सामाजिक पहचान

लिंग-आधारित हिंसा की रिपोर्टिंग : सार्वजनिक सक्रियता और संवाद क्यों महत्वपूर्ण हैं

  • Blog Post Date 28 नवंबर, 2024
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कोलकाता के एक अस्पताल में ड्यूटी पर तैनात एक महिला डॉक्टर के साथ हुए क्रूरतापूर्वक बलात्कार और हत्या के हालिया मामले के कारण देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए और इसने एक बार फिर भारत में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर गम्भीर सवाल और चिन्ताएँ खड़ी कर दी। इस लेख में, वर्ष 2012 में दिल्ली में हुई ‘निर्भया’ घटना और उसके परिणामस्वरूप हुए सामाजिक आन्दोलन के प्रभाव की जाँच करते हुए पाया गया कि इस घटना के बाद लिंग-आधारित हिंसा की रिपोर्टिंग में 27% की वृद्धि हुई थी।

लिंग-आधारित हिंसा जेंडर बेस्ड वायलेंस (जीबीवी) की घटनाएं चिन्ताजनक रूप से बहुत ज़्यादा और व्यापक हैं। हर तीन में से एक महिला ने अपने जीवनकाल में किसी न किसी रूप में हिंसा का अनुभव किया है (डेवरीस एवं अन्य 2013)। साथ ही, लिंग-आधारित हिंसा के मामले व्यापक रूप से कम रिपोर्ट किए जाते हैं। पाया गया कि जिन महिलाओं ने कभी हिंसा का अनुभव किया है, उनमें से केवल 7% ने पुलिस, स्वास्थ्य प्रणाली या सामाजिक सेवाओं जैसे औपचारिक स्रोत को इसकी सूचना दी है- भारत में यह संख्या 1% से भी कम है (पलेर्मो एवं अन्य 2014)। इस तरह की बहुत कम रिपोर्टिंग हानिकारक हो सकती है और इसके चलते न केवल लिंग-आधारित हिंसा के वास्तविक परिमाण के बारे में हमारी जानकारी सीमित हो जाती है, बल्कि इससे आपराधिक रोकथाम भी कमज़ोर हो जाता है और ऐसे अपराध की घटनाएं बढ़ती जाती हैं।

हिंसा की रिपोर्ट करने के लिए पीड़ित की इच्छा कई सामाजिक और संरचनात्मक बाधाओं के चलते कम हो सकती है, जिनमें सामाजिक कलंक और शर्म, औपचारिक संस्थाओं के प्रति अविश्वास, अपराधी द्वारा प्रतिशोध का डर, जागरूकता व रेफरल सेवाओं तक पहुँच की कमी और सांस्कृतिक परिवेश में हिंसा के प्रति उच्च सहिष्णुता (गार्सिया-मोरेनो एवं अन्य 2005, किशोर और जॉनसन 2005) शामिल हैं। मैंने अपने हालिया शोध (सहाय 2021) में, यह जाँच की है कि क्या सार्वजनिक सक्रियता में वृद्धि और लिंग-आधारित हिंसा पर अधिक संवाद इन बाधाओं में से एक या अधिक को दूर कर सकता है तथा भारतीय सन्दर्भ में इन घटनाओं की रिपोर्टिंग को प्रोत्साहित कर सकता है।

दिल्ली में निर्भया घटना पर विरोध प्रदर्शन

मैं इस प्रश्न की जाँच दिसंबर 2012 में दिल्ली में चलती बस में हुई एक क्रूर सामूहिक बलात्कार की घटना की पृष्ठभूमि में करती हूँ। यह एक अत्यंत जघन्य घटना थी। इसकी व्यापक निंदा हुई और इसने जीबीवी के खिलाफ एक बड़े सामाजिक आन्दोलन की शुरुआत को चिह्नित किया, जिसे “द इंडियन स्प्रिंग” के रूप में भी संदर्भित किया गया। पीड़िता के लिए न्याय की मांग करते हुए तथा लिंग-आधारित हिंसा की धारणा और व्यापक रूप से उससे निपटने के तरीके में संरचनात्मक परिवर्तन की मांग करते हुए पूरे देश में अभूतपूर्व पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए।

इस तरह सार्वजनिक आक्रोश के बढ़ने से कई कानूनी और पुलिस सुधारों, जैसे कि बलात्कार के लिए सख्त सज़ा, पीछा करने और घूरने जैसे लिंग-आधारित हिंसा के अन्य कृत्यों की पहचान, लिंग-आधारित हिंसा के मामलों के निवारण के लिए फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना, रात्रि गश्त बढ़ाकर सार्वजनिक स्थानों पर पुलिस की मज़बूत निगरानी व्यवस्था, सार्वजनिक बसों में जीपीएस उपकरण लगाना और रात्रि बसों में होमगार्ड की तैनाती का मार्ग भी प्रशस्त हुआ, जिसकी अनुशंसा भारत सरकार द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति ने की थी।

मैं इस घटना और उससे जुड़े विरोध प्रदर्शनों के बाद बलात्कार, यौन उत्पीड़न, महिला अपहरण, महिलाओं की शील का अपमान, घरेलू हिंसा और दहेज हत्याओं1 जैसे लिंग-आधारित हिंसा संबंधी मामलों की रिपोर्टिंग पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्याँकन करती हूँ। प्रभाव की पहचान करने के लिए, मैंने भारत भर के उन जिलों, जो इस घटना और उसके बाद के प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील थे और जो कम संवेदनशील थे, के बीच तुलना की।

हम जोखिम को किस प्रकार से परिभाषित करते हैं और मापते हैं? इस विश्लेषण में, जोखिम को सामाजिक-आर्थिक निकटता या घटना से लोगों के जुड़ाव के रूप में परिभाषित किया गया है। अनिवार्य रूप से, यह विचार प्रयोग सहानुभूति की अवधारणा पर आधारित है- जब लोग किसी घटना से खुद को जोड़ कर देखते हैं या उसमें शामिल लोगों अपनी पहचान के अंश पाते हैं तो उनके उस घटना से प्रभावित होने की संभावना अधिक होती है।

भारत की जनगणना (2011) के डेटा का उपयोग करके बेसलाइन पर दर्ज किए गए जिला-विशिष्ट संकेतकों की एक सरणी का उपयोग करके जोखिम (एक्सपोजर) को मापा गया है। जोखिम (एक्सपोजर) मीट्रिक में तीन प्रमुख तत्व शामिल हैं जो प्रकार हैं- (i) मीडिया कवरेज (जो घटना और संबंधित विरोधों के बारे में जानकारी तक पहुँच को समाहित करती है, जिसे दैनिक समाचार पत्र, टेलीविजन, फोन, इंटरनेट और रेडियो के जिला-विशिष्ट कवरेज द्वारा मापा जाता है), (ii) जनसांख्यिकीय कारक (जो पीड़िता और उसके परिवार के साथ समानता/जुड़ाव को दर्शाता है, जिसे जिला-विशिष्ट महिला साक्षरता दर, शहरी आबादी का अनुपात, युवाओं का अनुपात और धार्मिक संरचना द्वारा मापा जाता है) और (iii) सार्वजनिक परिवहन कवरेज (जिसमें घटना की परिस्थितियों और स्थान के साथ जुड़ाव को देखा जाता है, जिसे सार्वजनिक बसों के जिला-विशिष्ट कवरेज द्वारा मापा गया है)। बेसलाइन पर मापे गए ये दस जिला-विशिष्ट संकेतक ‘एक्सपोजर इंडेक्स’ बनाते हैं, जिसके मान 0 से 1 के बीच के हैं जहाँ 1 उच्चतम एक्सपोजर को दर्शाता है।

लिंग-आधारित हिंसा की रिपोर्टिंग में तेज़ वृद्धि

मैंने पाया कि जहाँ सबसे अधिक प्रभाव देखा गया, उनमें प्रभावित जिलों की तुलना में घटना के बाद रिपोर्ट की गई लिंग-आधारित हिंसा (जीबीवी) में तेज़ वृद्धि हुई (नीचे आकृति-1 में 2013 के बाद सकारात्मक और सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण अनुमानों द्वारा दर्शाया गया है)। मैंने यह भी पाया कि घटना होने से पहले अधिक और कम प्रभावित जिलों के बीच रिपोर्ट की गई लिंग-आधारित हिंसा की प्रवृत्ति में कोई व्यवस्थित अन्तर नहीं था (ध्यान दें कि बिंदु अनुमान 2012 से पहले शून्य से सांख्यिकीय रूप से भिन्न नहीं हैं), जिससे पहचान की रणनीति को विश्वसनीयता मिलती है।

आकृति-1. लिंग-आधारित हिंसा की रिपोर्ट की गई दर

टिप्पणियाँ : i) प्राथमिक परिणाम लिंग-आधारित हिंसा (जीबीवी) की रिपोर्ट की गई दर है, जिसे प्रति 1,00,000 महिला जनसंख्या पर जीबीवी के रिपोर्ट किए गए मामलों की संख्या के रूप में परिभाषित किया गया है। ii) आंकड़े में प्रत्येक बिंदु अनुमान उच्च और निम्न जोखिम वाले जिलों के बीच लिंग-आधारित हिंसा (जीबीवी) की रिपोर्ट की गई दर में अन्तर को दर्शाता है। iii) धराशायी रेखा उस वर्ष को दर्शाती है जिसमें निर्भया कांड हुआ था।

सरसरी निगाह से देखने पर ये परिणाम कुछ हद तक आश्चर्यजनक लगते हैं- हिंसा को कम करने के उपायों के बावजूद लिंग-आधारित हिंसा (जीबीवी) में वृद्धि क्यों हुई? मैं अतिरिक्त सबूत प्रदान करती हूँ जो यह दर्शाता है कि अनुमानित प्रभाव को घटना में वृद्धि के बजाय रिपोर्टिंग में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। मैं इसकी औपचारिक जाँच करने के लिए, दिल्ली पुलिस द्वारा प्रकाशित 3,00,000 से अधिक आधिकारिक अपराध रिपोर्टों से जानकारी को खोजकर और उसे ‘पार्स’ करके एक नया उच्च-आवृत्ति, घटना-स्तरीय डेटासेट संकलित करती हूँ। इस डेटासेट की बारीकियों और समृद्धि से मैं रिपोर्टिंग में देरी या रिपोर्टिंग पूर्वाग्रह के प्रॉक्सी का एक माप तय कर पाती हूँ। रिपोर्टिंग में देरी अपराध होने की तारीख और रिपोर्ट किए जाने की तारीख के बीच के दिनों की संख्या को मापती है। पुलिस अधिकारियों के साथ गुणात्मक साक्षात्कार और परामर्श के आधार पर, 72 घंटे की कटऑफ समय-सीमा तय की गई (यानी, जो मामले घटना के कम से कम तीन दिन बाद रिपोर्ट किए गए थे, उन्हें देरी से रिपोर्टिंग माना गया)। डेटा से पता चलता है कि औसतन, जीबीवी के मामले 370 दिनों की देरी से रिपोर्ट किए जाते हैं। उल्लेखनीय रूप से, मुझे घटना के बाद रिपोर्टिंग में देरी में एक माप योग्य गिरावट मिली- देरी से रिपोर्ट किए गए मामलों का अनुपात 15% कम हो गया और देरी की मात्रा (दिनों की संख्या) 35% कम हो गई। इन परिणामों से पता चलता है कि जीबीवी के खिलाफ सार्वजनिक सक्रियता में वृद्धि ने महिलाओं को हिंसा के अपने अनुभवों का खुलासा करने और अपराधों की रिपोर्ट करने के लिए प्रोत्साहित किया होगा- यह वैश्विक #मीटू आन्दोलन के निहितार्थ के समान प्रभाव है। फिर भी, मैं इन निष्कर्षों की वैकल्पिक व्याख्याओं का पता लगाती हूँ, जैसे कि छद्म रिपोर्टिंग में वृद्धि, पुलिस द्वारा अपराध रिकॉर्डिंग में वृद्धि और ऊपर वर्णित तंत्र के समर्थन में सबसे प्रमुख सबूत पाती हूँ। अर्थात, पीड़ितों द्वारा रिपोर्टिंग में वृद्धि।

नीति तथा अनुसंधान के लिए निहितार्थ

मेरा शोध यह दर्शाता है कि सार्वजनिक सक्रियता और लिंग-आधारित हिंसा (जीबीवी) के बारे में अधिक संवाद मामलों की रिपोर्टिंग को प्रोत्साहित कर सकता है। यह दर्शाता है कि सामाजिक आन्दोलन जीबीवी से जुड़े कलंक को प्रभावित कर सकते हैं और संभवतः यौन हिंसा के बारे में जानकारी को सार्वजनिक करने के साथ-साथ, जागरूकता बढ़ाकर इसे दूर भी कर सकते हैं। इस तरह का 'नीचे से ऊपर का दृष्टिकोण' वर्तमान वैश्विक सन्दर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक है, जिसमें मीटू, नी ऊना मेनोस, ब्लैक लाइव्स मैटर और हाल ही में रीक्लेम द नाइट जैसे आन्दोलनों ने प्रमुखता प्राप्त की है और नीतिगत संवादों को तेज़ी से आकार दे रहे हैं। ये परिणाम यह भी संकेत देते हैं कि संस्थागत और विधायी सुधारों के अलावा, समुदायों के बीच सामाजिक सक्रियता का लाभ उठाकर, अपराधों की रिपोर्ट करने के लिए पीड़ित की अंतर्निहित इच्छा को प्रभावित किया जा सकता है तथा प्रकटीकरण मानदंडों में सुधार किया जा सकता है।

टिप्पणी :

  1. दहेज हत्या तब होती है जब युवा महिलाओं की उनके परिवारों से अधिक दहेज वसूलने के प्रयास में पति और/या ससुराल वालों द्वारा लगातार उत्पीड़न और यातना से हत्या हो जाती है या उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर किया जाता है। 

अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।

लेखक परिचय : अभिलाषा सहाय विश्व बैंक के जेंडर ग्रुप में अर्थशास्त्री हैं, जहाँ वे किशोरियों के सशक्तिकरण और महिलाओं के आर्थिक समावेशन पर विषयगत नेता के रूप में कार्य करती हैं। वह अफ्रीका के लिए लैंगिक क्षेत्रीय संपर्क अधिकारी के रूप में भी कार्य करती हैं। प्रशिक्षण से विकास अर्थशास्त्री, अभिलाषा की शोध रुचि लिंग, अपराध और घरेलू अर्थशास्त्र के प्रतिच्छेदन पर है। 

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