भारत के 2022-23 के केंद्रीय बजट का विश्लेषण करते हुए, नीरज हाटेकर तर्क देते हैं कि मनरेगा, ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम, जिसे 2021-22 के बजट अनुमानों की तुलना में अतिरिक्त धन प्राप्त नहीं हुआ है, का उपयोग मंडरा रहे कृषि संकट से निपटने के लिए किया जाना चाहिए। वे स्वास्थ्य और पोषण संकेतकों की गिरावट की भी जांच करते हैं, और यह विचार रखते हैं कि इसके समाधान हेतु बजट में कोई उल्लेखनीय पहल नहीं की गई है।
2022-23 के बजट की घोषणा दो महत्वपूर्ण चुनौतियों की पृष्ठभूमि में की गई थी। हालांकि महामारी काफी चुनौतीपूर्ण थी, फिर भी इन चुनौतियों में महामारी का कोई सन्दर्भ नहीं है। पहली गंभीर चुनौती पर्याप्त संसाधन जुटाने में केंद्र सरकार की अक्षमता है, जो पिछले कुछ वर्षों से एक समस्या बनी हुई है। सरकार की 8% कर-जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) अनुपात प्राप्त करने की इच्छा है, लेकिन वह अभी तक ऐसा करने में असमर्थ रही है। इसे प्राप्त करने में आने वाले अंतर को विनिवेश के जरिये भरने का प्रयास भी कुल मिलाकर असफल रहा है- इसमें पिछले वर्ष 10,000 करोड़ रुपये की कमी रही है। इस साल जीएसटी (वस्तु और सेवा कर) राजस्व में हुई वृद्धि मुख्य रूप से आयात के कारण है, जो चालू खाता घाटे से उबरने के समान है। दूसरी ओर, लाभ में वृद्धि के अनुरूप लाभ करों में वृद्धि नहीं हुई है, और आय करों में भी पर्याप्त वृद्धि नहीं हुई है। कुल मिलाकर, कोई वास्तविक कर लाभ नहीं हुआ है। इसलिए, विशेष रूप से राजकोषीय घाटे को नियंत्रण में रखने की बाधा को देखते हुए खर्च के लिए गुंजाइश, जिसकी नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण (2021-22) ने उम्मीद की थी, नहीं रखी गई है। फिर, हमारे पास उस शीर्ष (हेड रूम) में दो बहुत बड़ी समस्याएँ हैं जिन्हें वित्त मंत्री ने संबोधित नहीं किया था, और ये समस्याएँ तब से मौजूद हैं जब कोविड-19 के बारे में किसी ने सुना भी नहीं था।
कृषि पर मंडरा रहा संकट, और मनरेगा का लाभ दिया जाना
पहली समस्या, कृषि पर मंडरा रहा संकट है। हम एनएसएसओ (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय) द्वारा उनके 77वें दौर (जनवरी-दिसंबर 2019) में किए गए "ग्रामीण भारत में कृषि परिवारों और परिवारों की भूमि जोत की स्थिति आकलन रिपोर्ट, 2019" सर्वेक्षण पर विचार करते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार, देश में औसत कृषि परिवार फसलों की बिक्री से शुद्ध प्राप्तियों के रूप में (लगाए गए खर्चों सहित सभी खर्चों की अनुमति के बाद) प्रति माह 3,058 रुपये, मजदूरी के रूप में 4,063 रुपये, पशुओं की बिक्री से 441 रुपये, और अन्य 641 रुपये गैर-कृषि व्यवसायों से शुद्ध प्राप्तियों के रूप में रुपये कमाता है। इन आंकड़ों को परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए: रंगराजन समिति द्वारा वर्ष 2012 में तय की गई गरीबी रेखा के अनुसार पांच सदस्यों के ग्रामीण परिवार के लिए मासिक व्यय 4,860 रुपये है। यदि हम अंतिम खपत व्यय अपस्फीतिकारक का उपयोग करके इसे अद्यतन करते हैं, तो 2019 में यह लगभग 7,500 रुपये हो जाता है। इससे पता चलता है कि वर्ष 2019 की कीमतों को छोड़ भी दें तो भी, वर्ष 2019 में औसत ग्रामीण परिवार केवल 2012 की कीमतों पर फसलों की बिक्री से आय के आधार पर गरीबी रेखा से ऊपर नहीं रह पाएगा। परिवारों को बचे रहने के लिए मजदूरी का काम खोजना होगा। कृषि, विशेष रूप से छोटी जोत वाली शुष्क-भूमि कृषि अपने आप में, अब आर्थिक रूप से व्यवहार्य उद्यम नहीं है। मुख्य समस्या उर्वरकों, कीटनाशकों आदि की बढ़ती कीमतों की है, जो खेती के खर्च का लगभग एक तिहाई हिस्सा है, और समस्या उपज की अनिश्चित कीमतें भी हैं। यहीं पर मनरेगा1 (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) जैसे सामाजिक कार्यक्रम प्रासंगिक हो जाते हैं। वर्ष 2004 और 2012 के बीच की उच्च आर्थिक विकास की अवधि के दौरान भी, वर्तमान शोध अन्य सहायक लाभों के साथ-साथ गरीबी को कम करने में मनरेगा द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका की ओर इशारा करते हैं। इसका न केवल गरीबी पर प्रभाव पड़ा है, बल्कि शिक्षा, महिला सशक्तिकरण, आहार सेवन और शिशु पोषण, सभी पर सकारात्मक रूप से प्रभाव पड़ा है। हिंसा और संकट के दौरान प्रवास में भी कमी आई है। 45,000 परिवारों के एक पैनल पर किये गए एक अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि वर्ष 2004 और 2012 के बीच लगभग एक तिहाई गरीबी में कमी मनरेगा के कारण आई है (अफरीदी एवं अन्य 2013, दास 2015, दास 2018, देसाई एवं अन्य 2015)। अब यह अच्छी तरह से समझा गया है कि विकास मजबूत होने पर भी अपने आप नीचे नहीं आता है। लड़खड़ाती वृद्धि के वर्तमान परिदृश्य में (आधार प्रभावों को घटाकर- वर्ष 2017 की तीसरी तिमाही से तिमाही सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर धीमी हो रही है), यह संभावना और भी कम है कि केवल "अमृत काल"2 होने के कारण गरीबी और संकट अपने आप गायब हो जाएगा। गरीबी को कम करने के लिए यह आवश्यक है कि महत्वपूर्ण नीतिगत हस्तक्षेप विशेष रूप से गरीबों के लिए निर्देशित हो। मनरेगा एक ऐसा प्रमुख हस्तक्षेप है जिस पर पिरामिड के निचले भाग में स्थायी, व्यापक-आधारित और समावेशी विकास आवेगों को बनाने के लिए कुछ हद तक फिर से काम किया जा सकता था। मनरेगा के तहत 260 से अधिक गतिविधियां की जा सकती हैं, और यह गरीब परिवारों में लचीलापन लाने के साथ-साथ विकास को आगे बढ़ाने के लिए एक शक्तिशाली साधन बन सकता है। उदाहरण के लिए, यदि मनरेगा के तहत गरीबों को उनके खेतों पर मवेशियों के लिए शेड बनाने हेतु भुगतान किया जाता है, तो इससे रोजगार उत्पन्न होगा और सामग्री की मांग उत्पन्न होगी।
फिर भी, सामग्री के भुगतान के वितरण में होने वाली देरी को देखते हुए, अंतिम भुगतान की कोई गारंटी नहीं होने के कारण आपूर्तिकर्ता आम तौर पर महीनों या वर्षों के लिए क्रेडिट लाइन का विस्तार करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। संभावित सुधारों के लिए एक अन्य प्रमुख क्षेत्र शासन-विधि के अधीन है। यह अधिनियम ब्लॉक स्तर को छोड़कर सभी स्तरों पर पारदर्शिता प्रदान करता है, जहां वास्तविक शक्ति केंद्रित है। परिणामस्वरूप, उप-जिला स्तर पर, अधिनियम को कैसे प्रबंधित किया जाना है इसे नौकरशाह तय करते हैं। खंड विकास अधिकारी और कनिष्ठ अभियंता अक्सर स्थानीय परिषदों पर अपनी प्राथमिकताएं थोपने में सफल रहे हैं, जबकि स्थानीय परिषदों को कानूनन अधिक शक्तियां होनी चाहिए। ये नौकरशाह अक्सर योजना के कार्यान्वयन में बाधा डालते हैं और रिश्वत के लिए स्थानीय परिषदों पर दबाव डालते हैं। हालाँकि, योजना भी इन अधिकारियों के बगैर नहीं चलाई जा सकती है और इसलिए, इस पर फिर से काम करने की आवश्यकता है। ये कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां अधिनियम में सुधार की आवश्यकता है, और एक सुधारित अधिनियम रोजगार और आय उत्पन्न करेगा, और बाद के खर्च के गुणक प्रभाव होंगे जिनकी सरकार उम्मीद कर रही है। क्या यह राजमार्गों के निर्माण की राउंड-अबाउट पद्धति के बजाय विकास उत्पन्न करने का एक अधिक प्रत्यक्ष तरीका नहीं होगा जो वास्तव में फ़िल्टर हो जाता है? फिर भी, 2022-23 के बजट में यह रह गया है। मनरेगा के लिए किया गया आवंटन 2021-22 के बजट अनुमानों के अनुसार है, जो 2021-22 के बजट के संशोधित अनुमानों से कम है, और 2020-21 के बजट के वास्तविक अनुमान से बहुत कम है। हमें केवल 'संकट' के समाधान के रूप में मनरेगा की ओर देखना बंद कर देना चाहिए।
हमें शीघ्रता से रोजगार सृजित करने की जरूरत है। दुर्भाग्य से, सार्वजनिक रूप से विनियमित संस्थानों के माध्यम से 'कौशल' प्रदान करने के कार्य को अच्छी तरह से किये जाने की उम्मीद नहीं है। हम सभी इस बात से अवगत हैं कि राज्य द्वारा संचालित स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा प्रणाली कैसे काम करती है, और यह इस प्रणाली की विफलता है जिसने पहले स्थान पर 'कौशल' की आवश्यकता निर्माण की है। इसलिए, यह आशा कि हम युवा महिलाओं और पुरुषों को बाजार की गतिशील और हमेशा बदलती जरूरतों से मेल खाने के लिए कौशल प्रदान कर सकते हैं, केवल एक भ्रम हो सकता है। वास्तव में बेहतर होगा कि बाजार को यहां काम करने दें – संशोधित मनरेगा के माध्यम से जमीनी स्तर पर खर्च करके कुशल कर्मियों, राजमिस्त्री, बढ़ई आदि की मांग का निर्माण करने दें और निजी कौशल संस्थानों को विकसित होने की अनुमति देकर बाजार को अपना जादू चलाने दें। प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करके भुगतान में होनेवाली देरी को टाला जा सकता है। एक संभावना यह है कि सामग्री के लिए धन को सीधे लाभार्थी के खाते में जमा करने की नीति से विचलन किया जाए क्योंकि अंततः इससे भुगतान नहीं किये जाने का डर हो सकता है। आपूर्तिकर्ता विलंबित भुगतान को सहन कर सकते हैं, लेकिन ऐसा कोई विश्वसनीय तरीका नहीं है जिससे लाभार्थी अंततः नहीं चाहते तो भी उन्हें आपूर्तिकर्ताओं को चुकाने के लिए बाध्य किया जा सके। बजाय इसके, केवल सामग्री के लिए रकम स्थानीय परिषद के खाते में जमा की जा सकती थी। आपूर्तिकर्ताओं के पास सरकारी प्रणाली के साथ काम करने के तरीके होते हैं और इसका एक लाभ जमीनी स्तर पर सही कौशल सेट वाले कुशल लोगों- जैसे कि राजमिस्त्री, बढ़ई आदि की बढ़ती मांग होगी। भारतीय शिक्षा प्रणाली का दूसरा आदर्श सिद्धांत 'गुणवत्ता सुनिश्चित करने हेतु विनियमन' है; और ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि अच्छे कौशल संस्थान बचे रहेंगे, और प्रशिक्षुओं द्वारा खराब संस्थानों का पता लगाया जाएगा और वे अपने आप ही समाप्त हो जाएंगे।
स्वास्थ्य और पोषण के संबंध में महत्वपूर्ण पहलों का अभाव
दूसरी बड़ी समस्या, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)-5 (2019-21) के निष्कर्षों में है। एनएफएचएस-5 कई महत्वपूर्ण स्वास्थ्य आदानों के वितरण में महत्वपूर्ण सुधार दिखाता है। भारत ने स्वच्छ ईंधन, टीकाकरण आदि कई क्षेत्रों में भी अच्छी प्रगति की है। फिर भी, साक्षरता में वृद्धि की दर और पोषण संकेतकों में सुधार की दर एनएफएचएस-4 (2015-16) और एनएफएचएस-5 के बीच धीमी हो गई है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों में एनीमिया खतरनाक रूप से बढ़ गया है और इस आयु वर्ग के तीन में से दो बच्चे अब एनीमिक हैं। एनीमिया से वयस्क महिलाएं और पुरुष भी अछूते नहीं रहे हैं, पहले मामले में मामूली वृद्धि और बाद के मामले में 4% की वृद्धि हुई है। मोटापे की एक उभरती चुनौती भी है। मोटापे या अधिक वजन वाली महिलाओं का प्रतिशत एनएफएचएस-4 में 20.6% था, जो एनएफएचएस-5 में बढ़कर 24% हो गया है, और अधिक वजन वाले बच्चों का प्रतिशत 2.1% से बढ़कर 3.4% हो गया है। इसके अलावा, कुल प्रजनन दर निकट-प्रतिस्थापन स्तर तक गिर गई है और "अमृत काल" के दौरान बुजुर्गों को चिकित्सकीय और आर्थिक रूप से प्रबंधित करने की समस्याएं गंभीर होने जा रही हैं। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल की आवश्यकता थी लेकिन इस बजट में नहीं की गई है। बजाय इसके, तीन पिछली योजनाओं को केवल एक साथ जोड़ा गया है, जिनका नया नाम सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण 2.0 है, जबकि इनके लिए बजट आवंटन के साथ-साथ इनका वितरण तंत्र भी वही3 है।
निष्कर्ष
सरकार पर्याप्त संसाधन नहीं जुटा पाई है। फिर भी, 'विकास पैरवीकारों' के दबाव में, इसने पूंजीगत व्यय में उल्लेखनीय वृद्धि करना चुना है। हालांकि, इसने विकास, रोजगार और बेहतर स्वास्थ्य प्राप्त करने के वैकल्पिक तरीके के लिए पर्याप्त खर्च नहीं करने की कीमत पर ऐसा किया है। एक साथ दो बड़ी और विकराल समस्याएं हैं। वे आसानी से इसलिए नहीं जाएँगी क्योंकि इन्हें नहीं माननेवाले यह दिखावा करना चाहेंगे कि ये समस्याएं हैं ही नहीं, और उन्हें इस "अमृत काल" के दौरान निपटने की आवश्यकता है।
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टिप्पणियाँ:
- मनरेगा एक ऐसे ग्रामीण परिवार को एक वर्ष में 100 दिनों के मजदूरी-रोजगार की गारंटी प्रदान करता है, जिसके वयस्क सदस्य निर्धारित न्यूनतम मजदूरी पर अकुशल शारीरिक कार्य करने के इच्छुक होते हैं।
- वित्त मंत्री द्वारा 2022-23 के बजट भाषण में वर्णित अमृत-काल शब्द वैदिक ज्योतिष से लिया गया है और इसे एक शुभ काल माना जाता है।
- वर्ष 2021-22 के बाद से लागू छत्र योजनाओं- सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण अभियान 2.0, को आंगनवाड़ी, पोषण अभियान, और किशोरियों के लिए योजना (एसएजी) के नाम से एक साथ लाया गया है, जिनके लिए वर्ष 2021-22 के कुल बजटीय आवंटन 20,105 करोड़ रुपये की तुलना में वर्ष 2022-23 में बजटीय आवंटन 20,263.07 करोड़ रुपये रखा है।
लेखक परिचय: नीरज हाटेकर मुंबई विश्वविद्यालय (सेवानिवृत्त) में अर्थमिति के प्रोफेसर थे, और लगभग 3 दशकों तक शिक्षक, शोधकर्ता और कार्यकर्ता रहे हैं।
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