बीच परस्पर-क्रिया के बारे में हमारी सामूहिक समझ में योगदान दिया जा सकेगा।
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टिप्पणियाँ:
- रमन (2020) देखें, इस चर्चा के लिए कि भारत में लैंगिक आधार पर विभाजित नए डेटा की कमी नीति-निर्माण के प्रयासों में कैसे बाधा डालती है।
लेखक परिचय: देवेश कपूर दक्षिण एशियाई अध्ययन के स्टार फाउंडेशन प्रोफेसर और जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ एडवांस्ड इंटरनेशनल स्टडीज (एसएआईएस) में एशिया कार्यक्रमों के निदेशक हैं। नीलांजन सरकार सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं। मिलन वैष्णव वाशिंगटन, डीसी में कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस में दक्षिण एशिया कार्यक्रम के सीनियर फेलो और निदेशक हैं।
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