आज भारत की स्कूली शिक्षा प्रणाली में चुनौती यह है कि स्कूली शिक्षा को ‘सीखने’ में कैसे रूपांतरित किया जाए। जहाँ सीखने 'संकट पर दुखी होने के कारण मौजूद हैं वहीं उत्तर प्रदेश में एक अनोखी क्रांति हो रही है। इस नोट में जे-पाल साउथ एशिया की कार्यकारी निदेशक शोभिनी मुखर्जी ने सरकार द्वारा चलाए जा रहे ‘ग्रेडेड लर्निंग प्रोग्राम ’ के ज़रिए राज्य की प्राथमिक शिक्षा प्रणाली में लाए गए बदलाव का ज़िक्र किया है।
ज़रा सोचकर देखिए कि बिना बुनियादी ज़रूरतों के ज़िन्दगी जीना कितना मुश्किल है। ठीक उसी तरह जैसे बच्चे लगातार स्कूल तो जाते रहते हैं फिर भी बुनियादी पढ़ना और गणित करना उन्हें नहीं आता है। भारतीय शिक्षा प्रणाली की यह बड़ी चुनौती है कि स्कूली शिक्षा को ‘सीखने’ में कैसे रूपांतरित किया जाए? अब भारत में नामाँकन का स्तर 97 प्रतिशत तक पहुँच गया है, लेकिन साल दर साल के उपलब्ध आँकड़े दर्शाते हैं कि कक्षा 5 में नामाँकित आधे बच्चे ही सरल पाठों को धाराप्रवाह पढ़ पाते हैं।
जहाँ हम सीखने के संकट को लेकर दुखी हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में एक अनोखी क्रांति भी चल रही है। इस वर्ष जनवरी से 1,13,000 सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले 84 लाख बच्चों के लिए सरकार ने ‘ग्रेडेड लर्निंग प्रोग्राम’ (जीएलपी) नामक कार्यक्रम की शुरुआत की है । इसमें शिक्षकों द्वारा कक्षा 1 से 5 तक के बच्चों का उनके वर्तमान पढ़ने और गणित करने के स्तर के अनुसार समूह बनाया गया और उनके बुनियादी कौशलों को मज़बूत करने के लिहाज से प्रत्येक स्तर के समूह के लिए उचित गतिविधियों और सामग्रियों का उपयोग किया गया। इसके लिए स्कूल समय के दौरान 2 घंटे का समय भी निश्चित किया गया। उत्तर प्रदेश के 1,13,000 विद्यालयों के 2,30,000 शिक्षकों द्वारा अपने मोबाइल फ़ोन में एंड्रायड एप्लीकेशन डाउनलोड करके प्रत्येक कक्षा के लर्निंग डाटा को नियमित रूप से अपलोड किया गया। डाटा के आधार पर चार्ट और सरल बार-ग्राफ़ प्रदर्शित करने वाले व्यापक डैशबोर्ड भी तैयार किए गए और प्रगति को देखने के लिए विभिन्न स्तरों पर उसकी समीक्षा की गई। यह कौन जानता था कि प्रेरित शिक्षकों और संरचित पद्धति द्वारा पढ़ने के स्तर में 22 प्रतिशत अंकों के सुधार जैसी असाधारण उपलब्धि हासिल हो जाएगी!
ग्रेडेड लर्निंग प्रोग्राम
‘ग्रेडेड लर्निंग प्रोग्राम’ की शुरुआत ‘प्रथम’ और ‘उत्तर प्रदेश बुनियादी शिक्षा विभाग’ की साझेदारी से अगस्त 2018 में की गई थी, जिसके तहत राज्य के सभी प्राथमिक विद्यालयों के बच्चों को शामिल करने का प्रयास किया गया था। इसके तीन लक्ष्य थे: (1) बच्चों के वर्तमान पढ़ने के स्तर और अंक-गणित सीखने के स्तरों में सुधार लाना, (2) विद्यालयों में पढ़ना-लिखना सीखने के लिए नई पद्धतियों का इस्तेमाल करना, तथा (3) प्रखंड और ज़िला स्तर पर मॉनीटरिंग (निगरानी), मेंटोरिंग (सहयोग) और अकादमिक सहायता की क्षमता प्रदान करना । कुछ समय की देरी के बाद जनवरी 2019 में यह कार्यक्रम राज्य के सभी 75 जनपदों के सभी विद्यालयों में पहुँच गया।
अगले तीन महीनों में, कक्षा 3 और 4 के 17 लाख बच्चे हिंदी में कक्षा 1 के पाठों को पढ़ पा रहे थे। कक्षा से लेकर राज्य के नौकरशाही के गलियारों तक समर्थन और ज़िम्मेदारी लेना और इतने बड़े पैमाने पर ऐसी सफलता पाना असाधारण से कम नहीं है।
सवाल यह उठता है कि उत्तर प्रदेश ने ऐसा क्या किया? जवाब आश्चर्यजनक रूप से साधारण ज़रूर है लेकिन आसान नहीं। इस पहल में ‘टीचिंग ऐट द राइट लेवल’ (संक्षेप में ‘टार्ल’ - सही स्तर पर शिक्षण) नामक शिक्षाशास्त्रीय पद्धति को अपनाया गया, जिसमें बच्चों के पढ़ने और गणित सम्बंधी कौशलों की जाँच करके उनके वर्तमान पढ़ने और गणित करने के स्तर के अनुसार समूह में बैठाया जाता है न कि उनकी उम्र और कक्षा के अनुसार। टार्ल, ‘प्रथम’ और ‘अब्दुल लतीफ जमील पावर्टी एक्शन लैब’ (जे-पाल) से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा एक दशक से भी अधिक समय तक साथ किए गए अनुसंधान और कार्यान्वयन का परिणाम है, जिसका लक्ष्य प्राथमिक विद्यालयों के बच्चों के शैक्षिक स्तर में सुधार के लिए यह जानना था कि क्या काम करता है, कैसे काम करता है और किस पैमाने पर काम करता है।
पिछले 18 वर्षों में ‘प्रथम’ के साथ मिलकर ‘जे-पाल’ के शोधकर्ताओं ने भारत के कई राज्यों में अनेक कार्यक्रमों का मूल्याँकन किया है, जिनका लक्ष्य शिक्षाशास्त्रीय हस्तक्षेपों के ज़रिए बच्चों के सीखने के स्तर में सुधार लाना रहा है । इन हस्तक्षेपों की जाँच अनेक स्थितियों में रखकर की गई है - विद्यालयों और समुदायों में स्वयंसेवकों द्वारा, विद्यालयों के शिक्षकों और अधिकारियों द्वारा। ढेर सारे प्रमाण उपलब्ध हुए हैं जो दर्शाते हैं कि पाठ्यक्रम को सख्ती से पूरा करने की बजाय, बच्चों के वर्तमान पढ़ने के स्तर को ध्यान में रखते हुए शिक्षण कार्य शिक्षा सम्बंधी परिणामों में लगातार सुधार लाता है। ‘टीचिंग ऐट द राइट लेवल’ को यहाँ तक पहुँचने से पहले अलग-अलग स्तर पर जाँचा-परखा गया और कई बदलाव किए गए तब यह भारत और अफ्रीका के 5 करोड़ बच्चों तक पहुँच पाया है। यदि उत्तर प्रदेश की बात की जाए तो यहाँ 50, 100, और 500 विद्यालयों के अनुभवों के आधार पर 1,13,000 विद्यालयों में इसका विस्तार किया गया है।
सरकार, डोनर्स और समुदाय के हितधारकों द्वारा अक्सर पूछा जाता है कि सफलता को कैसे मापा जाना चाहिए? प्रशासनिक रुकावटों और भ्रष्टाचार के कारण क्या कीमत चुकानी पड़ती है? ‘स्वामित्व’ और ‘निरंतरता’ के अर्थ क्या हैं?
ज़मीनी स्तर के प्रबंधक : इतने बड़े पैमाने पर कार्यक्रम को सफलतापूर्वक कार्यान्वन के लिए बड़ी सावधानी से व्यवस्थित योजना बनाई गई । कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए अलग-अलग स्तर पर ब्लॉक कोऑर्डिनेटर्स, असिस्टेंट ब्लॉक रिसोर्स कोऑर्डिनेटर्स, प्रधानाध्यापक और शिक्षकों समेत अधिकारियों के मौजूदा समूह से ‘डिस्ट्रिक्ट रिसोर्स पर्सन’ और ‘ब्लॉक रिसोर्स पर्सन’ की नियुक्ति की गई। इस टीम के लगभग 3,500 लोगों को ज़मीनी स्तर पर ‘लीडर्स ऑफ प्रैक्टिस’ के रूप में चिन्हित किया गया। इन्होंने 20 दिनों तक बच्चों के साथ ‘टार्ल’ पद्धति द्वारा पढ़ाने का अभ्यास किया। उसके बाद इन्हीं लोगों के द्वारा बच्चों के शैक्षिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए कई चरणों में 2,30,000 शिक्षकों की मॉनीटरिंग और मेंटोरिंग की गई।
किफायती पठन-सामग्रियाँ : कक्षा में उपयोग करने के लिए हर शिक्षक को प्रशिक्षण, आवश्यक जाँच प्रपत्र और स्थानीय सन्दर्भ से जुड़ी पठन-सामग्रियाँ उपलब्ध कराई गईं और हर बच्चे को घर ले जाने के लिए बड़े-बड़े फोंट में सरल और मज़ेदार कहानियों की एक पुस्तिका और वर्कशीट दी गईं। सरकार ने इस अतरिक्त पठन सामग्री पर प्रति विद्यालय लगभग 1,000 रूपये खर्च किए। अगर किसी विद्यालय में इस कार्यक्रम से औसतन 100 बच्चे लाभान्वित हुए तो प्रत्येक बच्चे पर कहानियों की पुस्तिका, व्यक्तिगत बारहखड़ी कार्ड और चार्ट का खर्चा केवल 10 रुपए ही आया।
तकनीकी सफलता (टेक्नोलॉजी) : बच्चों के पढ़ने और गणित करने के स्तर की जाँच के कुछ ही दिनों के अंदर 2,30,000 शिक्षकों ने अपने-अपने मोबाइल फ़ोन के ज़रिए ‘जीएलपी ऐप’ पर जाँच के आँकड़ों को अपलोड कर दिया। सभी के व्हाट्सएप्प ग्रुप्स सक्रिय हो गए और उनमें चर्चाएँ शुरू हो गईं, विडियो और चित्रों को साझा किया जाने लगा, एक दूसरे से प्रश्न पूछे जाने लगे। ‘लीडर्स ऑफ प्रैक्टिस’ की 3,500 सदस्य टीम ने अपने-अपने विद्यालयों में डैशबोर्ड्स की समीक्षा की जिससे शैक्षिक सहयोग के साथ-साथ डाटा के आधार पर संवाद स्थापित होने लगा।
ज़मीनी हक़ीक़त
अप्रैल 2019 में आगरा ज़िले के एतमादपुर के एक स्कूल में विज़िट करने का अवसर मिला। जहाँ कार्यक्रम के मूल्याँकनों में बुनियादी स्तर पर पढ़ने और गणित करने के स्तर का पता चलता है वहीं खुद बच्चों में हुए बदलाव को देखना अपने आप में एक अलग ही अनुभव था। हमने कक्षा 3 और 4 के विद्यार्थियों से एक अक्षर से शुरू होने वाले शब्दों की सूची बनाने के लिए कहा। उनकी उत्साहपूर्ण बातचीत से माहौल जीवंत हो उठा । सभी एक दूसरे से बात करने लगे, जल्दी-जल्दी लिखने लगे, अपनी कापी से लिखे को मिटाने लगे। कुछ ने गलत लिखा, कुछ घबराए, लेकिन हर बच्चे ने लिखा ज़रूर। अपने वाक्यों को पढ़कर सुनाने के लिए सभी ने एक साथ हाथ उठाए। दो लड़कियाँ आत्मविश्वास के साथ उठीं, “न से - नवरात्रि के दिन नानी ने नल से पानी निकाला।” (उन लोगों ने ‘न’ को चुनकर उससे बनाया हुआ अपना वाक्य पढ़ा) दो महीने पहले संभवत: ये दोनों लड़कियाँ शब्दों को भी पढ़ नहीं पाती थीं।
अगर सभी प्रक्रियात्मक तत्व जैसे कि प्रभावी शिक्षाशास्त्रीय हस्तक्षेप, टेक्नोलॉजी की उपलब्धता और समर्पित प्रशासनिक सहयोग ढंग से लागू हो भी जाए तब भी मानवीय तत्व के बिना इसका विस्तार संभव नहीं हो सकता। यह चुनाव का भी वर्ष था जिसमें बोर्ड की परीक्षाओं की निगरानी और अपने नियमित प्रशासनिक कार्यों के अतिरिक्त शिक्षकों को कक्षा से हटाकर चुनाव कार्य में लगा दिया गया था। जब शिक्षकों से पूछा गया कि उनके कार्य दिवस में पाठ्यक्रम पूरा करने के दबाव के बारे में ‘ग्रेडेड लर्निंग प्रोग्राम’ का क्या असर रहा तो शिक्षकों ने सहजता से बताया कि बच्चे अगर पढ़ नहीं सकते हैं तो पाठ्यक्रम का कोई महत्त्व नहीं रह जाता । उत्तर प्रदेश के शिक्षकों में इस बात को लेकर निर्विवाद सहमति है कि स्कूल सिस्टम में बच्चों की प्रगति के लिए बुनियादी शिक्षा ज़रूरी है। शिक्षक इस बात को महत्त्व देते हैं और सरकार भी इसका समर्थन करती है । हमने इतना कुछ पढ़ा और शोध से भी पता चलता है कि किस तरह हमने शिक्षकों के सिर पर पाठ्यक्रम की तलवार लटका दी है।
लखनऊ में आयोजित बुनियादी शिक्षा विभाग द्वारा ‘फीडबैक मीटिंग’ में मैंने भाग लिया, उसमें ‘लीडर्स ऑर्फ प्रैक्टिस’ टीम या खुद उनके अनुसार ‘मध्य क्रम का बल्लेबाज’, ने गर्व के साथ अपने अनुभव बताए और सुझाव दिए। समूह ने ज़बरदस्त तरीके से अपनत्व के साथ विनम्रतापूर्ण उनका आचरण किया । उन्होंने कार्यक्रम की सफलता को सेलिब्रेट भी किया, क्रियान्वयन की कमियों को माना, गलतियों का विश्लेषण किया और योजना, प्रशिक्षण तथा सहयोग की प्रक्रियाओं में सुधार के लिए रचनात्मक और सुविचारित सुझाव भी दिए जिनके साथ वे कार्यक्रम को दूसरे वर्ष में ले जाने के लिए तैयार थे।
वे सभी आत्मविश्वास से परिपूर्ण थे, क्योंकि उन्होंने बच्चों को पढ़ना सीखते हुए देखा था । इसलिए, इनकी बातचीत महज एंडलाइन और बेसलाइन के बीच तुलना से कहीं आगे चली गई। उनकी बातचीत के मुद्दों में प्रक्रियात्मक सुधार से लेकर शिक्षाशास्त्रीय डिजाइन और टेक्नोलॉजी (तकनीकी) सपोर्ट, माता-पिता को शामिल करने, बेहतर कक्षा प्रबंधन, शिक्षकों को सम्मान, राज्यस्तरीय अधिकारियों द्वारा उत्साहवर्धक मुआयना, डेटा-एनेबल्ड समीक्षा बैठकों द्वारा जीएलपी ऐप में सुधार, अंग्रेजी शुरू करने आदि जैसे मुद्दे शामिल थे। अंतहीन सुझाव दिए जा रहे थे और लंच का समय भी बीता जा रहा था लेकिन कोई न तो घड़ी पर ध्यान दे रहा था और न भूख से कुलबुलाते पेटों पर। जैसा कि एक बीआरपी ने सुंदर ढंग से कहा, “हमने चाँद पर जाने का सोचा था मगर खुले आसमान में पहुँच गए।”
प्रखंड और ज़िला स्तरीय टीम द्वारा एक नम्र-निवेदन के साथ समीक्षा बैठक समाप्त हुई - दुनिया को बता दें कि उत्तर प्रदेश में क्या हो रहा है। उन्हें कहें कि वे आकर हमारे विद्यालयों की विज़िट करें और नहीं पढ़ पाने वाले बच्चे को धाराप्रवाह पढ़ने वाला बच्चा बनने में सहयोग देने के लिए किए जा रहे प्रयासों को देखें। तभी लोगों को राज्य के 1,13,000 विद्यालयों को रूपांतरित होते हुए डाटा पर विश्वास होगा।
उत्तर प्रदेश के सफल शिक्षा सुधार कार्यक्रम से सीख
विश्लेषणात्मक नज़रिये से देखें तो उत्तर प्रदेश की व्यवस्था और स्थितियों को समझने का अद्वितीय अवसर उपलब्ध कराता है जिसके अंतर्गत सुधार के ऐसे प्रयास राज्य के रोजमर्रा के कामकाज में शामिल हैं। मैं जिस रचनात्मक फीडबैक एवं योजना सत्र में प्रेक्षक और श्रोता थी, वह ईमानदारी से स्व-मूल्याँकन की अभिव्यक्ति था जो अगले कदम में सुधार लाने के लिए ज़रूरी होता है। साथ ही, बाहरी मूल्याँकन और अधिक बारीक गुणात्मक जाँच से सरकारों द्वारा ऐसे सुधारों को अपनाते समय मौजूद चुनौतियों और कमियों तथा उन स्थितियों पर रोशनी पड़ेगी जिनके तहत उनकी सफलता संभावित है। ये सफ़र न तो एकरेखिक हैं न सीधी-सपाट, लेकिन हर कदम पर सक्रियता-पूर्वक सीखना सभी को आगे ले जाता है । इन सबको सार्वजनिक रूप से उपलब्ध करा देने पर इस बात के विश्लेषण के जरिए परिवर्तन सम्बंधी प्रयासों को कैसे संस्थाबद्ध स्वरूप दिया जा सकता है, व्याख्या की जा सकती है और ज़मीन पर लागू किया जा सकता है और ‘ग्रेडेड लर्निंग प्रोग्राम’ जैसी पहल के अंदर क्या-क्या बाधाएँ और प्रोत्साहन मौजूद होते हैं, भारत में सुधारों पर हुए बड़े पैमाने के कार्यों में वृद्धि हो सकती है, इसे समझा जा सकता है।
उत्तर प्रदेश में ऐसी सफलता इसलिए नहीं मिली कि किसी के दिमाग में ख्याल आया कि यह अच्छा है और सफलता मिल गई। ऐसी चुनौती का सामना करने के लिए पूरी व्यवस्था को बदलना पड़ता है। बड़ा बदलाव हर एक के सहयोग की माँग करता है - सरकारी व्यवस्था से लेकर नागरिक समाज से जुड़े संगठनों, फ़ाऊन्देशन, अकादमिक, डोनर्स और समुदायों सभी के योगदान की ज़रूरत पड़ती है। इस संदर्भ में यह प्रशासनिक इच्छाशक्ति और कुछ बड़ा करने की उत्सुकता, नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे तक का संतुलन और बुनियादी शिक्षा के लक्ष्यों को समझना तथा विश्वास और पारदर्शिता पर आधारित साझेदारी - सब कुछ देखने को मिलता है। अब यह देखने की बात है कि इस वर्ष शुरू होने वाले कार्यक्रम में किस चीज़ का कितना हिस्सा, किस गति से आगे बढ़ता है और स्कूल के अगले वर्षों में पहुँचता है।
भारत के हर राज्य के लिए यह उम्मीद की किरण जगाता है कि वह इस बदलाव को हासिल करे, इसे जारी रखे और यह सुनिश्चित करने के लिए कि स्कूली शिक्षा प्रणाली में शामिल होने वाले प्रत्येक बच्चे की बुनियाद मज़बूत हो और सीखने के लिए आधार और साधन उपलब्ध हों । तरीक़े बहुत सारे हो सकते हैं और इसमें अनेक सहयोगियों के शामिल होने के लिए गुंजाइश भी है, लेकिन मूल सिद्धांतों में यह होना चाहिए कि प्रभाव का प्रमाण हो, ऐसा आदर्श व्यय हो जो सरकार अपने संसाधनों से वहन कर सके और उत्तरदायित्व निर्धारित हो सके और उसमें पारदर्शिता हो।
पिछले दशक में पूरे भारत में शिक्षा में सुधार सम्बंधी अनेक प्रकार की पहलकदमियों में भागीदारी, शोध और अवलोकन के बाद, मुझे किसी सरकारी व्यवस्था के ज़रिए शिक्षा को महत्वाकांक्षी ढंग से बड़े पैमाने पर आगे बढ़ाने वाले सबसे संभावनापूर्ण आंदोलनों में से एक की प्रत्यक्ष झलक देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हालांकि यह अभी आरंभिक अवस्था में है। आगे क्या होगा, समय बताएगा। लेकिन उत्तर प्रदेश के इस प्रयास के पीछे जो लोग काम कर रहे हैं, उनके साथ-साथ मैं भी इस पर भरोसा करना चाहूँगी कि यह एक मज़बूत कदम है।
(अनुवाद करने में सहायक: फ़ैयाज़ अहमद)
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