ज्यां द्रेज़ के ड्यूएट प्रस्ताव पर टिप्पणी करते हुए रक्षिता स्वामी और अमित बसोले ने इसकी सरल डिजाइन को इसकी ताकत के रूप में उजागर किया है और अधिक व्यापक दृष्टिकोण का प्रस्ताव दिया है। इस प्रस्ताव में अनौपचारिक श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा भी शामिल है।
हाल के हफ्तों में कई मीडिया लेखों ने उल्लेख किया है कि भारत सरकार कोविड-19 से प्रभावित लाखों शहरी श्रमिकों को बुनियादी आय सुरक्षा प्रदान करने के एक साधन के रूप में एक शहरी रोजगार गारंटी ’की शुरुआत करने की ओर देख रही है। यह स्वागत-योग्य समाचार है। अब तक कई रिपोर्टों और सर्वेक्षणों से पता चला है कि शहरी अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिक महामारी के दौरान सबसे ज्यादा प्रभावित हुए थे। शहरी अनौपचारिक श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा की सापेक्ष कमजोरी तालाबंदी और उसके बाद तेज गति से उजागर हुई है।
हालांकि मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) जो बहु-चर्चित रही और जिसके बारे में व्यापक अभियान चलाए गए थे, और जो अकाल-राहत कार्यों के साथ-साथ महाराष्ट्र की रोजगार गारंटी योजना को लागू करने के दशकों के अनुभव पर आधारित थी, उसके विपरीत हाल तक शहरी रोजगार गारंटी पर भरोसा करने लायक ऐसी कोई मिसाल नहीं थी।
यह अब बदल रहा है। कई राज्यों ने पहले से ही महामारी से उबरने के लिए शहरी रोजगार कार्यक्रम शुरू किए हैं। ओडिशा के ‘शहरी वेतन रोजगार पहल (यूडब्लूईआई)’ और हिमाचल प्रदेश की ‘मुख्यमंत्री शहरी आजीविका गारंटी योजना’ के अलावा नवीनतम झारखंड की ‘मुख्यमंत्री श्रमिक योजना’ शामिल है। हालांकि इन योजनाओं के प्रभाव के बारे में कुछ भी कहना कहना बहुत जल्दबाजी होगी। केरल की ‘अय्यनकाली शहरी रोजगार गारंटी योजना’ कुछ साल पहले से चल रही है और भविष्य में यह अनुकरणीय बन सकती है। हालांकि सभी राज्य स्तरीय योजनाएं, जब भी उन्हें नौकरी की गारंटी के रूप में प्रस्तुत किया गया है (जैसे कि हिमाचल प्रदेश, झारखंड और केरल में), उनके लिए बजटीय आवंटन काफी सीमित रहे हैं और इसलिए इनके सही गारंटी होने की संभावना कम है। पिछले साल राष्ट्रीय शहरी रोजगार गारंटी कार्यक्रम के लिए एक संभावित संरचना का भी सुझाव दिया गया है।
यह बहस जीन ड्रेज़ के एक ‘विकेंद्रीकृत शहरी रोजगार और प्रशिक्षण ’(ड्यूएट) के प्रस्ताव से समृद्ध हुई है। जीन का प्रस्ताव, जैसा कि इसमें कहा गया है, एक विस्तारित सार्वजनिक कार्य योजना है जो शहरी आकस्मिक-श्रम बाजार में सुस्ती को कम करने के लिए है, और जिससे आमदनी बढ़ती है तथा संभावित रूप से निजी मजदूरी दर भी बढ़ जाती है। दूसरा उद्देश्य स्थानीय सार्वजनिक बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता में सुधार करना है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि जीन इसे शहरी रोजगार गारंटी की दिशा में पहला कदम मान रहे हैं।
ड्यूएट की ताकत इसके सरल डिजाइन में है। इसके कार्यान्वयन से पहले इसमें आवश्यक न्यूनतम अतिरिक्त प्रशासनिक व्यवस्था कर इसकी क्षमता को विकसित किया जा सकता है। इसकी एक अन्य मुख्य विशेषता शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) के बजाय कई स्थानीय नियोजन एजेंसियों का उपयोग किया जाना है, क्योंकि स्थानीय निकाय आवश्यक मात्रा में रोजगार उत्पन्न करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। साथ ही प्लेसमेंट एजेंसियों के रूप में कार्यकर्ता सहकारी समितियों की भूमिका भी एक विश्वसनीय कल्पना हो सकती है। यह शहरी क्षेत्रों में श्रम ठेकेदारों के वर्चस्व को कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। श्रमिकों का समूह बनाने और काम करने के लिए श्रमिकों को पंजीकृत करने और उनका उपयोग करने की सुविधा के लिए उन्हें सक्षम बनाने के लिए वे सामूहिक गतिशीलता का एक आयाम जोड़ सकते हैं जो इस योजना के तहत श्रमिकों की बातचीत करने की शक्ति को बढ़ा सकते हैं।
कुछ पहलू जो आगे विचार करने लायक होंगे, वे इस प्रकार हैं। सबसे पहले - गैर-श्रम लागत का सवाल। ड्यूएट में मजदूरी प्रदान करने के लिए नौकरी के वाउचर का प्रावधान है, लेकिन स्थानीय सार्वजनिक संस्थानों की संसाधन और अन्य लागतों को पूरा करने में सक्षम नहीं होने की पर्याप्त संभावना है। ड्यूएट में गैर-श्रम लागतों के लिए समर्पित बजटों को शामिल करने की आवश्यकता है, या वित्तीय बाधाएं इसे प्रथमतः शुरू होने से रोक सकती हैं।
दूसरा, ग्रामीण-शहरी प्रवासन का बेचैन करनेवाला प्रश्न। कल्याण के दृष्टिकोण से ड्यूएट के लिए और एक संभावित शहरी रोजगार गारंटी के लिए हम सोचते हैं कि शहरी क्षेत्रों में रहने वाले सभी श्रमिकों को इस कार्यक्रम में भाग लेने का अधिकार होना चाहिए। चूंकि कई सबसे कमजोर शहरी कर्मचारी जो ड्यूएट से लाभ उठा सकते हैं, जिनके प्रवासी होने की संभावना है या जिनका स्थायी पता नहीं है, उनके लिए अधिवास या निवास प्रमाण अनिवार्य नहीं होना चाहिए। बल्कि स्वीकार्य दस्तावेजों की लंबी सूची तैयार की जा सकती है, जैसा कि राज्य-स्तरीय आवास योजनाओं में किया गया है। इसके अलावा जिन श्रमिकों के नाम मनरेगा जॉब कार्ड पर दिखाई देते हैं, उन्हें योजना से बाहर नहीं किया जाना चाहिए। यह सवाल है कि प्रवासन पर बड़े प्रभावों से बचने के लिए कार्यक्रम वेतन कहाँ पर निर्धारित किया जाना चाहिए, इस पर अधिक शोध की आवश्यकता है।
तीसरा, कार्यक्रम के तहत श्रमिकों को बुनियादी अधिकारों - जैसे कि महिलाओं और पुरुषों के लिए समान मजदूरी, काम करने की सुविधाएं, दुर्घटनाओं/चोटों के लिए मुआवजे, मजदूरी भुगतान में देरी के लिए मुआवजा, योजना के कार्यान्वयन से संबंधित जानकारी का अनिवार्य प्रकटीकरण प्रदान करना चाहिए और सामाजिक अंकेक्षण का प्रावधान भी होना चाहिए।
अंत में, लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) की भूमिका के बारे में सोचने की जरूरत है। प्रत्येक राज्य में सार्वजनिक संस्थानों में मरम्मत और रखरखाव पीडब्ल्यूडी का प्रशासनिक अधिकार क्षेत्र है। पीडब्ल्यूडी द्वारा उत्पन्न रोजगार की तुलना में ड्यूएट यह कैसे सुनिश्चित करेगा कि यह उस समय सबसे अधिक जरूरत का काम प्रदान कर रहा है? यह कुछ तरीकों से किया जा सकता है। सबसे पहले काम के आवंटन का निर्णय लेने में श्रम ठेकेदारों के प्रभावी एकाधिकार को कम करके। दूसरे, सार्वजनिक संस्थानों में किए जाने वाले कार्यों की प्रकृति का विस्तार करके। अनुज्ञेय कार्य को निर्माण से परे होना चाहिए और जिसमें संस्थानों में रहने वाले निवासियों के लिए देखभाल करने वाली जिम्मेदारियां, संस्थानों के भीतर सर्वेक्षण और निगरानी कार्यों की आवश्यकता, इन संस्थानों के भीतर तैनात अधिकारियों को सहायता करना, सौंदर्यीकरण और मूल्य-सृजन आधारित कार्यों को बढ़ावा देना आदि शामिल होना चाहिए। पारंपरिक रूप से बीमार पीडब्ल्यूडी द्वारा किए गए कामों की तुलना में प्रत्येक संस्था के भीतर काम के लिए अनुबंध ड्यूएट के तहत किए गए कार्यों की प्रभावशीलता और विश्वसनीयता को बढ़ाएगा।
शहरी रोजगार की गारंटी से परे जाकर अनिवार्य रूप से एक ‘सार्वजनिक-कार्य’ कार्यक्रम के रूप में, कोई और अधिक व्यापक दृष्टिकोण के रूप में एक ऐसे कानून के बारे में सोच सकता है - जो न केवल सार्वजनिक कार्यों के माध्यम से रोजगार प्रदान करता हो, बल्कि स्व-नियोजित/अनौपचारिक रूप से काम कर रहे उन श्रमिकों को न्यूनतम सामाजिक-सुरक्षा नेट तक उनकी पहुँच सुनिश्चित करके सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान करता हो। बाद में एक अवधारणा है जिसकी विशेष रूप से यूनियनों और श्रमिक सामूहिकों द्वारा जोरदार वकालत की गई है। विशेष रूप से उस अनिश्चितता के आलोक में जिसे भारतीय संसद द्वारा सितंबर 2020 में लागू किए गए श्रम संहिता में श्रमिकों को शामिल किया गया है। विभिन्न हितधारकों के साथ हमारे परामर्श के आधार पर हमने हाल ही में भारत सरकार को इन सिफारिशों को का उल्लेख करते हुए एक पत्र लिखा है।
प्रत्येक दृष्टिकोण के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर एक औपचारिक, समावेशी और भागीदारीपूर्ण सार्वजनिक संवाद शहरी श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अत्यंत जरूरी हस्तक्षेप को लाभप्रद बना सकता है। यह अच्छा है कि वास्तविक नीति और नीतिगत बहस दोनों अनौपचारिक श्रमिकों के लिए शहरी रोजगार ने रडार पर ले आए हैं। अब यही समय है।
लेखक परिचय: अमित बसोले अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ लिबरल स्टडीज में अर्थशास्त्र के आसोसिएट प्रोफेसर हैं। रक्षिता स्वामी सोश्ल अकाउंटिबिलिटी फोरम फॉर एक्शन एंड रिसर्च (सफर) का नेतृत्व करती हैं।
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