कोविड-19 महामारी और इस रोग के प्रसार को रोकने के लिए अपनाए गए रोकथाम उपायों ने भारत के साथ-साथ दुनिया के बाकी हिस्सों में अभूतपूर्व आर्थिक संकट पैदा कर दिया है। इसके अलावा, भारत एक बड़े मानवीय संकट का भी सामना कर रहा है, जिसे इस समय बड़े पैमाने पर हो रहे विपरीत पलायन के रूप में देखा जा सकता है। सरकार को आर्थिक क्षति को कम करने के लिए बनाई गई नीतियों को लागू करने और सबसे कमजोर वर्ग के लोगों की पीड़ा को कम करने की तत्काल आवश्यकता है। डॉ. प्रणव सेन ने पांच भागों के श्रृंखलाबद्ध लेख में वर्तमान स्थिति की संक्षिप्त समीक्षा की है और इस बात पर विचार-विमर्श किया है कि क्या किया जाना चाहिए, और भविष्य में हमारी क्या स्थिति हो सकती है।
श्रृंखला के पहले भाग में, डॉ. सेन ने पिछले दो प्रमुख आर्थिक झटकों, अर्थात 2008 में वैश्विक वित्तीय संकट और 2016-17 में नोटबंदी एवं जीएसटी, के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन पर चर्चा की है और वर्तमान संकट के लिए सबक की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
इस तथ्य पर आम सहमति है कि सार्स-कोव-2 (जो कोविड-19 का कारण बनता है) ने दुनिया के हर देश की तरह भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी कहर बरपाया है। हालांकि यह एक हद तक सच है, वास्तविक तथ्य यह है कि आर्थिक क्षति का संबंध महामारी के साथ बहुत कम है, यह मुख्य रूप से इस महामारी के प्रसार के वक्र को सपाट करने के लिए विभिन्न सरकारों द्वारा अपनाई गई नीतिगत प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप है। इस प्रकार यह मानना तर्कसंगत होगा कि रोकथाम के उपाय जितने सख्त होकर और लंबे चलेंगे, आर्थिक नुकसान उतना ही अधिक होगा।
अब यहां एक रोचक तथ्य है - जबकि हर कोई इस बात से सहमत है कि भारत ने दुनिया में सबसे व्यापक और सख्ती लॉकडाउन को लागू किया है1, 2020-21 में आर्थिक विकास के लिए लगभग सभी अनुमानों में भारत को दुनिया में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले देशों में शामिल किया गया है। ये अनुमान विभिन्न संस्थानों जैसे विश्व बैंक, आईएमएफ (अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष), रेटिंग एजेंसियों, निवेश बैंकों आदि द्वारा लगाए गए हैं। मोटे तौर पर उम्मीद है कि भारत दुनिया के लिए अनुमानित -3% या उससे अधिक के मुकाबले धनात्मक (यद्यपि छोटी) वृद्धि दर्ज करेगा। और भी अधिक रोचक बात यह है कि जहां हर दूसरे देश ने आर्थिक व्यवधान को दूर करने के लिए बड़े सरकारी हस्तक्षेपों की घोषणा की है, वहीं भारत सरकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है।
ऐसा कैसे संभव है? क्या भारत में एक अंतर्निहित लचीलापन है जो इसे गंभीर असफलताओं से दृढ़ता पूर्वक उबारने में सक्षम बनाता है? या क्या यह माना जाए कि भारत सरकार के पास दूसरों की तुलना में इतनी दूरदर्शिता व क्षमता है और वह सही समय पर सही कदम उठाएगी? ये ज्वलंत प्रश्न हैं, जो उत्तर मांगते हैं।
दूसरी ओर, हर कोई इस बात से भी सहमत है कि भारत एक बड़े संकट का सामना कर रहा है जिसे इस समय बड़े पैमाने पर हो रहे विपरीत पलायन के रूप में देखा जा सकता है। यदि लाखों में नहीं तो हजारों की संख्या में प्रवासी श्रमिक अक्सर अपने परिवारों के साथ, अपने गाँवों की ओर जाते हुए देखे जा सकते हैं चाहे इसके लिए उन्हें सैकड़ों किलोमीटर पैदल ही क्यों न चलना पड़े और ये दृश्य बड़े दिल दहलाने वाले हैं। 1965-66 के अकाल के बाद से देश में इस तरह के दृश्य नहीं देखे गए, उस समय भी ऐसे लोगों की संख्या इतनी अधिक नहीं थी। केंद्र सरकार का इस बारे में बिल्कुल ढुलमुल रवैया रहा है और वह एक ओर लोगों को जहां हैं वहीं पर बने रहने के लिए कह रही है वहीं दूसरी ओर उन्हें घर वापस भेजने के लिए गाडि़यां भी उपलब्ध करा रही है (निसंदेह भुगतान आधार पर)। निश्चित रूप से इतने बड़े पैमाने पर पैदा हुए मानवीय संकट को हल करने के लिए इसके अनुरूप ही प्रतिक्रिया आवश्यक है; लेकिन कितनी, और कब तक?
नतीजतन, जब तक सरकार नुकसान की सीमा को कम करने के लिए बनाए गए नीतिगत उपायों को साथ-साथ लागू नहीं करती है तब तक बहुत अधिक आर्थिक क्षति हो जाने की संभावना है। किसी सार्थक नीतिगत उपाय के बिना पहले ही काफी समय बीत चुका है और काफी नुकसान भी हो चुका है। इस विश्लेषण का उद्देश्य वर्तमान स्थिति की संक्षिप्त समीक्षा करना है और इस बात पर विचार करना है कि क्या किया जाना चाहिए, और भविष्य में हमारी क्या स्थिति हो सकती है।
गहन अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि भारत के लचीलेपन के बारे में आशा का मुख्य कारण है - पिछले दो बड़े आर्थिक आघातों अर्थात वैश्विक वित्तीय संकट (2008) और नोटबंदी एवं जीएसटी (2016-17) के दौरान देश का प्रदर्शन। दोनों ही मामलों में देश की स्थिति तेजी से उबरी; और, नोटबंदी के मामले में, आधिकारिक राष्ट्रीय आय के अनुमानों के अनुसार, आरंभ में बिल्कुल नुकसान नहीं हुआ था, लेकिन यह भ्रम मात्र था। हालाँकि, परिस्थितियाँ तब बहुत अलग थीं, और यह महत्वपूर्ण है कि हम परिणामों का विरोध करने के बजाय उनसे सही सबक लें।
वैश्विक वित्तीय संकट
जहां तक वित्तीय संकट का सवाल है, जिसने वैश्विक वित्तीय प्रणाली को अपने घुटनों पर ला दिया था, इससे भारत मुख्य रूप से इसलिए बच गया था क्योंकि हमारी वित्तीय प्रणाली विशेषत: वैश्विक वित्तीय प्रणाली के साथ जुड़ी हुई नहीं थी। उस समय, भारतीय अर्थव्यवस्था एक विस्तारित उछाल के शिखर पर थी, जो मजबूत निर्यात वृद्धि और घरेलू मांग में उछाल, दोनों से प्रेरित थी। मूल रूप से प्रमुख झटका व्यापार के माध्यम से लगा था, जहां हमारा निर्यात ध्वस्त हो गया था और इसमें 2009-10 में लगभग -15% की नकारात्मक वृद्धि दर्ज की गई। यह एक विशुद्ध मांग झटका था। चूंकि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में निर्यात का हिस्सा लगभग 21% है। यह वर्ष के लिए सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 3% मांग में कमी में परिवर्तित हो गया। इसे एक ओर कर दिया जाए, इस कमी ने गुणक के माध्यम से काम किया होगा और यह जीडीपी वृद्धि दर में 9 प्रतिशत अंक की कमी का कारण बनी होगी, जो 2009-10 के लिए शून्य वृद्धि दर के रूप में सर्वश्रेष्ठ रही थी और जो अगले वर्ष में बढ़ कर लगभग 4.5% हुई।
2009-10 में वृद्धि दर 4.6% थी, जो 2010-11 में लगभग 10% बढ़ गई। पर, ऐसा अपने आप नहीं हुआ था। भारत सरकार 2009-10 में सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 3% के बराबर का राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज ले कर आई, जो निर्यात संकुचन के मांग-अवनमन प्रभाव के बराबर था। भारत सरकार की ओर से दूरदर्शिता? पूरी तरह से नहीं। इस प्रोत्साहन का एक बड़ा हिस्सा वास्तव में 2009 के आम चुनावों के राजनीतिक निर्मिति के हिस्से के रूप में संकट से पहले आया था, लेकिन सौभाग्य से सरकार ने इसे आगे बढ़ाया और इसे सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए उत्पाद शुल्क में कटौती की।
इस अनुभव से तीन सबक मिलती है:
- बाह्य रूप से उत्पन्न एक बड़े मांग झटके के लिए समान रूप से बड़ी राजकोषीय नीतिगत प्रतिक्रिया की आवश्यकता होती है।
- राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज तंत्र के माध्यम से काम करने में समय लेता है। नीति को क्रियान्वित करने के लिए सरकारी तंत्र द्वारा आवश्यक सामान्य तैयारी संबंधी कार्यों को देखते हुए, किसी भी खर्च को वास्तव में किए जाने से पहले 4 से 5 महीने का समय लग सकता है। इस प्रकार, इस तरह के प्रोत्साहन हमेशा उनके प्रभाव के संदर्भ में समय लेने वाले होते हैं।2
- गरीबों को दी जाने वाली प्रत्यक्ष आय सहायता का कृषि कीमतों पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है और उत्पादन पर अपेक्षाकृत कम गुणक प्रभाव पड़ता है क्योंकि प्रारंभिक व्यय का 70% व्यय भोजन पर होता है जोकि एक आपूर्ति-निरुद्ध क्षेत्र है।3
नोटबंदी एवं जीएसटी
नोटबंदी प्रकरण पूरी तरह से एक अलग प्रकार का घटनाक्रम था। 2008 की तरह, 2016 में, अर्थव्यवस्था व्यापार चक्र के उत्थान पर थी तथा मांग और आपूर्ति दोनों मिलकर मजबूती से बढ़ रहे थे। नोटबंदी ने मांग या आपूर्ति को सीधे प्रभावित नहीं किया - एक तथ्य जो वर्तमान साहित्य में बहुत कम मान्यता रखता है। यह लेन-देन के लिए एक झटका था। इस प्रकार, आर्थिक प्रणाली पर इसका प्रभाव काफी हद तक उस मात्रा तक निर्भर करता है, जिस मात्रा तक अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र नकद लेनदेन पर निर्भर थे।
स्वाभाविक रूप से, कृषि सहित अनौपचारिक सूक्ष्म-उद्यमों के क्षेत्र, व्यावहारिक रूप से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए क्योंकि उनके सभी लेन-देन, चाहे वे मूल उद्योग के आनुषंगिक उद्यमों को हों या आनुषंगिक उद्यमों के मूल उद्यमों से हों, दोनों नकदी आधारित थे। कृषि क्षेत्र विशेष रूप से दिलचस्प था क्योंकि कृषि-बाजारों में व्यापारियों के पास अपनी सामान्य खरीद करने के लिए नकदी नहीं थी।4 नतीजतन, किसानों को उस झटके का सामना करना पड़ा जो अनिवार्य रूप से मांग संबंधी था, और कीमतें एकदम गिर गईं। इसके विपरीत, कॉरपोरेट क्षेत्र पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि इसके लगभग सभी लेन-देन गैर-नकदी रूप में थे।
लघु और मध्यम उद्यमों (एसएमई) की स्थिति इन दोनों के बीच में थी क्योंकि उनके लेन-देन नकदी और गैर-नकदी दोनों प्रकार के थे, जो इस पर निर्भर थे कि वे किसके साथ लेन-देन कर रहे थे। हालाँकि, जैसे ही ये इकाइयां नोटबंदी के झटके से उबरने लगीं थी, वे जीएसटी के कुछ हद तक खराब तरीके से आरंभ किए जाने से प्रभावित हुईं। ये इकाइयाँ इस कर की बहुत कठिन मानकों वाली शर्तों को पूरा करने की स्थिति में नहीं थीं, जिसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में और गिरावट आई।
विडंबना यह है कि कॉर्पोरेट क्षेत्र (और कुछ एस.एम.ई.) को वास्तव में इससे लाभ हुआ क्योंकि बड़ी संख्या में अंतिम उपभोक्ताओं ने अपनी खरीददारी के कुछ हिस्से को अनौपचारिक खुदरा प्रणाली से औपचारिक में स्थानांतरित कर दिया, जहां भुगतान नकदी के बिना भी किए जा सकते थे।5 यह कॉर्पोरेट्स और कुछ एसएमई के लिए धनात्मक मांग झटका था और शेष के लिए ऋणात्मक मांग झटका।
इस सब में, सरकार कहीं नहीं थी। अनौपचारिक क्षेत्र को होने वाली हानि को कम करने के लिए कोई नीतिगत उपाय नहीं किए गए थे; विशेष रूप से कृषि और व्यापारी वर्ग के लिए जोकि सत्तारूढ़ भाजपा (भारतीय जनता पार्टी) का पारंपरिक समर्थन आधार है। हालाँकि, लचीलापन एक ऐसा तत्व था जो स्पष्ट रूप से दिखाई दिया। भारत में अधिकांश नकद लेनदेन किसी औपचारिक अनुबंध पर नहीं बल्कि रिश्तों और विश्वास पर आधारित होते हैं। परिणामस्वरूप, नकद अर्थव्यवस्था में बड़े अनुपात में लेनदेन ‘जब हो सके तब दे देना’ के आधार पर जारी रहा। यह निश्चित रूप से वहां कारगर नहीं था जहां अनौपचारिक क्षेत्र सामान और सेवाएं औपचारिक क्षेत्र से खरीद रहा था। इस प्रकार, यह अनौपचारिक क्षेत्र के लिए कुछ हद तक एक आपूर्ति झटके के रूप में था।
अनौपचारिक और एसएमई क्षेत्रों के सामने आने वाली वास्तविक समस्या बैंकों और एनबीएफसी (गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों) को उनके ऋण के संबंध में मूल व ब्याज की राशि से संबंधित थी जिसे समय पर भुगतान किया जाना था ताकि वे 'गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों' (एनपीए) के रूप में वर्गीकृत किए जाने और वसूली की कार्यवाही के लिए जवाबदेह होने से बच सकें। यह विनाशकारी हो सकता था यदि यह मुद्रा6 ऋणों अस्तित्व में नहीं आते। मौजूदा ऋणों पर अपने ऋण सेवा दायित्वों को पूरा करने के लिए कई सूक्ष्म और छोटी इकाइयों ने इस योजना के अंतर्गत उधार लिया था।7 इसने समस्या को पुन:मुद्रीकरण प्रक्रिया के पूरा होने तक हल किए जाने की आशा में उसे प्रभावी ढ़ंग से टाल दिया। फिर भी, सूक्ष्म और छोटी कंपनियों के बहुत बड़ी संख्या में ऋण एनपीए हो गए और इन इकाइयों को बंद होने के लिए मजबूर होना पड़ा।
आश्चर्य की बात यह थी कि भारतीय अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण हिस्सों को नुकसान पहुंचाने के बावजूद, 2017-18 में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि का अनुमान 8.2% था जो 2012-13 के बाद से उच्चतम स्तर पर था। दुर्भाग्य से, यह एक दृष्टि (या अधिक सही ढंग से, सांख्यिकीय) भ्रम था। कृषि के अलावा, भारतीय जीडीपी का अनुमान मुख्य रूप से संगठित क्षेत्र के आंकड़ों पर आधारित है, जिसे अनौपचारिक और एसएमई क्षेत्रों को शामिल किए जाने हेतु बहिर्वेशित किया जाता है।8 चूंकि, यह पहले ही समझाया जा चुका है कि औपचारिक क्षेत्र को वास्तव में अनौपचारिक एवं लघु की कीमत पर लाभ प्राप्त हुआ है और इस प्रक्रिया में समग्र रूप से वृद्धि दर का अनुमान अधिक लगाया गया। इस प्रकार, जबकि कॉरपोरेट्स का उत्पादन उच्च दर्ज किया गया तो एसएमई क्षेत्र की अनुमानित नकारात्मक वृद्धि को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया।
जबकि सकल घरेलू उत्पाद के अधिक अनुमान की सीमा का सीधा आकलन करने के लिए कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं है, दो समर्थक डेटासेट बताते हैं कि हानि काफी अधिक थी। 2017-18 के लिए आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) से रोजगार के आंकड़ों ने संकेत दिया कि बेरोजगारी दर सामान्य से 3 प्रतिशत अधिक थी। इसी तरह, घरेलू खपत के आंकड़ों से संकेत मिलता है कि प्रति व्यक्ति मासिक उपभोग व्यय 2011-12 की तुलना में 2% कम था।9
इसका नतीजा 2018 के मध्य में आया, जब जीडीपी की वृद्धि तेजी से फिसलने लगी। ऐसा होते हुए छह तिमाहियों से अधिक हो गया है और वृद्धि दर तिमाही दर तिमाही घटकर 8% से 4.5% हो गई है। अनौपचारिक और एसएमई क्षेत्रों को हुई क्षति अब आय और मांग पर इसके प्रभाव से कॉर्पोरेट परिणामों में भी दिखाई देने लगी थी। यह घरेलू बचत दर और/या उधारी में लगातार गिरावट में भी प्रदर्शित हुई क्योंकि परिवार आय में कमी के कारण अपने उपभोग को बचाने का प्रयास करने लगे थे। सरकार, हालांकि, इससे इनकार करती रही और किसानों (पीएम-किसान)10 के लिए आय सहायता योजना के अलावा कोई सुधारात्मक उपाय नहीं किया।
इस प्रकरण से सीखे जाने वाले पाठ अधिक जटिल हैं:
- सभी झटकों को मांग या आपूर्ति के झटके के रूप में स्पष्टतया वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है। यह नीतिगत प्रतिक्रिया को जटिल बनाता है क्योंकि अर्थशास्त्र के साहित्य में प्रत्येक तरह के झटके को अलग-अलग रूप से वर्णित किया जाता है।
- मिश्रित झटकों के एक मामले में, नीति को आवश्यक रूप से अधिक सूक्ष्म और लक्षित होना पड़ता है, और नीति निर्माताओं को अधिक परिष्कृत होने की आवश्यकता होती है। इसके लिए उच्च प्रशासनिक और शासन मानकों की भी आवश्यकता होती है। बेशक, यह प्रकरण भारत में नीति और शासन की गुणवत्ता पर कोई प्रत्यक्ष प्रकाश नहीं डालता है क्योंकि यहाँ नाम के लिए भी कोई नीतिगत प्रतिक्रिया नहीं थी।
- अनौपचारिक क्षेत्र में सामाजिक नेटवर्क के माध्यम से काम करने की क्षमता और अनौपचारिक अनुबंधों के पुनर्समझौते के कारण एक निश्चित मात्रा में लचीलापन है। फिर भी, इसकी कमाई में गिरावट आती है, और कभी-कभी तेजी से।
- सबसे कमजोर एस.एम.ई. हैं, जिनमें बने रहने की क्षमता बहुत कम है, पर वे बिना पुनर्समझौते की ताकत के औपचारिक अनुबंधों से बंधे हुए हैं। इनमें से सबसे ज्यादा नुकसान औपचारिक क्षेत्र (बैंकों और एनबीएफसी) से लिए गए कर्ज को ब्याज सहित चुकाने से संबंधित होता है।
- कॉरपोरेट क्षेत्र में बने रहने की शक्ति अधिक है, लेकिन वह अनौपचारिक और एसएमई क्षेत्रों की समस्याओं के कारण होने वाले मांग विध्वंस से नहीं बच सकता है।
- उपयुक्त नीतिगत प्रतिक्रिया न होने पर किसी झटके का प्रभाव अधिक समय के लिए बना रह सकता है। इस प्रकार, सुधार का आकार V-, W-, U- या L- में से किस प्रकार का होगा, यह झटके की प्रकृति और नीतिगत प्रतिक्रिया दोनों पर निर्भर करता है।
श्रृंखला के अगले भाग में (जो मंगलवार, 16 जून 2020 को पोस्ट किया जाना है), डॉ. प्रणब सेन ने सरकार द्वारा अब तक घोषित वित्तीय प्रोत्साहन को ध्यान में रखते हुए लॉकडाउन और निर्यात मंदी के कारण अर्थव्यवस्था को पहुंचे नुकसान का अनुमान लगाया है। अगले तीन वर्षों में अर्थव्यवस्था के अपेक्षित प्रक्षेपवक्र को प्रस्तुत करते हुए, उन्होंने कहा है कि संभावित सुधार का पथ V नहीं है, बल्कि एक लम्बा U या शायद L के करीब भी हो सकता है।
टिप्पणियाँ:
- यह एक ऐसा उदाहरण है जिसमें भारत स्वर्ण मानक प्रदर्शित करता है। 1 से 100 के पैमाने पर, भारत 100 पर है जबकि अन्य सभी देश 60 से 80 के बीच हैं।
- यह प्रमुख कारण है कि क्यों 2009-10 के राजकोषीय प्रोत्साहन 2010-11 में ही पूर्ण प्रभावशाली हुआ था।
- 2009-10 का लगभग 10% राजकोषीय प्रोत्साहन मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) पर था। यह कदम किसी भी प्रकार से आवश्यक था क्योंकि हाल के वर्षों में 2009 में सबसे खराब सूखे का सामना करना पड़ा था और गरीबों को आय समर्थन एक नैतिक अनिवार्यता थी। हालांकि, यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि इस वृद्धि के पहले दौर के प्रभावों का एक बड़ा हिस्सा खाद्य कीमतों में तेज वृद्धि के माध्यम से गायब हो गया था। मुझे लगता है कि यह "गड्ढे खोदने और उन्हें भरने" के परंपरागत कीनेसियन सिद्धांत के खिलाफ जाता है, लेकिन, जैसा कि मैंने बाद में बताया है कि बहुत कुछ उन विशिष्ट परिस्थितियों पर निर्भर करता है जिनके तहत राजकोषीय प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
- कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद कुल उत्पादन का लगभग 8% है। व्यावहारिक रूप से शेष सभी उत्पादन का या तो स्वयं द्वारा उपभोग किया जाता है या निजी व्यापारियों के माध्यम से बेचा जाता है।
- ये ऐसे उपभोक्ता थे जिनके पास क्रेडिट/डेबिट कार्ड थे। ऐसे व्यक्तियों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में अपेक्षाकृत कम थी, लेकिन कुल खपत की मांग में इनकी हिस्सेदारी असमान रूप से बड़ी थी।
- माइक्रो यूनिट डेवलपमेंट एंड रीफाइनेंस एजेंसी (MUDRA) की स्थापना सूक्ष्म इकाइयों को बैंकिंग क्षेत्र के माध्यम से छोटे संपार्श्विक-मुक्त ऋण प्रदान करने के लिए 2015 में की गई थी।
- पिछले दो वर्षों में खराब प्रदर्शन दिखाने के बाद 2017-18 में मुद्रा ऋण में वृद्धि हुई।
- कृषि के मामले में, जीडीपी का अनुमान केवल उत्पादन को मापता है, न कि किसानों की आय को या बढ़े हुए अपव्यय से होने वाले नुकसान को।
- 2017-18 उपभोग व्यय सर्वेक्षण के आंकड़ों को आधिकारिक तौर पर सरकार द्वारा दबा दिया गया है।
- सरकार का कथन था, है और रहेगा भी कि नोटबंदी एक बेहतरीन कदम था और इसका अर्थव्यवस्था पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं होगा।
लेखक परिचय: डॉ प्रणव सेन इंटरनैशनल ग्रोथ सेंटर (आई.जी.सी.) के कंट्री डाइरेक्टर हैं।
By: Ravi Ojha 16 June, 2020
बेहतरीन विश्लेषण श्रीमान, आपका विश्लेषण छात्रों की Exam Preparation में काफी मददगार है, खासकर UPSC और State PCS के अभ्यर्थियों के लिए, अगर संभव हो तो कृपया एक विश्लेषण इस विषय पर भी प्रकाशित करें कि, भारत में घोषित किया गया लॉकडाउन सफल रहा या असफल?