कोविड-19 और इसके लिए किए गए लॉकडाउन ने ऐसे दो समूहों पर देश का ध्यान केंद्रित किया है जिनकी संख्या लाखों में है, परंतु इन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है: प्रवासी अनौपचारिक श्रमिक और प्रशासन की पहली पंक्ति के कर्मचारी। इस नोट में, विश्वनाथ गिरिराज, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी (सेवानिवृत्त) और महाराष्ट्र बांस संवर्धन फाउंडेशन के सीईओ, अपने अनुभव के आधार पर पहली पंक्ति के कर्मचारियों के रूप में एक महान लेकिन अनदेखे मानव संसाधन के बारे में बात करते हैं और सरकारी आदेशों को पूरा करते वक्त उन्हें हो रहे व्यावहारिक समस्याओं का उल्लेख करते हैं
कोविड-19 और इससे संबंधित लॉकडाउन ने ऐसे दो समूहों पर देश का ध्यान केंद्रित किया है जिनकी संख्या लाखों में है, परंतु इन पर उतना ध्यान नहीं दिया गया है जितना दिया जाना चाहिए था। इनमें पहला समूह प्रवासी अनौपचारिक श्रमिकों का है जो पूरे भारत में फैले हुए हैं लेकिन विशेष रूप से भागदौड़ वाले हमारे महानगरों में। वास्तव में, यदि हम गहराई से अध्ययन करें तो हम यह पाएंगे कि वे आर्थिक गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने में चुपचाप महत्वपूर्ण योददान दे रहे हैं, भले उन्हें अपने काम के अनुरूप उचित मजदूरी नहीं मिल रही है।
दूसरी श्रेणी प्रशासन की पहली पंक्ति के कर्मचारियों की है - राज्य सरकारों और नगरपालिका प्रशासन और ग्राम पंचायतों (ग्राम सभाओं) के वेतनभोगी कर्मचारी। इन श्रमिकों को भी अनुबंध के माध्यम से या मानव बल एजेंसियों के माध्यम से ‘आउटसोर्स’ श्रमिक के रूप में काम पर रखे जाने में तेजी आ रही है।
स्वाभाविक रूप से, स्वास्थ्य कार्यकर्ता – अस्पताल आधारित नैदानिक कार्यकर्ता और स्वास्थ्य विस्तार कार्यकर्ता - दोनों अब ध्यान का केंद्र बने हुए हैं और ये ही वास्तविक नायिकाएं हैं (क्योंकि इनमें से अधिकांश महिलाएं हैं) तथा अत्यधिक प्रशंसा की हकदार हैं।
पहली पंक्ति के कर्मचारी वे लोग हैं जो राज्य की ओर से जनता के साथ पहला संपर्क करते हैं। एक आम आदमी के लिए वे हीं 'सरकार' हैं और ये कर्मचारी जिस तरह से उसके साथ व्यवहार करते हैं वह समग्रता में सरकार के अपने दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता है। यह कहा जा सकता है कि भारत में साधारण लोग अपनी सरकार को बौद्धिक रूप से समझने के बजाय पहली पंक्ति के कर्मचारियों के माध्यम से ही अनुभव करते हैं।
पहली पंक्ति के कर्मचारियों की दो श्रेणियां
हम पहली पंक्ति के कर्मचारियों को दो श्रेणियों में विभाजित कर सकते हैं। पहली श्रेणी नियामक लोगों की है - जैसे पुलिस कांस्टेबल, राजस्व व्यक्ति (पटवारी), मोटर वाहन निरीक्षक, नगर निगम के घर निरीक्षक, श्रम कानूनों, दुकानों एवं प्रतिष्ठानों, तौल एवं मापों के लिए विभिन्न प्रकार के नियामक तथा अनुपालन निरीक्षक, और ऐसे ही अन्य। (हम पुलिस कांस्टेबलों को इस चर्चा के लिए अलग रखेंगे क्योंकि वे अपने आप में विशेष प्रकार के हैं!) लोग अपने हित के कारण इन कर्मचारियों के साथ बहुत विनम्र और आज्ञाकारी होते हैं क्योंकि ये कर्मचारी इन्हें परेशान करने में सक्षम हैं, लेकिन कहीं न कहीं लोग इन्हें अक्षम, अशिष्ट समझते हैं और उनका अपमान करते हैं। यह प्रशंसनीय है कि, पिछले दो दशकों में, सभी राज्य सरकारें इन नियामक कर्मचारियों की विवेकाधीन शक्ति को प्रभावी ढंग से कम करने की कोशिश कर रही हैं, जैसे कि अभिलेखों का कम्प्यूटरीकरण, ऑनलाइन आवेदन, प्रमाणपत्रों की समयबद्ध डिलीवरी तथा अनुमोदन, विभिन्न सेवाओं की आउटसोर्सिंग, प्रत्यक्ष लाभ अंतरण, और यहां तक कि 'सेवा का अधिकार अधिनियम' को लागू करना। ‘सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम’ ने भी इसमें मदद की है। निवेशों को आकर्षित करने के लिए राज्य सरकारों को यह दिखाना होगा कि वे कितनी व्यवसाय अनुकूल हैं, और इस प्रकार अत्याधुनिक तरीके से बाधाओं को दूर करने का प्रयास करती हैं, लेकिन नौकरशाही की शक्ति चीजों को इस प्रकार उलझा देती है कि जैसे ही एक विभाग एक बाधा दूर करता है तो दूसरा विभाग नियमित रूप से चुपचाप इसमें दूसरी बाधा खड़ी कर देता है।
पहली पंक्ति के कर्मचारियों की दूसरी श्रेणी विकास श्रमिकों की है जिनके पास अपने नियामक समकक्षों की तरह कानून के शक्ति नहीं है। ये स्वास्थ्य विस्तार एवं आशा कार्यकर्ता (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, सफाई निरीक्षक, स्थानीय निकायों के ठोस एवं तरल कचरा सफाई कर्मचारी, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, कृषि सहायक, ग्राम सेवक, आदि हैं।
ये दोनों श्रेणियां बाढ़ या चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय ‘विशेष’ तथा आकर्षण का केंद्र बन जाती हैं, जब वे लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाकर या आपदा के बाद राहत देकर क्षति को रोकने के लिए तेजी से कार्य करती हैं। उदाहरण के लिए, स्वास्थ्य कार्यकर्ता उस समय पूरी क्षमता से कार्यरत हो जाते हैं जब मीडिया में यह सूचना मिलती है कि अचानक स्थानीय मलेरिया महामारी फैल गई है, या कुपोषण से मौतें हुई हैं। अपने क्षेत्र में एक फसल पर असामान्य कीट का हमला होने पर कृषि सहायक पूरी क्षमता से कार्य करने लगता है। वे सभी ऐसी परिस्थितियों के दौरान कठिनाइयों का सामना तो करते हैं पर अपना कार्य करते रहते हैं। ऐसे समय में, पहली पंक्ति के कर्मचारियों के सामने बड़ी चुनौती खुद ‘समस्या’ नहीं है, बल्कि मुख्य चुनौती विभिन्न विभागों के वीआईपी आगंतुकों और शीर्ष अधिकारियों की भीड़ है, जो बिना किसी खास सहायता प्रदान किए बार-बार हॉटस्पॉट का दौरा कर भ्रम को और बढ़ा देते हैं जिससे इन कर्मचारियों को कम समय में चीजों को बेहतर बनाने के लिए समय एवं स्थान नहीं मिल पाता। ऐसे वक्त में मीडिया का दबाव भी बढ़ जाता है, जिसे हर घंटे सुर्खियां चाहिए होती है।
जनगणना और चुनाव जैसे विशेष समयबद्ध कार्यक्रमों में भी इन सभी कर्मचारियों को काम पर लगाया जाता है। उन हफ्तों के दौरान उनका नियमित कार्य आशानुरूप ढ़ंग से पूरा नहीं हो पाता है।
प्रशंसनीय रूप से, ये सभी कर्मचारी आम तौर पर ऐसे अवसरों पर खरे उतरते हैं जब उन्हें एक समय-सीमा के भीतर प्रदर्शन करना होता है, और उनके राजनीतिक और प्रशासनिक आकाओं तथा मीडिया द्वारा उन्हें लगातार देखा जाता है। इनकी शांत वीरता के कई किस्से-कहानियां बताने लायक हैं। 1980 के दशक तक आम चुनावों के समय, जब सड़क संपर्क खराब हुआ करता था, तब पहली पंक्ति के कर्मचारी समय पर चुनाव बूथ तक पहुंचने के लिए सिर पर मतपेटियों के साथ मगरमच्छ से प्रभावित नदियों और धाराओं को पार करते थे। मई 1991 में, राजीव गांधी की हत्या के कारण अगले दिन का मतदान स्थगित कर दिया गया था लेकिन मणिपुर के एक दूरदराज के गाँव में एक मतदान दल को संदेश नहीं मिला था, जो पहले ही गाँव पहुँच चुका था, उसने ईमानदारी से मतदान पूरा करवाया और दो दिन बाद वापस लौटा और लौटने के बाद उसे पता चला कि क्या हुआ था। 1977 के आंध्र चक्रवात, और 2001 के भुज भूकंप के दौरान, कई श्रमिकों को अपने घरों में मौत या क्षति का सामना करना पड़ा, लेकिन अपने व्यक्तिगत दुखों को पीछे छोड़ वे काम करने के लिए आगे आये थे। उन्हें अपना कर्तव्य निभाना था क्योंकि केवल वे ही अपने स्थानीय मुहल्ले और लोगों के बारे में जानते थे और उन्हीं के पास कार्यालय के रिकॉर्ड थे। भोपाल गैस त्रासदी (1984) के बाद, मृत मनुष्यों के सामूहिक दाह संस्कार के बाद भी बदबू बनी रही। यह महसूस किया गया कि बड़ी संख्या में मवेशी बकरियों, मुर्गियों और छिपकलियों की भी मृत्यु हुई थी। तब इन्हीं पहली पंक्ति के कर्मचारियों के समूह ने असहनीय बदबू को सहन करते हुए बुलडोजर का इस्तेमाल करके जानवरों को दफनाया था।
पहली पंक्ति के कर्मचारियों को लगातार खींचा जाता है - कभी-कभी विरोधाभासी दिशाओं में - दो मालिकों द्वारा: राजनीतिक मालिक (स्थानीय विधायक, सरपंच, या नगरपालिका पार्षद) और उनके स्वयं के प्रशासनिक मालिक। ऐसे कर्मचारियों में से चतुर लोग सहज ज्ञान से उस पुरानी कहावत को जानते हैं कि जिस नौकर के दो स्वामी होते हैं वह स्वतंत्र होता है! एक प्रमुख राज्य में एक ग्रामीण विकास सचिव के रूप में, मैंने हमेशा पाया कि सरपंच असहयोग के लिए ग्राम सेवक को दोषी ठहराता है और ग्राम सेवक सरपंच को। मुझे अभी भी यह नहीं पता कि कौन सही है, लेकिन मुझे इतना पता है कि अगर उन्हें केवल एक कप चाय भी दी जाए तो वे उसे आपस में बांट लेंगे।
यहां तक कि उनके स्तर पर भ्रष्टाचार भी बाह्य कारणों से होता है। उदाहरण के लिए, उन्हें काम से संबंधित यात्रा पर काफी खर्च करना पड़ता है, जैसे कि उनके मुख्यालयों में बार-बार जाना - जिसके लिए उनके दावों को लंबित रखा जाता है, क्योंकि वेतन के अलावा अन्य कार्यों के लिए बजटीय अनुदान हमेशा अपर्याप्त होते हैं। यह देख कर बड़ा दुख होता है कि ईमानदार महिला स्वास्थ्य विस्तार कार्यकर्ताओं को उनके वास्तविक बस यात्रा खर्चों के लिए महीनों तक प्रतिपूर्ति नहीं की जाती है। कोई आश्चर्य नहीं कि वे इस कमी को पूरा करने के लिए कुटिल तरीके खोजते हैं।
एक महान मानव संसाधन
डॉक्टर स्वास्थ्य के मुद्दों को तीव्र और पुराने के रूप में वर्गीकृत करते हैं। तीव्र मामलों में (जैसे कि लगातार बुखार, खून बहना, आदि) रोगी की इलाज जल्दी करनी होगी अन्यथा वह मर जाएगा। पुरानी बीमारियां वे हैं जो जीवनभर चलती हैं, जिन्हें भोगना पड़ता है। रोगी दवाइयाँ लेते हैं और इसके साथ जीना भी सीख लेते हैं। इस सादृश्य का उपयोग करते हुए, हमारे पहली पंक्ति के कर्मचारी किसी भी तरह की तीव्र स्थिति (संकट पढ़ें) को अच्छी तरह संभाल लेते हैं, लेकिन हमेशा की तरह चीजें ‘फिर वैसी ही’ हो जाती हैं और हम उनके साथ रहना सीख लेते हैं। वे पूरे वर्ष इसी प्रकार की देखभाल और संवेदनशीलता क्यों नहीं दिखाते हैं, यह एक पहेली में लिपटा हुआ रहस्य है। शायद, इस पर एक अंतर्दृष्टि से, भारतीय मानसिकता को भी समझने में मदद मिलेगी?
लोक प्रशासन साहित्य में, उच्च नौकरशाही के बारे में पुस्तकों और विद्वानों के बहुत सारे अध्ययन हैं - विशेष रूप से आईएएस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) और आईपीएस (भारतीय पुलिस सेवा)। इसके अतिरिक्त, आपके पास संस्मरण और अंदरूनी सूत्र द्वारा कही कहानियां हैं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि शायद ही हमारे पहली पंक्ति के लाखों कर्मचारियों पर कोई अध्ययन या 360-डिग्री मानव संसाधन विश्लेषण किया गया हो। यह मानना होगा कि यह एक अलग सांस्कृतिक पूर्वाग्रह है, क्योंकि क्षेत्र में पहली पंक्ति के कर्मचारियों द्वारा किया गया कार्य अंत में उतना ही महत्वपूर्ण होता है जितना कि अच्छा नीति निर्धारण। वास्तव में खाना कैसा बना है यह चखने पर ही जाना जा सकता है।
हम, आम तौर पर, समस्या के पैदा होने के बाद हीं जागते हैं। 1950 के दशक में, दिल्ली में पीलिया महामारी थी जिसमें एक मंत्री के परिवार के सदस्य भी बीमार हो गए थे। पता चला कि सीवेज का पानी और पीने का पानी कहीं मिल गया था। समझदार लोगों ने महसूस किया कि पानी की गुणवत्ता महत्वपूर्ण थी। राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरी संस्थान (एनईईआरआई) को तब इसके पिछले स्वरूप में स्थापित गया था। एनईईआरआई एक संस्थान है जो मुख्य रूप से पानी की गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित करता है।
आशा है कि कोविड-19 के बाद, नीति विशेषज्ञ, जो ’राज्य क्षमता को मजबूत करने’ की बात कर रहे हैं, और लोक प्रशासन प्रशिक्षण केंद्र हमारे राज्य के पहली पंक्ति के कर्मचारियों पर उतना ध्यान देंगे जितना दिया जाना चाहिए। वे एक महान मानव संसाधन हैं जिनका हम कम लागत पर, शीघ्र और शांति से उन्नयन कर सकता है।
लेखक परिचय: विश्वनाथ गिरिराज एक भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) अधिकारी हैं जो अतिरिक्त मुख्य सचिव के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे। वे वर्तमान में महाराष्ट्र बांस संवर्धन फाउंडेशन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।
Comments will be held for moderation. Your contact information will not be made public.