वर्ष 2000 तक उत्तर भारतीय राज्य पंजाब देश में प्रति-व्यक्ति आय रैंकिंग में शीर्ष पर था, उसके बाद से इसकी स्थिति लगातार गिरती गई है। इस लेख में लखविंदर सिंह, निर्विकार सिंह और प्रकाश सिंह ने पंजाब की अर्थव्यवस्था- कृषि, विनिर्माण व सेवाओं, नौकरियों व शिक्षा और सार्वजनिक वित्त व शासन की वर्तमान स्थिति के सन्दर्भ में तथा राज्य के सामने आने वाली चुनौतियों के कारणों पर चर्चा की है। इसके अलावा विकास और सक्षम नीतियों की सम्भावनाओं पर भी विचार किया गया है।
यह आइडियाज़@आईपीएफ2024 श्रृंखला का चौथा और अंतिम लेख है।
पंजाब की अर्थव्यवस्था को धीमी वृद्धि, सामाजिक चुनौतियों और पर्यावरण क्षरण के सन्दर्भ में जाना जाता है। पंजाब की हाल की आर्थिक प्रगति का कुछ हिस्सा इसके भूगोल से प्रभावित है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय सीमा पर इसकी स्थिति और पानी की उपलब्धता शामिल है। 1947 में क्षेत्र के विभाजन और फिर 1966 में भारतीय पंजाब के विभाजन के कारण कृषि के लिए पानी की उपलब्धता राजनीतिक रूप से सीमित हो गई थी। बाद की घटना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा नीति के तहत राज्य की कृषि पद्धति में बड़े बदलाव के तुरंत बाद घटित हुई, जिसके तहत गेहूँ-धान फसल चक्र पर अधिक निर्भरता हो गई, जिसमें पानी और उर्वरकों का गहन उपयोग शामिल था। इसके अलावा, पाकिस्तान के साथ सीमा पर पंजाब की स्थिति, 1980 और 1990 के दशक में एक दशक से अधिक समय तक संघर्ष तथा जम्मू-कश्मीर से निकटता के कारण औद्योगिक निवेश में बाधा उत्पन्न हुई तथा राज्य में विकास की सामान्य प्रगति भी बाधित हुई।
स्वतंत्रता के बाद हुए शुरुआती निवेशों ने गेहूँ और धान की नई उच्च उपज वाली किस्मों और खाद्य खरीद प्रणाली पर आधारित पंजाब राज्य को खाद्य सुरक्षा हासिल करने के राष्ट्रीय प्रयास में सबसे आगे रखा, जिसने खाद्यान्न के लिए एक सुनिश्चित बाज़ार बनाया- जिसे लोकप्रिय रूप से हरित क्रांति के रूप में जाना जाता है। हालांकि, बाद के विकास के परिणामस्वरूप प्रति-व्यक्ति आय में वृद्धि, गरीबी में कमी, स्वास्थ्य सेवाओं के प्रावधान और मानव पूंजी के विकास के सम्बन्ध में एक मिश्रित तस्वीर सामने उभरकर आई। हरित क्रांति के बाद वर्ष 2000 तक, पंजाब की अर्थव्यवस्था भारतीय राज्यों में प्रति-व्यक्ति आय की रैंकिंग में सबसे ऊपर थी, लेकिन उसके बाद इसकी रैंकिंग लगातार गिरती गई। वर्ष 2021-22 के अनुसार यह प्रमुख भारतीय राज्यों में अब 10वें स्थान पर है।
पंजाब की अर्थव्यवस्था में चार परस्पर संबंधित कारक बाधा डालते हैं। पहला- केन्द्र सरकार की खाद्य खरीद नीति की विशिष्ट प्रकृति पर निर्भरता के कारण, राज्य संकीर्ण रूप से कृषि प्रधान बना हुआ है। दूसरा- पंजाब की राजकोषीय स्थिति इस तरह से बाधित है कि राजकोषीय नीति बेकार हो जाती है : संबंधित कारकों में कृषि संरचना और राज्य की राजनीतिक अर्थव्यवस्था शामिल है। सार्वजनिक वित्त की समस्याओं के कारण भौतिक एवं सॉफ्ट, दोनों प्रकार के बुनियादी ढाँचे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। तीसरा- उदारीकरण के युग के दौरान क्षेत्रीय और घरेलू राजनीति के संयोजन ने राज्य को नुकसान पहुँचाया, जिससे मौजूदा विनिर्माण उद्योगों में गिरावट आई और नए उद्योग और सेवाएं तेज़ी से उभर नहीं पाईं। चौथा- हाल के दशकों में व्यक्तिगत मानव पूंजी और संस्थागत या संगठनात्मक पूंजी, दोनों ही या तो विकसित होने में विफल रहे हैं या कुछ आयामों में गिरावट आई है, जिससे पंजाब कम नवोन्मेषी और नए निवेश के लिए कम आकर्षक बन गया है।
आर्थिक संरचना
अग्रिम अनुमानों के आधार पर पंजाब में सकल राज्य मूल्य वर्धित, जीएसवीए (ग्रॉस स्टेट वैल्यू एडेड) में कृषि और सम्बद्ध गतिविधियों की हिस्सेदारी 26.7% थी, जबकि वर्ष 2022-23 में इस क्षेत्र का रोज़गार में योगदान 24.6% था। 2000 के दशक के आरम्भ से पंजाब की कृषि में हिस्सेदारी में बहुत अधिक गिरावट नहीं आई थी तथा यह प्रति व्यक्ति आय के समान स्तर वाले अन्य भारतीय राज्यों की तुलना में अधिक थी। यह पंजाब की अर्थव्यवस्था की अनूठी संरचना को दर्शाता है- राज्य का क्षेत्र भारत के क्षेत्रफल का केवल 1.5% है, लेकिन केन्द्र सरकार द्वारा खरीदे जा रहे धान में 31.2% और गेहूँ में 46.2% का योगदान देता है। ये आँकड़े पंजाब की कृषि और पूरे राज्य की अर्थव्यवस्था की केन्द्रीय समस्या को उजागर करते हैं। यहाँ तक कि कृषि के क्षेत्र में भी, पानी की कम आवश्यकता वाली फसलों या पशुपालन जैसी उच्च मूल्य-संवर्धित गतिविधियों में बाधा उत्पन्न हुई है। राष्ट्रीय खाद्यान्न खरीद प्रणाली के लिए गेहूँ और धान की खेती पर निर्भरता के कारण जल और विद्युत पर सब्सिडी बढ़ गई है, जिससे पर्यावरणीय तनाव और अस्थाई वित्तीय स्थिति पैदा हुई है, जो टिकाऊ नहीं है। उर्वरक और कीटनाशकों के प्रयोग के पैटर्न ने भी पर्यावरणीय समस्याओं को बढ़ावा दिया है तथा मशीनीकरण ने कृषि में रोज़गार के अवसरों को कम कर दिया है।
पंजाब के जीएसवीए में उद्योग का हिस्सा 27.4% है, जो राज्य में कृषि के हिस्से के काफी करीब है और पूरे भारत में उद्योग के औसत हिस्से के बराबर है। हालांकि, राज्य में कृषि की तुलना में उद्योग का रोज़गार में हिस्सा 34.3% अधिक है। उद्योग में सकल पूंजी निर्माण (ग्रॉस कैपिटल फार्मेशन- जीसीएफ) जीएसवीए का 31% है, जो राष्ट्रीय आँकड़े के समान है, लेकिन यह उद्योग क्षेत्र के भीतर विनिर्माण से निर्माण की ओर सापेक्ष रूप से अंतरित हो रहा है। पंजाब में उद्योग की वृद्धि कृषि की तुलना में अधिक रही है और पूरे देश के औसत के समान है। शेष भारत की तुलना में, पंजाब में पंजीकृत बनाम अपंजीकृत विनिर्माण इकाइयों का अनुपात अधिक है, लेकिन इसमें बड़ी इकाइयों की कमी है, खासकर जब उन राज्यों की तुलना की जाती है जिनमें विनिर्माण का हिस्सा अधिक है। पंजाब विनिर्माण के अध्ययन से पता चलता है कि 1980 के दशक के बाद से इसमें गिरावट आई, 2000 के दशक के प्रारम्भ में इसमें कुछ सुधार हुआ, लेकिन उसके बाद इसमें स्थिरता आ गई। निवेश, तकनीकी दक्षता और उत्पादकता वृद्धि अपेक्षाकृत कम रही है। निवेश, तकनीकी दक्षता और उत्पादकता वृद्धि अपेक्षाकृत कम रही है। निवेश की कमी फर्मों के आकार वितरण का कारण और परिणाम दोनों है और यहाँ तक कि पंजीकृत विनिर्माण फर्म भी ज्यादातर बहुत छोटी हैं।1 विश्वसनीय और कम लागत वाली बिजली, उचित कौशल वाले श्रमिकों और व्यावसायिक ऋण तक पहुँच विकास की बाधाओं में से हैं। इसके अलावा, राज्य में कई औद्योगिक समूहों में आधुनिक बुनियादी ढाँचे और बाज़ारों तक पर्याप्त पहुँच और पैमाने की कमी है।
भारत भर में पाए जाने वाले पैटर्न को दर्शाते हुए, पंजाब का सेवा क्षेत्र कृषि या उद्योग से बड़ा है। यह जीएसवीए का 45.9% और रोज़गार का 41.1% हिस्सा है। हाल के दशकों में यह क्षेत्र अन्य क्षेत्रों की तुलना में पुनः भारत के बाकी हिस्सों के समान, अधिक तेज़ी से विकसित हुआ है। पंजाब और समान प्रति-व्यक्ति आय स्तर वाले अधिकांश अन्य राज्यों के बीच एक अंतर यह है कि इसका कृषि क्षेत्र आनुपातिक रूप से बड़ा है और इसलिए, इसका सेवा क्षेत्र का हिस्सा राष्ट्रीय औसत 54% से काफी कम है। हालांकि, पंजाब का सेवा क्षेत्र 29% के अखिल भारतीय औसत की तुलना में आनुपातिक रूप से अपने कार्यबल के अधिक हिस्से को रोज़गार देता है। यह देश के बाकी हिस्सों की तुलना में पंजाब की कृषि की कम श्रम तीव्रता को दर्शाता है। राज्य का सेवा क्षेत्र बहुत विषम है, जबकि इसके रोज़गार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा व्यापार और मरम्मत में लगता है, जबकि अन्य सेवा उप-क्षेत्रों (जैसे वित्तीय सेवाएँ और सार्वजनिक प्रशासन) में अधिक उत्पादकता और विकास क्षमता हो सकती है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि पंजाब में इन उप-क्षेत्रों के विकास के लिए पर्याप्त शहरी बुनियादी ढाँचा और मानव पूंजी मौजूद है।
श्रम और रोज़गार
वर्ष 2022-23 के लिए, पीरियड लेबर फ़ोर्स सर्वे (पीएलएफएस) के आँकड़ों के आधार पर, पंजाब की श्रम-शक्ति भागीदारी दर (लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन रेट- एलएफपीआर) राष्ट्रीय औसत (53.5% बनाम 57.9%) से काफ़ी कम थी और इसकी बेरोज़गारी दर राष्ट्रीय औसत (6.1% बनाम 3.2%) से लगभग दोगुनी थी। इसके अलावा, राज्य में श्रमिक-जनसंख्या अनुपात अखिल भारतीय आँकड़ों (50.2% बनाम 56%) से काफ़ी कम था। शेष भारत की तुलना में, पंजाब में ख़ास तौर पर ग्रामीण क्षेत्र में, बेरोज़गारी दर अधिक है। यहाँ उत्प्रवास की मांग बहुत अधिक है, लेकिन गरीब राज्यों से अकुशल श्रमिकों का भी भारी संख्या में आप्रवासन हो रहा है। शहरी पंजाब में महिला एलएफपीआर राष्ट्रीय आँकड़ों (23.2% बनाम 23.5%) के समान है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में अंतर बहुत बड़ा है (26.3% बनाम 40.7%)। यह पंजाब की कृषि की मशीनीकृत प्रकृति और उससे जुड़े सामाजिक मानदंडों के अनुरूप है। युवा महिला एवं पुरुष, दोनों कृषि कार्य उस तरह से नहीं कर रहे हैं जैसा उस परिवेश में किया जाता है जहाँ निर्वाह कृषि का काम अधिक हद तक होता है। आँकड़े ऐसी स्थिति दर्शाते हैं जहाँ न तो ग्रामीण और न ही शहरी क्षेत्रों में ऐसी नौकरियाँ सृजित हो रही हैं जो जनसंख्या की व्यक्तिगत और सामाजिक अपेक्षाओं के अनुरूप हों।
शिक्षा और स्वास्थ्य
पंजाब की आबादी 3 करोड़ से थोड़ी ज़्यादा है, जिसमें से लगभग पाँचवाँ हिस्सा स्कूल जाने वाली उम्र (5-18 वर्ष) का है। प्राथमिक शिक्षा में नामांकन अनुपात ऊँचा है और बीच में पढ़ाई छोड़ देने की दर (ड्रॉपआउट दर) कम है, लेकिन उच्च प्राथमिक विद्यालय और उससे आगे के क्षेत्रों में यह दर अन्य समृद्ध राज्यों की तुलना में अधिक है। स्कूल जाने वाली आबादी का लगभग आधा हिस्सा सरकारी स्कूलों में जाता है, जो राष्ट्रीय औसत के समान है। हाल के वर्षों में, संभवतः स्कूल के बुनियादी ढाँचे में निवेश के कारण, सरकारी स्कूलों में छात्रों का अनुपात थोड़ा बढ़ा है। शैक्षिक परिणामों के कुछ संकेतकों पर, पंजाब हाल ही में भारत में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाला राज्य रहा है। हालांकि, स्कूल के शिक्षकों को भाषा, गणित और विज्ञान में और भी बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए प्रदर्शन-आधारित प्रोत्साहन प्रदान किया जा सकता है (मुरलीधरन और सुंदररामन 2011)। इसी तरह, शिक्षकों के प्रदर्शन को सही मायने में समझने और फिर उनके अनुसार कार्य करने के लिए स्कूल प्रबंधन प्रणालियों (भर्ती, प्रदर्शन मूल्यांकन, पदोन्नति, निकास) का पुनर्मूल्यांकन किया जा सकता है। कुछ संकेतात्मक साक्ष्य (आकृति-1) हैं कि उच्च स्तर (स्नातकोत्तर) पर शिक्षा के लिए पंजाब में गिरावट देखी जा रही है, जो लगभग पूरी तरह से महिलाओं के कारण है।
आकृति-1. पंजाब में वर्ष 2017-18 से 2021-22 तक स्नातकोत्तर और पीएचडी की संख्या
स्रोत : उच्च शिक्षा के बारे में अखिल भारतीय सर्वेक्षण, 2021-22।
स्वास्थ्य सेवा और स्वास्थ्य परिणामों के कई पहलुओं में, पंजाब राष्ट्रीय औसत से काफी बेहतर प्रदर्शन करता है, हालांकि ज़रूरी नहीं कि यह अन्य समृद्ध राज्यों से बेहतर हो। जीवन प्रत्याशा राष्ट्रीय आँकड़ों से कुछ वर्ष ही अधिक है, लेकिन प्रसव पूर्व और प्रसव पश्चात देखभाल, टीकाकरण, कुपोषण, तथा शिशु एवं बाल मृत्यु दर के मामले में पंजाब के आँकड़े समग्र भारत की तुलना में काफी बेहतर हैं। यह स्थिति पंजाब की पिछले दशकों की समृद्धि का परिणाम है और आय तथा उत्पादन वृद्धि के समानांतर होने वाले कुछ प्रकार के संस्थागत विकास के स्थायित्व को दर्शाती है। साथ ही, डेटा से संकेत मिलता है कि पंजाब की सुधार की दर धीमी हो रही है और भारत के अन्य राज्य उससे आगे बढ़ रहे हैं। इसके अतिरिक्त, समृद्धि से जुड़े जीवनशैली और पोषण में बदलाव खासकर महिलाओं और लड़कियों के स्वास्थ्य पर नए, प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं।
सार्वजनिक वित्त और शासन
पंजाब 1980 के दशक की शुरुआत से लेकर 1990 के दशक के मध्य तक गम्भीर राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल से पीड़ित रहा। उस डेढ़ दशक के दौरान, पंजाब ज्यादातर समय राष्ट्रपति शासन के अधीन रहा। सार्वजनिक व्यय का विकासात्मक उद्देश्यों से हटकर कानून-व्यवस्था तंत्र की ओर महत्वपूर्ण बदलाव हुआ, जो स्वयं बिना किसी नियंत्रण और संतुलन के संचालित हो रहा था। राजस्व संग्रह की व्यवस्था भी चरमरा गई और राज्य सरकार की उधारी नाटकीय रूप से बढ़ गई। राजस्व अधिशेष राजस्व घाटे में बदल गया, जो कायम है। राजस्व प्राप्तियों और राजस्व व्यय के बीच का अंतर वर्ष 1990-91 में 544 करोड़ रुपये था और लगातार बढ़ता रहा है, जिससे वर्ष 2022-23 में राजस्व घाटा 24,588 करोड़ रुपये हो गया, जो मुद्रास्फीति के समायोजन के बाद पाँच गुना वृद्धि दर्शाता है।
मार्च 2024 तक राज्य सरकार का ऋण भार जीएसडीपी (सकल राज्य घरेलू उत्पाद) का 47.6% था, जो भारत के प्रमुख राज्यों में सबसे अधिक है। वर्ष 2017 से राज्य का कर्ज सालाना औसतन 9% से ज़्यादा की दर से बढ़ा है, जिसमें वर्ष 2021-22 में 92.2% नए उधार का इस्तेमाल मौजूदा कर्ज को चुकाने में किया जाएगा। असल में, पंजाब सरकार कर्ज के जाल में फंस गई है। इस बीच, राजस्व प्राप्तियां लक्ष्य से कम होती जा रही हैं। कम कर प्रयासों के अलावा, कम कर क्षमता भी एक बड़ी समस्या है- पंजाब मुख्य रूप से कृषि प्रधान है और उस क्षेत्र को प्रत्यक्ष करों से छूट दी गई है। कर चोरी, जो सरकारी संस्थागत क्षमता में गिरावट से जुड़ी है, भी एक कारक है। अंत में, जीएसडीपी के अनुपात के रूप में गैर-कर राजस्व में भी गिरावट आई है। संस्थागत क्षमता का अभाव और प्रोत्साहनों की कमी के कारण स्थानीय संपत्ति करों के संग्रह में भी बाधा आती है, जिससे शहरी बुनियादी ढाँचे की कमियाँ और भी बढ़ जाती हैं। शासन की गुणवत्ता के सूचकांक आगे दर्शाते हैं कि शासन की दक्षता और प्रभावशीलता में सुधार नहीं हुआ है (आकृति-2)।
आकृति-2. पंजाब शासन सूचकांक, वर्ष 2002 और 2016
स्रोत : सोढ़ी (2024)।
नीति निर्देश
पंजाब में नीतिगत कार्रवाई के विशिष्ट क्षेत्रों में कृषि विविधीकरण, औद्योगिक विकास और नवाचार, सीमा पार सेवाएं तथा स्थानीय स्तर पर विकेन्द्रीकरण शामिल हैं। राज्य की गम्भीर राजकोषीय स्थिति का अर्थ है कि सार्थक आर्थिक विकास की सम्भावनाएं राज्य और राष्ट्रीय सरकारों के बीच सहयोग पर निर्भर करेंगी, जिसमें संचित सार्वजनिक वित्त संबंधी मुद्दों से निपटने के लिए राष्ट्रीय सरकार द्वारा राजकोषीय सहायता और एक अलग, अधिक विविध आर्थिक संरचना में बदलाव की आर्थिक और राजनीतिक लागत शामिल होगी।
हालांकि राष्ट्रीय खाद्यान्न खरीद नीति में एक बड़े सुधार की घोषणा की गई है, जिसके तहत किसानों को गेहूँ या धान के स्थान पर एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर मक्का और दालों की असीमित खरीद की पेशकश की गई है, लेकिन यह फसल के चयन में बड़े पैमाने पर बदलाव को प्रोत्साहित करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है। अतिरिक्त भुगतान की आवश्यकता हो सकती है, जिसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा में पंजाब के पिछले योगदान के मुआवज़े के रूप में राजनीतिक रूप से उचित ठहराया जा सकता है। उदाहरण के लिए, उन भुगतानों को उन फसलों के विपणन या प्रसंस्करण के लिए उन्नत बुनियादी ढाँचे के लिए निर्धारित किया जा सकता है, जिन्हें किसान अपनाना चाहते हैं। पिछले प्रस्ताव को विशेष निवेश कमी पैकेज (स्पेशल इन्वेस्टमेंट डेफिशियेंसी पैकेज- एसआईडीपी) कहा गया था, जिसके तहत राज्य सरकार के बजट में पाँच वर्षों तक प्रति वर्ष लगभग 20% की वृद्धि की जानी थी।
बुनियादी स्तर पर, पंजाब के दीर्घकालिक आर्थिक विकास के लिए औद्योगिक परिवर्तन का समर्थन करने के लिए कई नीतिगत सुधारों की आवश्यकता होगी। व्यवसाय-मालिकों को बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर ‘व्यापार करने में आसानी’ की आवश्यकता है, क्योंकि सरकारी मंज़ूरी के प्रारम्भिक चरण के बाद भी निरीक्षकों से निपटना, अनुबंधों को लागू करना, वित्त तक पहुँच, कुशल श्रमिकों को ढूँढ़ना और बाज़ारों का पता लगाना जैसी कई बाधाएं बनी रहती हैं। इन क्षेत्रों में, विशेषकर बिजली की लागत और करों की संरचना के मामले में, पंजाब की स्थिति कई अन्य राज्यों की तुलना में खराब है।
आर्थिक विकास में मौजूदा परस्पर जुड़ी बाधाओं को दूर करने के अलावा, विकास के भविष्य के स्रोतों की कल्पना भी करनी होगी। जैसे-जैसे आर्थिक विकास अधिकाधिक ज्ञान-प्रधान होता जा रहा है, पंजाब की आर्थिक संरचना अधिकाधिक पुरानी होती जा रही है। पंजाब की अर्थव्यवस्था का अधिकांश भाग, कृषि, विनिर्माण और सेवाओं में, ऐसी गतिविधियों और फर्मों से जुड़ा है जो कम उत्पादकता, कम मज़दूरी और कम इनपुट गहनता वाली हैं। अन्य भारतीय राज्यों की तुलना में कृषि क्षेत्र की उत्पादकता अपेक्षाकृत अधिक है, लेकिन चूंकि इसका अधिकांश उत्पादन राष्ट्रीय खाद्यान्न खरीद में चला जाता है, इसलिए खेत से बाहर बहुत कम मूल्यवर्धन होता है। विनिर्माण और सेवाओं में पंजाब के कई उप-क्षेत्र भी मूल्यवर्धन में कम हैं।
पंजाब सार्वजनिक या निजी क्षेत्र में अनुसंधान और विकास पर बहुत कम खर्च करता है। आंशिक रूप से वित्तीय संसाधनों की कमी के कारण तथा आंशिक रूप से संगठनात्मक गिरावट के कारण इसके विश्वविद्यालय भी पीछे रह रहे हैं। इसके अलावा, पंजाब उच्च शिक्षा में अपेक्षाकृत खराब प्रदर्शन करता है हालांकि शिक्षा के निचले स्तरों पर ऐसा नहीं है। अगर पंजाब को ज्ञान अर्थव्यवस्था में किसी भी तरह का बदलाव लाना है, तो इन सभी मुद्दों पर ध्यान देना होगा।
नवाचार और उच्च शिक्षा में निवेश के अलावा, शहरी बुनियादी ढाँचे पर भी गम्भीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है। पंजाब की शहरी स्थानीय सरकारें वित्तीय और संस्थागत, दोनों ही दृष्टियों से अपेक्षाकृत कमज़ोर हैं। यह स्थिति राज्य स्तर पर संस्थागत गुणवत्ता में गिरावट और राज्य सरकार के वित्त में गिरावट का परिणाम है। डिजिटल और अन्य स्थानीय बुनियादी ढाँचे में निवेश के साथ-साथ उद्योग और सेवाओं में उच्च मूल्यवर्धित क्लस्टर बनाने के लिए स्थानीय सरकारों को वित्तीय और संस्थागत रूप से मज़बूत करना एक आवश्यक शर्त प्रतीत होती है।
निष्कर्ष
वांछनीय रोज़गार का अभाव, नशीली दवाओं और शराब के उपयोग जैसी सामाजिक समस्याएं तथा धर्म का अति-राजनीतिकरण, ये सभी पंजाब की हरित क्रांति द्वारा निर्मित कृषि प्रणाली और पुरानी राष्ट्रीय खाद्य खरीद नीति से जुड़े होने के कारण प्रतीत होते हैं। पंजाब में भूजल स्तर का विनाश और सम्भावित रेगिस्तानीकरण, राज्य को और अस्थिर कर देगा और इसके राष्ट्रीय स्तर पर बहुत बड़े परिणाम होंगे। मूल हरित क्रांति खाद्य सुरक्षा की राष्ट्रीय आवश्यकता और केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच सहयोग से आई थी।
उस समय, केन्द्र और अधिकांश राज्य सरकारों के बीच अधिक राजनीतिक तालमेल था। वर्तमान राजनीतिक प्रणाली, एक नए राजनीतिक सौदे के लिए उतनी सक्षम नहीं दिखती, जो उस सौदे की जगह ले सके, जिसने मूल रूप से हरित क्रांति प्रणाली को प्रभावी बनाया था।
फिर भी, इस बात को महसूस करना कि पंजाब में आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय स्थिति राष्ट्रीय चिंता का विषय है, एक नई व्यवस्था की दिशा में काम करने का पहला कदम है।
टिप्पणी:
- इनमें से कई मुद्दों का विश्लेषण सिंह और जैन (2007) में किया गया था। वर्मा और कौर (2018) और गोयल (2020) को भी देखें।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : लखविंदर सिंह इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट (आईएचडी), नई दिल्ली में विज़िटिंग प्रोफेसर हैं। इससे पहले, वे पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला में अर्थशास्त्र विभाग के प्रोफेसर और प्रमुख रह चुके हैं। निर्विकार सिंह कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सांता क्रूज़ (यूसीएससी) में अर्थशास्त्र के प्रतिष्ठित प्रोफेसर हैं, जहाँ वे यूसीएससी के विश्लेषणात्मक वित्त केन्द्र के सह-निर्देशक हैं। प्रकर्ष सिंह प्लाक्षा विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के चेयर प्रोफेसर हैं।
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