वर्ष 2021-22 के केंद्रीय बजट को एक राजनीतिक अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से जांचते हुए यामिनी अय्यर कहती हैं कि भारत सरकार द्वारा चुने गए नीतिगत विकल्प यह दर्शाते हैं कि सरकार का झुकाव वित्तीय संसाधनों को राज्य सरकारों को हस्तांतरित करने की बजाय उन्हें केंद्रीकरण की ओर तथा कल्याणकारी नीतियों से दूर हटने की ओर है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा 1 फरवरी को केंद्रीय बजट 2021-22 प्रस्तुत करने के बाद, अर्थशास्त्रियों ने इसके राजकोषीय गणित को परखा और इसके नीतिगत विकल्पों के पीछे आर्थिक तर्कोन के संबंध में चर्चा की। राजकोषीय गणित से परे, यह बजट केंद्र सरकार के राजनीतिक-अर्थव्यवस्था के उस मार्ग की रूपरेखा के बारे में महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करता है, जिसके माध्यम से वह कोविड-19 के अभूतपूर्व झटके के बाद भारत की अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने की उम्मीद करती है। इस आलेख में मैंने सरकार द्वारा चुने गए विकल्पों की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को दर्शाया है, और भारत के आर्थिक सुधार के लिए उनके निहितार्थ का आकलन किया है।
बृहत्-राजकोषीय स्थिति
बजट विकल्पों को भारत सरकार की बृहत्-राजकोषीय स्थिति की पृष्ठभूमि के संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। सर्वप्रथम, जैसा कि रथिन रॉय तर्क करते हैं, केंद्र सरकार पिछले कुछ वर्षों से मूक राजकोषीय संकट से जूझ रही है। राजस्व में भारी कमी (वित्त वर्ष 2019-20 में सकल घरेलू उत्पाद का 0.7% तक) और विनिवेश लक्ष्यों को पूरा करने की विफलता इसके कारण थे। साथ ही, इन प्रवृत्तियों ने सरकार को प्रतिबद्ध राजस्व व्यय1 को पूरा करने के लिए ऋण बढ़ाने के लिए मजबूर किया। राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों में कमी, जिन्होंने बदले में बजट देयताओं2 में वृद्धि के द्वारा बजट गणित की अस्पष्टता को और बढ़ा दिया, इसी वित्तीय संकट के लक्षण हैं।
दूसरा, दशकों से संघ सरकार ने व्यय को पूरा करने के लिये केंद्रीय प्रायोजित योजनाओं (सीएसएस) और केंद्रीय क्षेत्र की योजनाओं (सीएस) जैसे साधनों का उपयोग किया है, जो संवैधानिक रूप से राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में हैं। वर्ष 2015 में वित्त आयोग ने इस अभ्यास को रोकने के प्रयास में करों के विभाज्य पूल में राज्यों के हिस्से को 32% से बढ़ा कर 42% तक किया। इसके बावजूद, राज्यों को वास्तविक हस्तांतरण सकल कर राजस्व के 33% -35% में ही सीमित रहा, जोकि उपकर और सरचार्ज में वृद्धि के कारण हुआ। इसके अलावा, इस अवधि में केंद्रीय प्रायोजित योजनाओं और केंद्रीय क्षेत्र की योजनाओं पर संघ सरकार का व्यय बढ़ा है। इसलिए, वित्त आयोग द्वारा शक्तियों को हस्तांतरित करने के प्रयासो के बावजूद, भारत अधिक केंद्रीकरण की दिशा में आगे बढ़ रहा है। तीसरा, राज्यों ने अपने कर राजस्व संग्रह में सुधार करने और राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों को पूरा करने के दौरान अपने राजस्व घाटे3 को कम करते हुए, केंद्र की तुलना में कहीं अधिक राजकोषीय अनुशासन दिखाया है।
इस प्रकार, भारत ने जब महामारी का सामना किया तो न केवल उसकी अर्थव्यवस्था की गति धीमी थी, बल्कि केंद्र सरकार की वृहत्-राजकोषीय स्थिति भी कुछ हद तक अस्थिर थी। एक कमजोर वृहत्-राजकोषीय स्थिति के बावजूद, केंद्रीकरण की ओर तीव्र झुकाव राजनीतिक अर्थव्यवस्था में गहराई से निहित है। अत:, केंद्र की अपनी आवर्ती व्यय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए ऋण लेने की आवश्यकता में केवल बढ़ोतरी ही हुई है।
केंद्रीकरण की राजनीतिक अर्थव्यवस्था
महामारी के प्रति केंद्र सरकार की आर्थिक प्रतिक्रिया और वित्तीय वर्ष 2021-22 बजट में चुने गए विकल्पों ने केंद्रीकरण की राजनीतिक अर्थव्यवस्था को और मजबूत ही किया है। लॉकडाउन की घोषणा के बाद जब अर्थव्यवस्था थम गई, तो सरकारी व्यय को बढ़ाने के लिए काफी दबाव था। जबकि, राज्य सरकारें, जो महामारी की प्रतिक्रिया हेतु सर्वप्रथम थीं, उन्हें व्यय को पूरा करने के लिए वित्तीय सहायता की तत्काल आवश्यकता थी। केंद्र ने राज्यों को सहायता देने के लिए अपनी राजकोषीय और मौद्रिक शक्तियों को क्रियान्वित करने के बजाय, अपनी “प्रधान मंत्री गरीब कल्याण योजना”4 के माध्यम से केंद्रीय राजकोषीय प्रतिक्रिया (जो कि सीमित थी, इस विषय पर मैंने आगे चर्चा की है) को चुना। राज्यों को बाजार ऋण पर निर्भर रहने के लिए मजबूर किया गया। साथ ही, केंद्र को पेट्रोलियम पर उत्पाद शुल्क (राज्यों के साथ साझा करने योग्य नहीं) बढ़ाने के परिणामस्वरूप बड़ी मात्रा में राजस्व प्राप्त हुआ। वित्तीय वर्ष 2020-21 में कुल उपकर संग्रहण सकल राजस्व प्राप्तियों का 18% था, जबकि बजटीय अनुमानों5 में करों के विभाज्य पूल में राज्यों का हिस्सा 32% था, जो 2020-21 के लिए संशोधित अनुमानों में घटकर 28.9% रह गया।
आगे चलकर, भारत की रिकवरी का मार्ग संभवत: केंद्रीकरण को गहरा करेगा। पंद्रहवें वित्त आयोग द्वारा 41% के ऊर्ध्वाधर हस्तांतरण6 को बनाए रखने की सिफारिश के प्रति कथित प्रतिबद्धता के बावजूद, वित्तीय वर्ष 2020-21 के बजट में शुद्ध कर प्राप्तियों में राज्यों की हिस्सेदारी केवल 30% है। इसके अलावा, केंद्र ने चुनिंदा उत्पादों पर सीमा शुल्क को कम करते हुए एक नए कृषि और बुनियादी ढांचे के उपकर की घोषणा की है, जिसका सीधा असर राज्यों के राजस्व पर पड़ेगा। बजट में केंद्र को अधिक सहूलियत प्रदान करते हुए राज्यों को राजकोषीय अनुशासन के रास्ते पर तेजी से वापस लाने का निर्णय राज्यों के लिए ताबूत में अंतिम कील के समान है। बजट में वित्त आयोग की सिफारिश पर राजकोषीय समेकन के संबंध में केंद्र के लिए निर्धारित की गई गति की तुलना में राज्यों को अधिक तेज गति से आगे बढ़ाने की सिफारिश की गई है और राज्यों से अपेक्षा की गई है कि वे अपने घाटे को केंद्र के लिए 2025-26 हेतु 4.5% की तुलना में 2023-24 तक 2.8% तक नीचे लाएं।
केंद्रीकरण करने की प्रवृत्ति से गरीबों को दी जाने वाली राहत पर भी सीधा प्रभाव पड़ा, जो महामारी के दौरान सबसे अधिक पीड़ित थे। जैसा कि माना गया है, भारत का राजकोषीय प्रोत्साहन उल्लेखनीय रूप से कम रहा है। एक स्तर पर, केंद्र के ऐतिहासिक राजकोषीय कुप्रबंधन के कारण उसे युक्तिगत प्रबंधन में सीमित समय मिला। बजट के बाहर के ऋण को पुन: लेखा-बही में दर्ज कराने, और विनिवेश लक्ष्यों को पूरा करने में विफलता के चलते वित्त वर्ष 2020-21 के संशोधित अनुमानों के अनुसार 9.5% के राजकोषीय घाटे में बड़ा योगदान दिया। इसी प्रकार, केंद्रीकरण की ओर झुकाव ने केंद्र सरकार के लिए उपलब्ध विकल्पों को कम कर दिया है। महामारी के दौरान उदार आय सहायता नहीं देने, और वित्त वर्ष 2021-22 के बजटीय विकल्पों में ‘हैंडआउट्स’ (वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को उद्धृत करते हुए) की तुलना में भौतिक बुनियादी ढ़ांचे पर अधिक ध्यान देने के लिए बार-बार लक्ष्यीकरण कठिनाइयों का तर्क दिया जाता है। यह एक बहाना है। वास्तविकता यह है कि कई ऐसे अभिनव साधन मौजूद हैं जिनका उपयोग किया जा सकता है लेकिन इसके लिए राज्य और स्थानीय सरकारों को आगे आना पड़ेगा। प्राथमिकता सिद्धांतों के अनुसार भी, लक्ष्यीकरण में वे केंद्र सरकार की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी हो सकते हैं। केंद्रीकरण की प्रवृत्ति ने विकल्प का मार्ग बंद कर दिया है। जबकि यह एक वास्तविकता है कि भारत के सबसे गरीब लोगों पर विनाशकारी कोविड-19 के कारण असमान आर्थिक प्रभाव पड़ा है, इसने वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में विस्तारित आय समर्थन की तुलना में बुनियादी ढाँचे पर ध्यान केंद्रित करने के विकल्प को वैध ठहराया।
कल्याणकारी नीतियों से दूर हटना
केंद्रीकरण के अलावा, बजट मोदी सरकार के आर्थिक नीतिगत झुकावों में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक बदलाव को दर्शाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल को ‘कल्याणकारी’ उन्मुख कार्यकाल के रूप में जाना जाता है जिसमें स्वच्छता, आवास, गैस सिलेंडर, और इसी तरह की अनेकों योजनाएं देखीं गईं। इन योजनाओं की प्रभावशीलता पर बहस किए बिना, इसमें कोई संदेह नहीं है कि इन्होंने 2019 के चुनावों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, और ये केंद्र सरकार के दृष्टिकोण का प्रतीक थीं। महामारी की शुरुआत के बाद, यह कल्याणकारी-उन्मुख राजनीति प्राथमिकता नहीं रह गई है। सरकार द्वारा अपने खजाने को ढ़ीला करते हुए प्रत्यक्ष वित्तीय सहायता देने से साफ मना करना और बजाय इसके, अपने मौद्रिक नीति को ऊपर उठाने के साधनों पर भरोसा दिखाना, इस बदलाव के प्रमाण है। सरकार का व्यय बढ़ने के बजाय कम हो गया जो नवंबर 2020 से ही बढ़ना शुरू हुआ। महत्वपूर्ण बात यह है कि वित्तीय वर्ष 2020-21 में बढ़े हुए कुल व्यय (बजट अनुमान, 30.4 लाख करोड़ से संशोधित अनुमान 34.5 लाख करोड़ रुपये) में भारतीय खाद्य निगम के पिछले बकाया का रु.1.5 लाख करोड़ का पूर्व भुगतान शामिल है। वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में खाद्य सब्सिडी और मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम)7 (कोविड-19 राहत उपायों के दो प्रमुख स्तंभ) में लगातार बढ़ोतरी के बजाय भौतिक बुनियादी ढांचे पर जोर दिया जाना, और प्रवासी श्रमिकों एवं शहरी गरीबों को किसी भी प्रकार की सीधी सहायता न दिया जाना, अतीत की कल्याणकारी नीतियों से दूर हटने की ओर इशारा करते हैं। अब एक नई राजनीतिक अर्थव्यवस्था का दृष्टिकोण तैयार किया जा रहा है।
आइडियाज फॉर इंडिया पर की गई टिप्पणियों सहित कई टिप्पणीकारों ने उल्लेख किया है कि विस्तारित कल्याणकारी सहायता से दूर हटते हुए भौतिक बुनियादी ढांचे की ओर झ़ुकाव की पूरी लागत भारत के गरीब लोगों द्वारा ही वहन की जाएगी। भौतिक बुनियादी ढांचे में बढ़े हुए निवेश से होने वाला लाभ रोजगार एवं गरीबों के लिए मजदूरी वृद्धि में तुरंत परिवर्तित नहीं होगा। शासन में लगातार चुनौतियां आ रहीं हैं, जो 'बैड बैंक' और विकास वित्त संस्थान (डीएफ़आई) की घोषणाओं के बावजूद रातोंरात हल नहीं होंगी।
भारत की लॉकडाउन के बाद की आर्थिक रिकवरी संरचनात्मक असमानता को गहरा करने के संकेत दे रही है। आर्थिक गतिविधियां महामारी से पहले के स्तर के करीब पहुंच गई हैं, लेकिन यह काफी हद तक उच्च निर्यात-उपभोग अनुपात वाली हैं। बड़ी एवं सूचीबद्ध फर्मों ने छोटी फर्मों और अनौपचारिक क्षेत्र की लागत पर लाभ कमाया है। श्रम बाजार, विशेष रूप से अनौपचारिक श्रम पर पड़े दुष्प्रभाव गहरे हैं। महामारी के चरम समय पर चुने गए विकल्प राजनीतिक अर्थव्यवस्था के बदलाव को रेखांकित करते हैं और 2021-22 के बजट परिणामों से इंगित होता है कि आने वाले वर्षों में ये दुष्प्रभाव और गहरे होंगे।
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टिप्पणियां
- राजस्व व्यय वह व्यय है जो सरकारी विभागों और विभिन्न सेवाओं के सामान्य काम-काज चलाने, सरकार द्वारा लिए गए ऋण पर ब्याज प्रभार, सब्सिडी आदि के लिए किया जाता है।
- वास्तविक राजकोषीय घाटे को बजट के बाहर उधार के माध्यम से छुपाना। बजट के बाहर का उधार राज्य के स्वामित्व वाली फर्मों द्वारा लिया जाने वाला वह उधार है जो आधिकारिक बजट गणना का हिस्सा नहीं होता है।
- सरकार के कुल राजस्व और कुल व्यय के बीच अंतर को राजकोषीय घाटे के रूप में जाना जाता है और यह सरकार द्वारा आवश्यक कुल उधार का संकेत है। कुल राजस्व की गणना करते समय, उधारों को शामिल नहीं किया जाता। राजस्व घाटा तब उत्पन्न होता है जब सरकार की वास्तविक सकल प्राप्तियां अनुमानित प्राप्तियों से कम होती हैं।
- वित्त मंत्री निर्मला सितारमन ने गरीबो को कोविड-19 के दौरान राहत पहुचाने के लिये प्रधान मंत्री गरीब कल्याण योजना के अंतरगत रू.1.5 लाख करोड़ की राहत राशि की घोषणा की.
- बजट अनुमान आने वाले वित्त वर्ष के लिए बजट में किसी मंत्रालय या योजना को आवंटित धनराशि को बताता है। संशोधित अनुमान वर्ष के बीच में संभावित व्यय की समीक्षा है, और इसे व्यय हेतु संसदीय अनुमोदन या पुनर्विनियोजन आदेश के माध्यम से अधिकृत होने की आवश्यकता होती है।
- ऊर्ध्वाधर हस्तांतरण का अभिप्राय केंद्र के करों की शुद्ध आय को केंद्र और राज्यों के बीच वितरण से है।
- मनरेगा एक ऐसे ग्रामीण परिवार को एक वर्ष में 100 दिनों के मजदूरी-रोजगार की गारंटी देता है, जिसके वयस्क सदस्य निर्धारित न्यूनतम मजदूरी पर अकुशल मैनुअल काम करने को तैयार हैं।
लेखक परिचय: यामिनी अय्यर नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) की अध्यक्ष और चीफ़ एक्सिक्युटिव हैं।
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