केंद्र ने मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के लिए वित्त पोषण हेतु अतिरिक्त राशि के रूप में रुपये 25,000 करोड़ की मांग की है। अश्विनी कुलकर्णी ने आधिकारिक आंकड़ों का उपयोग करते हुए सरल गणना के आधार पर यह तर्क दिया है कि वास्तविक निधि की आवश्यकता वास्तव में इससे बहुत अधिक है। चूँकि महामारी ग्रामीण आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है, सरकार को मांग आधारित काम की गारंटी का भुगतान करने के लिए मनरेगा को पर्याप्त धन आवंटित करना चाहिए।
राष्ट्रीय और स्थानीय मीडिया एक महीने से अधिक समय से मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम)1 में निधि की कमी के मुद्दे पर ध्यान आकर्षित कर रहा है। इस उद्देश्य के लिए राज्यों के पास पर्याप्त धन नहीं होने की वजह से मनरेगा कार्य से संबंधित कई भुगतान लंबित पड़े हैं। केंद्र सरकार ने निधि की कमी से निपटने के लिए मनरेगा के लिए बजटीय राशि के साथ अतिरिक्त 10,000 करोड़ रुपये की राशि आवंटित की। हाल की रिपोर्टों ने यह भी संकेत दिया है कि केंद्र द्वारा अतिरिक्त 25,000 करोड़ रुपये की मांग अनुपूरक बजट के हिस्से के रूप में की जा रही है।
इस लेख में, मेरा तर्क है कि मांग की गई अतिरिक्त निधि की राशि तदर्थ है, और मनरेगा वेबसाइट में दी गई आधिकारिक आंकड़ों के आधार पर सरल अंकगणित से पता चलता है कि वित्त वर्ष 2021-22 के लिए आवश्यक न्यूनतम अतिरिक्त धनराशि वास्तव में कहीं अधिक है।
मनरेगा व्यय: निधि की आवश्यकता का अनुमान
मनरेगा पर 3 दिसंबर 2021 तक किया गया कुल व्यय2 रु.78,057.78 करोड़ है और केंद्र ने इसके लिए अब तक रु.69,799.35 करोड़ जारी किये हैं। इसलिए, अब तक का खर्च, 2021-22 के केंद्रीय बजट में किए गए आवंटन को पहले ही पार कर चुका है।
अब तक के खर्च को देखते हुए शेष वित्तीय वर्ष के लिए क्या आवश्यकताएं हो सकती हैं? इसके लिए मैं निम्नानुसार कुछ अनुमान प्रस्तुत कर रही हूं। मैं आवश्यक संभावित निधि पर तीन संकेतकों के आधार पर विचार करती हूं, आने वाले महीनों में मनरेगा के अंतर्गत काम चाहने वाले परिवारों की संख्या, प्रति परिवार व्यक्ति-दिनों की औसत संख्या, और वित्तीय वर्ष 2021-22 के पिछले चार महीने में उच्च व्यक्ति-दिवस की मांग की संभावना।
पिछले चार वर्षों (वित्तीय वर्ष 2017-18 से वित्तीय वर्ष 2020-21) में मनरेगा के काम में भाग लेने वाले प्रति परिवार औसत व्यक्ति-दिवस, प्रति वर्ष 46 से 52 व्यक्ति-दिवस और इन चार वर्षों में प्रति परिवार औसत व्यक्ति-दिवस प्रति वर्ष 48 दिन रहा है। वित्तीय वर्ष 2021-22 में, 6.25 करोड़ परिवारों ने औसतन 40 दिनों का मनरेगा काम पूरा किया है। यदि इन्हीं परिवारों को 48 दिनों के परिकलित वार्षिक औसत को प्राप्त करना था, तो केवल उनकी मजदूरी के भुगतान में ही अतिरिक्त रु.10,450 करोड़ की आवश्यकता होती, जिसमें प्रति व्यक्ति प्रति दिन3 औसतन मजदूरी के रूप में रु. 209 का भुगतान किया गया होता।
हालांकि, आने वाले महीनों में मनरेगा कार्य में भाग लेने वाले परिवारों की संख्या में वृद्धि होने की संभावना है। पिछले चार वर्षों में, एक वर्ष में भाग लेने वाले परिवारों की संख्या सबसे अधिक 7.55 करोड़ थी। इस अधिकतम संख्या और वित्तीय वर्ष 2021-22 (1.3 करोड़ परिवार) में अब तक मनरेगा में भाग लेने वाले परिवारों के बीच के अंतर और उपरोक्त अनुमानों को ध्यान में रखते हुए, मजदूरी के रूप में भुगतान हेतु आवश्यक अतिरिक्त राशि रु13,041 करोड़ होगी।
वर्तमान वित्तीय वर्ष के समाप्त होने में अभी तीन महीने बाकी हैं। पिछले वर्षों में, इन चार महीनों के दौरान वर्ष के कुल व्यक्ति-दिवस का 40% उत्पन्न हुआ है क्योंकि इन दिनों में कृषि कार्य की उपलब्धता कम रहती है। वर्तमान वित्तीय वर्ष में (नवंबर के अंत तक) कुल 246.88 करोड़ व्यक्ति-दिवसों का पहले ही हिसाब हो चुका है, और यदि आने वाले महीनों में वर्ष में कुल कार्य का 40% (पिछले वर्षों के रुझानों के आधार पर) इन आंकड़ों में जोड़ा जाना हो तो फिर मजदूरी के भुगतान के लिए निधि के रूप में अतिरिक्त रु34,398 करोड़ की आवश्यकता होगी।
उपरोक्त गणना पिछले वर्षों के डेटा का उपयोग करते हुए एक साधारण बहिर्वेशन अभ्यास पर आधारित है, और गणना की गई राशि केवल अकुशल श्रमिकों को मजदूरी भुगतान हेतु है | 100 दिनों के काम की वादा की गई गारंटी, सामग्री लागत आदि सहित अन्य लागतों का यहां विचार नहीं किया गया है। ये सरल गणना स्पष्ट रूप से निधि आवंटन को बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता को दर्शाती है।
महामारी का प्रभाव
वित्तीय वर्ष 2020-21 में, लॉकडाउन से पहले मनरेगा पर परिव्यय रु 60,000 करोड़ था, जो बढ़कर रु 100,000 करोड़ हो गया, लेकिन आवंटित निधि अभी भी अपर्याप्त है। जबकि पिछले साल का कुल व्यय रु. 111,443.87 करोड़ था।
इसके अलावा, इस वित्तीय वर्ष में निधि की आवश्यकताएं पिछले औसत से काफी अधिक होने की संभावना है क्योंकि यह ‘असाधारण’ समय है। कोविड-19 महामारी और इससे संबंधित आर्थिक मंदी ने गहरा असर डाला है, और आजीविका पर इसका प्रतिकूल प्रभाव अभी भी जारी है। शहरी क्षेत्रों में होने वाला निर्माण कार्य, जिसमें अधिकांश आकस्मिक प्रवासी श्रमिक शामिल होते हैं, महामारी के कारण काफी धीमा हो गया है। लॉकडाउन के बाद की अवधि में सड़कों और अन्य बुनियादी ढांचा परियोजनाओं जैसे सार्वजनिक कार्यों ने गति नहीं पकड़ी है, और कारखाने भी अपनी पिछली क्षमताओं पर नहीं लौटे हैं। इससे शहरी क्षेत्रों में कमाई के अवसर कम हो गए हैं, और परिणामस्वरूप कई प्रवासी श्रमिक अपने गांवों में लौट आए हैं और रोजगार के किसी अन्य प्रकार की तलाश कर रहे हैं, जिसके चलते मनरेगा के काम की मांग बढ़ रही है।
प्यू रिसर्च सेंटर ने विश्व बैंक के आंकड़ों का उपयोग करते हुए अनुमान लगाया है कि महामारी से प्रेरित मंदी के कारण भारत में गरीबों की संख्या4 केवल एक वर्ष में दुगुनी होकर 6 करोड़ से 13.4 करोड़ हो गई है। इसका मतलब है कि 45 वर्षों के बाद, भारत एक बार फिर से "सामूहिक गरीबी का देश" बन गया है।
हाल के शोध के अनुसार, आकस्मिक और दैनिक वेतन-भोगी मजदूरों की मासिक आय में 13% (अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, 2021) की कमी आई है ।
एक अन्य सर्वेक्षण5 में 11 राज्यों में 11,766 ग्रामीण परिवारों में से लगभग 40% ने कहा कि उन्होंने भोजन- विशेष रूप से अंडे, दूध, मछली, सब्जियां, और तेल जैसे खाद्य पदार्थ (कोविड -19 के लिए रैपिड कम्युनिटी रिस्पॉन्स, 2021) की खपत में कटौती की है। जिन खाद्य पदार्थों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के माध्यम से उपलब्ध नहीं कराया जाता था उन्हें बाजार से खरीदना पड़ता था, ऐसे में कमाई में कमी के कारण उन्हें नहीं खरीदा जा रहा था। इसी अध्ययन में परिवारों द्वारा ऋण और गिरवी रखने में वृद्धि करने की और इसके चलते उनकी भविष्य की अल्प आय को भी ऋण के पुनर्भुगतान हेतु रखने की बात सामने आई।
उपर्युक्त अध्ययन और कई अन्य अध्ययन एक ऐसी निराशाजनक स्थिति की ओर इशारा करते हैं जिसमें आने वाले समय में जल्द ही किसी सुधार की संभावना नहीं है। इसलिए, अधिक से अधिक ग्रामीण परिवार मनरेगा के तहत काम की तलाश करेंगे। चार साल पहले, 11,789 ग्राम-पंचायतों ने मनरेगा पर कोई खर्च नहीं दिखाया; यह संख्या अब घटकर 6,291 हो गई है। इसका तात्पर्य यह है कि मनरेगा के काम की माँग नहीं कर रहे अधिकांश गाँव भी अब ऐसा कर रहे हैं क्योंकि यह उनके लिए कमाने और जीवित रहने का अंतिम उपाय है। इसलिए, जैसा कि ऊपर दी गई सरल गणनाओं से संकेत मिलता है, मनरेगा हेतु भुगतान के लिए अतिरिक्त निधि की आवश्यकता है। यदि महामारी के कारण हुई उच्च बेरोजगारी की निराशाजनक स्थिति को समझा गया, तो परिवारों से काम की उच्चतर मांग का अनुमान लगाना और उसके लिए आवश्यक तैयारी करना संभव हो सकेगा।
मांग आधारित काम की गारंटी का भुगतान करना
केंद्र सरकार यदि इस वर्ष की विकट स्थिति को नहीं समझती है और आवंटित निधि को कम से कम पिछले वर्षों के खर्च के बराबर नहीं बढ़ाती है, तो परिणाम स्पष्ट है। राज्य सरकारें और उनके कार्यान्वयन अधिकारी मनरेगा कार्य प्रदान करने वाली कोई भी नई परियोजना शुरू करने से बचकर अपनी मांग को दबाना शुरू कर देंगे। मजदूरी भुगतान के लिए धन का कोई आश्वासन नहीं होने के कारण काम उपलब्ध कराने की कठिन स्थिति से बचने का यह उनका एकमात्र तरीका होगा। लेकिन फिर, महामारी से प्रेरित लॉकडाउन और उसके चलते आजीविका पर हुए परिणामों का खामियाजा भुगत रही ग्रामीण आबादी ऐसे समय में अपना जीवनयापन कैसे करेगी?
केंद्र सरकार को यह याद दिलाने की जरूरत है कि मनरेगा एक अधिनियम है- यह 100 दिनों के लिए मांग आधारित काम की गारंटी देता है और ऐसे अभूतपूर्व समय में यह गारंटीकृत काम के आधे दिनों का भी प्रबंधन करने में असमर्थ है। क्या केंद्र इस अधिनियम की डिमांड गारंटी को पूरा करेगा?
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टिप्पणियाँ:
- मनरेगा एक ऐसे ग्रामीण परिवार को एक वर्ष में 100 दिनों के मजदूरी-रोजगार की गारंटी प्रदान करता है, जिसके वयस्क सदस्य निर्धारित न्यूनतम मजदूरी पर अकुशल शारीरिक कार्य करने के इच्छुक हैं।
- यहां उल्लिखित मनरेगा संबंधी सभी डेटा 3 दिसंबर 2021 को आधिकारिक वेबसाइट से प्राप्त किया गया है।
- यह मनरेगा कार्य के लिए वित्तीय वर्ष-2021-22 हेतु निर्धारित प्रति व्यक्ति प्रति दिन औसत मजदूरी दर है।
- जिनकी क्रय शक्ति समतुल्यता में प्रति दिन की आय 2 अमेरिकी डॉलर या उससे कम है, उन्हें इस अध्ययन में गरीब माना गया है।
- यह सर्वेक्षण दिसंबर 2020 में 43 नागरिक समाज संगठनों द्वारा किया गया था, जो आरसीआरसी (रैपिड कम्युनिटी रिस्पांस टू कोविड-19) गठबंधन के सदस्य थे।
लेखक परिचय: अश्विनी कुलकर्णी नासिक स्थित सिविल सोसाइटी संगठन प्रगति अभियान से संबंधित हैं।
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