मानवाधिकार वे अधिकार हैं जो किसी भी व्यक्ति को जन्म के साथ ही मिल जाते हैं। सरल शब्दों में इसका अर्थ है किसी भी व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, समानता और प्रतिष्ठा का अधिकार। 10 दिसंबर को हर साल मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन लोगों को मूल अधिकार देने की घोषणा की गई थी। हम भारत में व्याप्त अंतर-जातीय तनाव और भेदभाव को सबसे अच्छे तरीके से कैसे माप सकते हैं? मानवाधिकार दिवस के सन्दर्भ में प्रस्तुत विकटॉयख़ जिरार्ड के इस लेख में, वर्ष 1989 में जाति-आधारित भेदभाव से निपटने के लिए लागू हुए अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत संकलित आँकड़ों का उपयोग करने की सीमाओं पर चर्चा की गई है। जिरार्ड दर्शाती हैं कि निचली जातियों की हत्याओं की रिपोर्ट या यहाँ तक कि घरेलू सर्वेक्षणों में अस्पृश्यता के बारे में औसत प्रतिक्रियाएं, राज्यों में अंतर-समूह तनावों के अधिक सुसंगत संकेत प्रदान करती हैं।
भारत सरकार ने जाति-आधारित भेदभाव से निपटने के लिए अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 (पीओए अधिनियम) लागू किया। यह अधिनियम जाति-आधारित प्रथाओं की निरंतरता से संबंधित अपराधों पर ध्यान केंद्रित करता है, जिन्हें आज गैरकानूनी माना जाता है और निचली जातियों के सदस्यों को जानबूझकर अपमानित करना दंडनीय माना जाता है। पीओए अधिनियम में दंड संहिता के नियमों की तुलना में अधिक कठोर सज़ा का प्रावधान है तथा यह सज़ा प्रतीकात्मक रूप से संवेदनशील कई मुद्दों के लिए दी जाती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई उच्च जाति का सदस्य अनुसूचित जाति/जनजाति (एससी/एसटी)1 के सदस्य को पानी के स्रोत तक पहुँच से वंचित करता है।
परिणामस्वरूप, पीओए अधिनियम के तहत दर्ज मामलों की संख्या में वृद्धि को अक्सर जाति-आधारित भेदभाव और तनाव के नकारात्मक संकेत के रूप में देखा जाता है। उदाहरण के लिए, केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री ने, तेलंगाना सरकार को राज्य गठन के बाद, अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के तहत दर्ज मामलों की अत्यधिक संख्या पर आगाह किया था और कहा था कि कई बड़े राज्यों की तुलना में राज्य में मामलों की संख्या बहुत अधिक है।
चूंकि पीओए अधिनियम के मामले कम से कम तीन पक्षों के आपसी व्यवहार पर निर्भर करते हैं, बढ़े हुए तनाव हमेशा उच्च मामलों में परिवर्तित नहीं हो सकते हैं। पीओए अधिनियम के तहत मामला दर्ज करना न केवल अत्याचार के किए जाने पर निर्भर करता है, बल्कि पीड़ितों की रिपोर्ट करने की इच्छा और पुलिस की इस अत्याचार को दर्ज करने की इच्छा पर भी निर्भर करता है, जैसा कि अय्यर एवं अन्य (2012) ने विशेष रूप से महिलाओं को लक्ष्य करके किए गए अपराधों के सम्बन्ध में दर्शाया है। जाति-आधारित भेदभाव पीओए अधिनियम के तहत मामलों की रिकॉर्डिंग को रोक सकता है। उदाहरण के लिए, पुलिस अधिकारियों द्वारा भेदभावपूर्ण व्यवहार अपराधों की रिकॉर्डिंग को सक्रिय रूप से रोकने का रूप ले सकता है, या तनाव का प्रकोप पीड़ितों को अपने साथ हुए अपराधों की रिपोर्ट करने की कोशिश करने से रोक सकता है (देसवाल 2013, कुमार 2015, मिंज 2018)।
जाति-आधारित तनाव के विभिन्न मापों से प्राप्त निष्कर्षों की तुलना
जिरार्ड (2020) के डेटा पर आधारित इस लेख में, जाति-आधारित पदानुक्रमों के स्थायित्व से संबंधित तनावों के तीन अलग-अलग संभावित मापों की तुलना की गई है : (i) जाति-आधारित हत्याएं,2 (ii) पीओए अधिनियम के तहत अपराध और (iii) अस्पृश्यता के बारे में की गईं सर्वे घोषणाएँ।3
मैं अनुसूचित जातियों की हत्याओं की गणना अनुसूचित जातियों के सदस्यों पर की जाने वाली हिंसा के स्तर के मानक के रूप में करती हूँ। अनेजा और रितधी (2020), ब्रोस और कॉउटेनियर (2015), जिरार्ड (2020) और अय्यर एवं अन्य (2012) में इस्तेमाल किया गया यह दृष्टिकोण इस विचार पर आधारित है कि हत्या एक ऐसा अपराध है जहाँ रिपोर्टिंग करने संबंधी पूर्वाग्रह सबसे कम है और ऐसा इसलिए है कि उसमें शव को छिपाना मुश्किल होता है।
आकृति-1 में पुलिस द्वारा दर्ज किए गए मामलों का दृश्य प्रतिनिधित्व, जाति-आधारित भेदभाव के उपाय के रूप में पीओए अधिनियम मामलों के उपयोग की उपयुक्तता पर संदेह पैदा करता है। पीओए अधिनियम के मामलों में कोई स्पष्ट पैटर्न नहीं दिखता, यहाँ तक कि हिंदी भाषी क्षेत्रों4 में भी नहीं। इसके विपरीत, हिंदी भाषी राज्यों में हत्या के रिकॉर्ड सबसे अधिक हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान में पीओए अधिनियम के तहत अपेक्षाकृत कम मामले दर्ज हैं, जबकि यह उन राज्यों में से एक है जहाँ अनुसूचित जातियों के प्रति 1,00,000 सदस्यों पर हत्याओं की दर सबसे अधिक है।
आकृति-1. अनुसूचित जातियों की हत्याएं और पीओए के तहत अपराध, 2012
हम पुलिस द्वारा दर्ज किए गए अत्याचार और हत्या के मामलों की जांच परिवारों के सर्वेक्षण के आधार पर भी कर सकते हैं कि क्या वे अस्पृश्यता को मानते आ रहे हैं या उन्होंने इसका सामना किया है। इन सर्वेक्षण प्रश्नों के उत्तरों को समझना कठिन हो सकता है, क्योंकि इनमें सीधे तौर पर एक ऐसी प्रथा के बारे में पूछा गया है जो आधी सदी से भी अधिक समय से संविधान-विरोधी रही है। हमें इस बात की चिंता हो सकती है कि संवेदनशील विषयों पर ऐसे सीधे सवाल-जवाब सामाजिक वांछनीयता का पूर्वाग्रह पैदा करते हैं और परिणामी डेटा ज़मीनी हकीकत को अच्छी तरह से प्रतिबिंबित नहीं करते हैं।
पीओए अधिनियम के मामलों के विपरीत, अस्पृश्यता के बारे में किये गए पारिवारिक सर्वेक्षण में प्राप्त प्रतिक्रियाओं का राज्यवार औसत निकालने पर, जाति-आधारित हत्याओं के पैटर्न के साथ आश्चर्यजनक रूप से सुसंगत पैटर्न मिलता है। आकृति-2 दर्शाती है कि अस्पृश्यता प्रथाएँ विशेष रूप से हिंदी भाषी राज्यों में व्यापक हैं और अन्य जगहों पर कम हैं। आकृति में गैर-एससी/एसटी परिवारों के हिस्से के बीच एक दृश्य सह-सम्बन्ध को दर्शाया है जिन्होंने यह बताया कि वे अस्पृश्यता को मानते हैं और एससी परिवारों के हिस्से ने घोषणा की है कि वे अस्पृश्यता से पीड़ित हैं।
आकृति-2. राज्यों में व्याप्त अस्पृश्यता प्रथा और इसके पीड़ित
टिप्पणी : यह आँकड़ा गैर-एससी/एसटी परिवारों का प्रतिशत दर्शाता है जिन्होंने अस्पृश्यता को मानने के बारे में सूचित किया और एससी परिवारों का प्रतिशत जिन्होंने अस्पृश्यता के शिकार होने की सूचना दी।
पारिवारिक प्रतिक्रियाओं में सामाजिक वांछनीयता संबंधी पूर्वाग्रह के बारे में चिंताओं के अलावा, हत्याएं जाति-आधारित भेदभाव को अपनाने का एक विशेष रूप से चरम तरीका है और यह अस्पृश्यता की दैनिक प्रथा से कहीं अधिक चरम है। इस प्रकार हम उम्मीद कर सकते हैं कि दोनों व्यवहारों में मौलिक रूप से अलग-अलग पैटर्न हैं। फिर भी, हत्याओं और घरेलू सर्वेक्षण मापों में एक मज़बूत क्रॉस-सेक्शनल सह-सम्बन्ध दिखाई देता है।
आकृति-1 और 2 में दृश्य सह-संबंधों के सांख्यिकीय परीक्षण के लिए, तालिका-1 स्पीयरमैन रैंक सहसम्बन्ध मैट्रिक्स5 प्रदर्शित करती है। हत्या के मामले या तो अस्पृश्यता को बढ़ावा देने या अस्पृश्यता प्रथाओं से पीड़ित होने की परिवारों की घोषणा के साथ सकारात्मक रूप से सहसंबंधित हैं। इसके विपरीत, पीओए अधिनियम के तहत मामले हत्या के मामलों या परिवारों की घोषणाओं के साथ महत्वपूर्ण रूप से सह-संबंधित नहीं हैं।
तालिका-1. पुलिस में दर्ज मामलों और पारिवारिक सर्वेक्षण में प्राप्त प्रतिक्रियाओं के बीच सह-सम्बन्ध
एससी सदस्यों की हत्याएं |
पीओए अधिनियम के तहत अपराध |
अस्पृश्यता को मानना (व्यवहार) |
अस्पृश्यता का सामना करना |
|
अनुसूचित जाति के सदस्यों की हत्या |
1 |
|||
पीओए अधिनियम के तहत अपराध |
-0.042 |
1 |
||
अस्पृश्यता को मानना (व्यवहार) |
0.369 |
0.0009 |
1 |
|
अस्पृश्यता का सामना करना |
0.484 |
0.131 |
0.698 |
1 |
(i) तालिका स्पीयरमैन रैंक सह-सम्बन्ध मैट्रिक्स प्रदर्शित करती है।
(ii) वर्ष 2012 में राज्य स्तर पर प्रति 1,00,000 एससी सदस्यों पर हत्याओं की संख्या एससी के उन सदस्यों की हिस्सेदारी के साथ 48.4 का सहसम्बन्ध प्रदर्शित करती है, जिन्होंने अस्पृश्यता प्रथाओं का सामना करने की घोषणा की है और यह सह-सम्बन्ध मानक 5% सीमा पर सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण है। 5% का महत्व स्तर यह निष्कर्ष निकालने के 5% जोखिम को इंगित करता है कि यदि शून्य परिकल्पना सत्य थी, तो सम्बन्ध की मज़बूती संयोग से हुई है।
(iii) अस्पृश्यता को मानने (व्यवहार) और अस्पृश्यता का सामना करने के बीच सह-सम्बन्ध 1% सीमा पर महत्वपूर्ण है।
मुख्य निष्कर्ष
उपर्युक्त तुलनाओं का सेट तीन महत्वपूर्ण तथ्यों को इंगित करता है :
(i) हत्या के मामलों और सर्वेक्षण घोषणाओं से लगातार राज्यों में अंतर-जातीय तनावों में भिन्नताएं सामने आती हैं, जबकि पीओए अधिनियम के तहत मामलों में ऐसा नहीं होता है।
(ii) पीओए अधिनियम के बाद दर्ज किए गए अपराधों के आँकड़ों की व्याख्या बहुत सावधानी से की जानी चाहिए। यदि एक चरम उदाहरण लिया जाए तो ये मामले एक स्थान पर समान स्तर पर हो सकते हैं, जहाँ अत्यधिक प्रचलित भेदभावपूर्ण प्रथाओं के बारे में पुलिस को लगभग कोई रिपोर्ट नहीं की जाती है और दूसरे स्थान पर जहाँ भेदभावपूर्ण प्रथाओं के कुछ मामलों की व्यवस्थित रिपोर्टिंग होती है।
(iii) अस्पृश्यता प्रथा और पीड़ित होने के दो सर्वेक्षण मापों के राज्य-स्तरीय औसत अस्पृश्यता प्रथाओं की व्यापकता पर नई रोशनी डालते हैं।
टिप्पणियां :
- पूरी सूची के लिए शर्मा (2015) देखें।
- महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत सरकार के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो अनुसूचित जाति की हत्याओं का वार्षिक रिकॉर्ड रखता है, जो केवल तभी दर्ज किया जाता है जब (i) पीड़ित अनुसूचित जाति से हो और (ii) अपराधी उच्च जाति से हो। अन्यथा, हत्या सामान्य अपराध श्रेणी में दर्ज की जाती है। एससी हत्याओं की अक्सर लक्षित जाति-आधारित हिंसा के संकेत के रूप में व्याख्या की जाती है और वास्तव में उनका पनपना अन्य हत्याओं के बढ़ने का अनुसरण नहीं है (जिरार्ड 2020)।
- हत्याएं और पीओए के तहत आँकड़े पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) पर आधारित हैं। एससी आबादी के आकार के कारण पैमाने के प्रभावों को ध्यान में रखने के लिए 1,00,000 एससी सदस्यों के डेटा को फिर से मापा गया है। सर्वेक्षण घोषणाएं भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण 2011-2012 (देसाई एवं अन्य 2015) से ली गई हैं। अगर कोई परिवार इन दो सवालों में से किसी एक का जवाब ‘हां’ में देता है, तो अस्पृश्यता प्रथा 1 के बराबर है : "क्या आप अस्पृश्यता का व्यवहार करते हैं?" या "क्या आपको अपने रसोईघर में किसी अछूत के आने से कोई आपत्ति है?"। फिर मैं गैर-एससी/एसटी परिवारों द्वारा अपनाई जाने वाली अस्पृश्यता प्रथा पर प्रतिक्रियाओं का राज्यवार औसत निकालती हूँ। अगर कोई एससी परिवार इस सवाल का जवाब हां में देता है, "क्या घर के कुछ सदस्यों ने अस्पृश्यता का अनुभव किया है?" तो अस्पृश्यता पीड़ित 1 के बराबर है। फिर मैं गैर-एससी/एसटी परिवारों द्वारा अपनाई जानेवाली अस्पृश्यता प्रथा पर प्रतिक्रियाओं का राज्यवार औसत निकालती हूँ।
- इसमें वर्ष 1992 में भारत के 17 बड़े राज्य शामिल हैं। ये राज्य हैं आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल। अय्यर एवं अन्य (2012) की तरह, मैं समय के साथ तुलनीय इकाइयों को बनाए रखने के लिए राज्य के आँकड़ों के विश्लेषण के दौरान राज्यों की सीमाओं की 1992 की परिभाषा का उपयोग करती हूँ। इसलिए सभी अनुभवजन्य विश्लेषण और दृश्य अभ्यावेदन (दृश्य अभ्यावेदन के लिए उपयोग की गई मानआकृति भारत की 2019 की राजनीतिक सीमाओं को दर्शाती है) के लिए मैं 2001 या उसके बाद बनाए गए तीन नए राज्यों में किए गए अपराधों के लिए उन राज्यों के लिए जिम्मेदार ठहराती हूँ जिनके अंतर्गत ये राज्य पहले शामिल थे। मैं आंध्र प्रदेश और तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश, जम्मू और कश्मीर और लद्दाख, झारखंड और बिहार और उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के आँकड़ों को मिलाती हूँ।
- इस दृष्टिकोण के कारण हम छोटी संख्या में अवलोकनों को ध्यान में रख पाते हैं। मानक पियर्सन सह-सम्बन्ध मैट्रिक्स समान निष्कर्ष देता है (जिरार्ड 2020 में दर्शाया है)।
(मूल शोध को विस्तार से पढ़ने के लिए- Stabbed in the back? Mandated political representation and murders | Social Choice and Welfare)
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : विकटॉयख़ जिरार्ड नोवाफ़्रिका के स्कूल ऑफ बिजनेस एंड इकोनॉमिक्स में एक रेजिडेंट शोधकर्ता हैं, ओरलियंस यूनिवर्सिटी के लेबोरेटोयेख़ डी इकोनॉमी डी'ऑरलियन्स में एक शोध सहयोगी हैं और बीआरजीएम तथा पेरिस-1 पैंथियन-सोरबोन यूनिवर्सिटी में एक लेक्चरर हैं। उनकी शोध रुचि विकास अर्थशास्त्र और राजनीतिक अर्थव्यवस्था में है।
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