मानव विकास

लैंगिक समानता और सशक्तिकरण की ओर बढ़ते पहिए

  • Blog Post Date 13 मार्च, 2025
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भारत के बिहार और ज़ाम्बिया के ग्रामीण इलाके में, सरकार ने किशोरियों को स्कूल आने-जाने के लिए साइकिल प्रदान करके शिक्षा में लैंगिक अंतर को दूर करने के कार्यक्रम शुरू किए। इस लेख में, इन पहलों के तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभावों पर चर्चा करते हुए, शिक्षा में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए अधिक प्रभावी और स्थाई नीतियाँ डिज़ाइन करने के बारे में रोशनी डाली गई है।

यह अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2025 के उपलक्ष्य में हिन्दी में प्रस्तुत श्रृंखला का तीसरा लेख है।

संयुक्त राष्ट्र ने 2015 के आठ सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों में से एक के रूप में “लैंगिक समानता को बढ़ावा देना और महिलाओं को सशक्त बनाना” की पहचान की, और इस उद्देश्य को प्राप्त करने में “प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में लैंगिक असमानता को समाप्त करने” के महत्व को स्वीकार किया। लगभग एक दशक बाद, इस लक्ष्य की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। हालांकि, विश्व आर्थिक मंच की वैश्विक लैंगिक अंतर रिपोर्ट 2024 के अनुसार शैक्षिक प्राप्ति में लैंगिक असमानता के मामले में वैश्विक रूप से भारत 112वें स्थान पर है (विश्व आर्थिक मंच, 2024)।1 यद्यपि प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में लड़कियों के नामांकन में मामूली वृद्धि हुई है, फिर भी भारत में पुरुषों और महिलाओं के बीच साक्षरता का अंतर 17.2 प्रतिशत पर बना हुआ है। उल्लेखनीय रूप से, यह रिपोर्ट पिछले वर्षों की तुलना में शैक्षिक प्राप्ति में भारत के लैंगिक समानता के स्तर में मामूली गिरावट का संकेत देती है।2

इस लैंगिक अंतर को दूर करने के लिए विभिन्न नीतियाँ क्रियान्वित की गई हैं, जो शिक्षा की आपूर्ति या मांग पक्ष पर केन्द्रित हैं। स्कूल के बुनियादी ढांचे का विस्तार करना शिक्षा की आपूर्ति में सुधार लाने का एक तरीका है, लेकिन यह महंगा है और इसे बनाए रखना तथा निगरानी करना अक्सर कठिन होता है। मांग पक्ष की बात करें तो सरकारी अभियान (बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ), मध्याह्न भोजन पहल तथा सशर्त नकद हस्तांतरण जैसे कार्यक्रमों का उद्देश्य लड़कियों की शिक्षा को प्राथमिकता देने के लिए परिवारों को प्रोत्साहित करना है।

दो पहियों की ताकत : शैक्षिक हस्तक्षेप के रूप में साइकिल

हम दो कार्यक्रमों के प्रभाव पर प्रकाश डालते हैं- एक बिहार, भारत में और दूसरा ज़ाम्बिया में, जिनके माध्यम से स्कूली छात्राओं को साइकिल प्रदान करके आपूर्ति और मांग दोनों चुनौतियों का समाधान किया गया (मुरलीधरन और प्रकाश 2017, फियाला एवं अन्य 2022)। आपूर्ति पक्ष में, इन कार्यक्रमों ने प्रत्यक्ष पहुँच में सुधार और सुरक्षा को बढ़ाकर स्कूली शिक्षा की 'दूरस्थ लागत' को कम कर दिया, जिससे किशोरियों की शिक्षा में एक बड़ी बाधा दूर हो गई। मांग पक्ष में, इन कार्यक्रमों ने स्कूली शिक्षा को एक मूल्यवान और प्राप्त करने-योग्य लक्ष्य के रूप की धारणा को मज़बूती प्रदान करके परिवारों को लड़कियों की शिक्षा में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके साथ ही, इन हस्तक्षेपों ने गतिशीलता और शिक्षा को बढ़ावा देकर सामाजिक मानदंडों को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा स्कूली शिक्षा में लैंगिक समानता के लिए व्यापक सामुदायिक समर्थन को बढ़ावा मिला।

फिर हमने इनमें से एक कार्यक्रम पर हाल ही में किए गए अनुवर्ती अध्ययन के विरोधाभासी निष्कर्षों की जाँच की, जिसमें अनपेक्षित परिणाम सामने आए हैं जो महिला सशक्तिकरण के पारंपरिक उपायों को चुनौती देते हैं (गार्सिया-हर्नांडेज़ 2024)। ये परिणाम सशक्तिकरण सम्बन्धी विचार को प्रासंगिक बनाने की ज़रूरत और सामाजिक-आर्थिक हस्तक्षेपों एवं सांस्कृतिक मानदंडों के बीच जटिल अंतःक्रियाओं पर विचार की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। हमारा लक्ष्य इन पहलों के तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभावों का विश्लेषण करके, शिक्षा में व्याप्त लैंगिक अंतर को पाटने के लिए अधिक प्रभावी और स्थाई नीतियाँ तैयार करने में अंतर्दृष्टि प्रदान करना है।

बिहार सरकार की मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना

वर्ष 2006 में शुरू की गई मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना बिहार सरकार की एक अभिनव पहल थी, जिसे लड़कियों की माध्यमिक शिक्षा में एक बड़ी बाधा- स्कूली शिक्षा की 'दूरी लागत' को दूर करने के लिए तैयार किया गया था। इस कार्यक्रम के तहत कक्षा 9 में प्रवेश लेने वाली लड़कियों को साइकिलें प्रदान की गईं, जिससे वे अधिक आसानी और सुरक्षित रूप से स्कूल आ-जा सकें। इस हस्तक्षेप का उद्देश्य शिक्षा तक भौतिक पहुँच में सुधार करके, लैंगिक असमानता को कम करना और लड़कियों को अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए सशक्त बनाना था।

इस नीति का महत्व आंतरिक और साधनगत दोनों आधारों पर उचित था। आंतरिक दृष्टिकोण से, यह क्षमता फ्रेमवर्क (सेन 1993, नुसबाम 2011) के अनुरूप है, जो मानव विकास के मूलभूत प्रवर्तक के रूप में शिक्षा के अधिकार पर ज़ोर देता है। साधनात्मक रूप से, यह कार्यक्रम व्यापक सामाजिक और आर्थिक लाभों में योगदान देता है, जिसमें शिशु, बाल और मातृ मृत्यु दर में कमी, भावी पीढ़ियों के लिए बेहतर मानव पूंजी हस्तांतरण तथा श्रम-शक्ति में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि और आय का सृजन शामिल है।

इस पहल ने शिक्षा में आने वाली तात्कालिक बाधाओं को दूर करने और दीर्घकालिक सामाजिक व आर्थिक लाभ को बढ़ावा देने के माध्यम से, बालिकाओं की शिक्षा में निवेश की परिवर्तनकारी क्षमता को साबित किया।

आकृति-1. पूरे देश की तुलना में बिहार में स्कूल नामांकन में लैंगिक अंतर और स्कूल की बढ़ती दूरी

स्रोत : वर्ष 2008 के जिला स्तरीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण (डीएलएचएस) का उपयोग करते हुए लेखकों द्वारा की गई गणना

एक बड़े पारिवारिक सर्वेक्षण और ‘ट्रिपल-डिफरेंस एस्टीमेशन’ दृष्टिकोण का उपयोग करते हुए, बिहार अध्ययन ने लड़कियों के आयु-उपयुक्त नामांकन में 32% की वृद्धि और माध्यमिक शिक्षा के लिए लिंग अंतर में 40% की कमी दर्ज की। ट्रिपल-डिफरेंस पद्धति से शोधकर्ताओं को (ए) लड़कियों और लड़कों के बीच, (बी) ‘उपचार’ (हस्तक्षेप के अधीन) और ‘नियंत्रण’ (हस्तक्षेप के अधीन नहीं) समूहों में, और (सी) बिहार और पड़ोसी राज्य झारखंड3 के बीच नामांकन सम्बन्धी परिवर्तनों की तुलना करके कार्यक्रम के प्रभाव को अलग करने का मौका मिला। इस सशक्त विश्लेषण से इस बात की पुष्टि हुई कि पाए गए अंतर केवल कार्यक्रम के कारण थे।

सबसे ज़्यादा लाभ स्कूलों से दूर स्थित गाँवों में देखा गया, जहाँ लड़कियों के लिए दूरी सबसे बड़ी बाधा थी। इस निष्कर्ष से पता चलता है कि आवागमन की प्रत्यक्ष तथा सुरक्षा लागत को कम करने ने कार्यक्रम की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इस हस्तक्षेप से स्कूल में नामांकन में सुधार के अलावा, माध्यमिक विद्यालय की महत्वपूर्ण परीक्षाओं में बैठने वाली लड़कियों की संख्या में 18% की वृद्धि हुई तथा उत्तीर्ण होने की दर में 12% की वृद्धि हुई। क्षेत्र में प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण कार्यक्रमों की तुलना में, साइकिल पहल एक किफायती नीति साबित हुई क्योंकि इसने शिक्षा को प्राथमिकता देने के लिए पारिवारिक प्रोत्साहन और, इसे और अधिक सुलभ बनाकर स्कूली शिक्षा की प्रभावी आपूर्ति दोनों को एक साथ बढ़ाया। कार्यक्रम की मापनीयता के साथ मिलकर प्राप्त होने वाला यह दोहरा लाभ, इसे समान सन्दर्भों के लिए एक आकर्षक मॉडल बनाता है।

ज़ाम्बिया में बदलाव के पहिए

ज़ाम्बिया के ग्रामीण इलाकों में, वर्ष 2009 में शुरू किए गए सशक्तिकरण और शिक्षा के लिए साइकिल कार्यक्रम (बीईईपी) में इसी तरह की रणनीति अपनाई गई, जिसके तहत उन स्कूली छात्राओं को साइकिलें उपलब्ध कराई गईं, जो स्कूलों से तीन किलोमीटर से अधिक दूरी पर रहती थीं। 100 स्कूलों में आयोजित इस यादृच्छिक नियंत्रित परीक्षण से उल्लेखनीय परिणाम सामने आए : आवागमन के समय में 35% की कमी, समय की पाबंदी में 66% सुधार तथा स्कूलों में अनुपस्थिति में 27% की गिरावट देखी गई। इन तात्कालिक लाभों से दीर्घकालिक सुधार हो सके, इसमें स्कूल में पढ़ाई जारी रखने की उच्च दर और सशक्तीकरण के बेहतर परिणाम जैसे नियंत्रण का बढ़ा हुआ स्थान, सौदेबाजी की शक्ति और महिलाओं की आकांक्षाएं शामिल हैं।

हस्तक्षेप का प्रभाव शिक्षा से परे भी फैला हुआ है। लड़कियों ने बताया कि उनके लिए साइकिलें आवागमन और सशक्तिकरण दोनों के एक साधन के रूप में काम करती हैं, जिससे वे अधिक सुरक्षित और स्वतंत्र महसूस करती हैं। हालांकि, परिवारों ने साइकिल की लागत में योगदान दिया या नहीं, इसके आधार पर उल्लेखनीय अंतर सामने आए। लेखकों ने दो ‘उपचार’ पद्धतियों का अध्ययन किया- एक पद्धति जिसमें लाभार्थी के परिवारों से साइकिल के रखरखाव और स्पेयर पार्ट्स के लिए एक छोटा-सा शुल्क लिया गया था, और दूसरी जिसमें कोई शुल्क नहीं लिया गया था। जिन लड़कियों को कम लागत पर साइकिल दी गई, उन्होंने उच्च आकांक्षा, आत्म-छवि तथा विवाह और उसके पश्चात गर्भधारण में देरी की इच्छा के बारे में बताया। इससे इष्टतम वस्तु-हस्तांतरण योजनाओं को डिज़ाइन करने की जटिलताओं पर और अधिक प्रकाश पड़ता है। ज़ाम्बिया का कार्यक्रम इस बात को रेखांकित करता है कि कैसे लक्षित हस्तक्षेप संरचनात्मक बाधाओं को प्रभावी ढंग से खत्म कर सकते हैं और कमज़ोर आबादी को सहायता प्रदान कर सकते हैं।

समानताएँ और विरोधाभास

सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों में अंतर के बावजूद, बिहार और ज़ाम्बिया में किए गए अध्ययनों से एक साझा अंतर्दृष्टि सामने आई- साइकिल जैसे आवागमन सम्बन्धी हस्तक्षेप शैक्षिक और सशक्तिकरण के परिणामों में काफी सुधार ला सकते हैं। दोनों कार्यक्रमों से स्कूली शिक्षा में आने वाली प्रत्यक्ष बाधाओं का प्रभावी ढंग से समाधान हुआ, जिससे स्कूली शिक्षा तक पहुँच, उसमें सहभागिता और उसे जारी रखने में मापने-योग्य लाभ हुआ। इसके अतिरिक्त, सुरक्षा सम्बन्धी चिंताओं और सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाओं से निपटने के कारण, इन हस्तक्षेपों का लड़कियों के जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ा।

हालांकि, ज़ाम्बिया के कार्यक्रम के बारे में हाल ही में किए गए एक अनुवर्ती अध्ययन में अप्रत्याशित दीर्घकालिक परिणामों (गार्सिया-हर्नांडेज़ 2024) का खुलासा हुआ है। इस हस्तक्षेप से सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ और घरेलू हिंसा में कमी आई, लेकिन इससे लाभार्थियों में बाल विवाह और गर्भधारण की दर में भी वृद्धि हुई। शोधकर्ता इस ‘सशक्तिकरण विरोधाभास’ को विवाह बाजारों में लड़कियों के बढ़ते कथित मूल्य के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं, जिसका प्रमाण ‘दुल्हन के मूल्यों’ में प्रत्यक्ष वृद्धि है।

ये निष्कर्ष आर्थिक हस्तक्षेपों और सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों के बीच के जटिल संबंधों को रेखांकित करते हैं। हालांकि कार्यक्रम ने स्व-रिपोर्ट किए गए सशक्तिकरण संकेतकों को बढ़ाया, इसने इस बात पर भी पुनर्विचार करने की आवश्यकता को उजागर किया कि सशक्तिकरण को कैसे मापा जाता है। मानक मापदण्ड प्रायः विभिन्न सांस्कृतिक परिवेशों में सशक्तिकरण की सूक्ष्म वास्तविकताओं को समझने में असफल रहते हैं। स्थानीय मानदंडों और प्राप्त अनुभवों को बेहतर ढंग से प्रतिबिंबित करने के लिए मूल्यांकन रूपरेखाओं को प्रासंगिक बनाने से सशक्तिकरण की अधिक सटीक और सार्थक समझ प्राप्त होगी। यह बदलाव यह सुनिश्चित करने की दिशा में महत्वपूर्ण है कि विकास हस्तक्षेप अनपेक्षित परिणामों को मज़बूत करने के बजाय टिकाऊ और न्यायसंगत प्रगति हासिल करें।

बिहार और ज़ाम्बिया अध्ययनों के अलग-अलग दीर्घकालिक परिणाम विकास नीति में एक बुनियादी चुनौती को उजागर करते हैं- बाहरी वैधता (सन्दर्भों में मापनीयता) को सन्दर्भ प्रासंगिकता (हस्तक्षेपों को स्थानीय मानदंडों और स्थितियों के साथ संरेखित करना सुनिश्चित करना) के साथ संतुलित करना। बिहार में लागू कार्यक्रम से लगातार शैक्षणिक और लैंगिक समानता सम्बन्धी लाभ प्राप्त हुए, ज़ाम्बिया में पाया गया सशक्तिकरण विरोधाभास दर्शाता है कि अच्छे इरादे वाले हस्तक्षेप भी अप्रत्याशित और विरोधाभासी परिणाम दे सकते हैं। यह जटिलता ऐसी नीतियों को डिज़ाइन करने के महत्व को रेखांकित करती है जो न केवल साक्ष्य-आधारित हों बल्कि सांस्कृतिक सन्दर्भों के प्रति भी संवेदनशील हों, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि हस्तक्षेप अपने इच्छित दीर्घकालिक प्रभाव को प्राप्त करें।

मुख्य बातें

शिक्षा में लैंगिक असमानताएँ बनी हुई हैं और इसके लिए समग्र समाधान की आवश्यकता है : बिहार और ज़ाम्बिया में साइकिल वितरण पहल जैसे कार्यक्रम दर्शाते हैं कि कैसे भौतिक और सुरक्षा बाधाओं को कम करके शिक्षा तक पहुँच में उल्लेखनीय सुधार किया जा सकता है। ऐसे हस्तक्षेप दूरी और सुरक्षा जैसी चुनौतियों का समाधान करके, न केवल शैक्षिक परिणामों को बढ़ाते हैं बल्कि लड़कियों की व्यापक आकांक्षाओं और सशक्तिकरण में भी योगदान देते हैं।

साइकिल वितरण कार्यक्रम अक्सर नकद हस्तांतरण की तुलना में अधिक प्रभावी होते हैं : संरचनात्मक मुद्दों को हल न कर सकने वाले प्रत्यक्ष नकद हस्तांतरण के विपरीत, आवागमन-केन्द्रित पहल सीधे स्कूल तक पहुँच और सुरक्षा में सुधार लाती है, जो लड़कियों की शिक्षा के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण कारक है। हालांकि, ऐसे कार्यक्रम सामाजिक परिवर्तन की जटिलता को भी उजागर करते हैं, क्योंकि अच्छे इरादे से किए गए हस्तक्षेप कभी-कभी अप्रत्याशित परिणाम भी दे सकते हैं।

वैश्विक नीतियाँ व्यापक दृष्टिकोणों की आवश्यकता को सुदृढ़ करती हैं : हाल की रणनीतियाँ, जैसे कि यूनेस्को की “शिक्षा में और उसके माध्यम से लैंगिक समानता के लिए रणनीति” (2019) और “शिक्षा के लिए वैश्विक भागीदारी” (2024) के तहत पहल, बुनियादी ढाँचे, कानूनी ढाँचे और शिक्षण प्रथाओं में सुधार के महत्व पर ज़ोर देती हैं। इन नीतियों में यह माना गया है कि प्रभावी हस्तक्षेपों को आपूर्ति पक्ष के कारकों (उदाहरण के लिए, स्कूल तक पहुँच) और मांग पक्ष के प्रोत्साहनों (उदाहरण के लिए, लड़कियों को स्कूल में रखना) दोनों को एक साथ संबोधित करना चाहिए।

मापनीयता के लिए अनुकूलनशीलता और सन्दर्भ-विशिष्ट कार्यान्वयन की आवश्यकता होती है : क्योंकि नीति निर्माता ऐसे कार्यक्रमों का विस्तार करना चाहते हैं, इसलिए उन्हें डिज़ाइन में लचीलापन और परिणामों की कठोर निगरानी सुनिश्चित करनी चाहिए। सतत और न्यायसंगत प्रगति के लिए अनपेक्षित प्रभावों का पूर्वानुमान लगाना महत्वपूर्ण है। इन कार्यक्रमों को सार्वभौमिक समाधान के रूप में मानने के बजाय, उन्हें अनुकूलनीय ढाँचे के रूप में देखा जाना चाहिए, जिन्हें विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भों के अनुरूप ढाला जा सके, ताकि शिक्षा और सशक्तिकरण के लिए व्यवस्थागत बाधाओं को तोड़ा जा सके।

टिप्पणियाँ :

  1. विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी वार्षिक वैश्विक लैंगिक अंतर रिपोर्ट के अंतर्गत चार उप-सूचकांकों- आर्थिक भागीदारी और अवसर, शैक्षिक प्राप्ति, स्वास्थ्य और अस्तित्व, और राजनीतिक सशक्तिकरण में लैंगिक अंतर को मापा गया है।
  2. शैक्षिक प्राप्ति उपसूचकांक में चार मापदण्ड शामिल हैं, जिन्हें प्रतिशत में मापा जाता है- साक्षरता दर, प्राथमिक शिक्षा में नामांकन, माध्यमिक शिक्षा में नामांकन और तृतीयक शिक्षा में नामांकन।
  3. वर्ष 2000 में बिहार राज्य को विभाजित कर के दो राज्य बना दिए गए- बिहार और झारखंड। 

अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।

लेखक परिचय : वागीशा पांडे वर्तमान में प्रोफेसर निशीथ प्रकाश और अभिरूप मुखोपाध्याय के साथ कार्यरत एक शोध सहयोगी हैं। इससे पहले, उन्होंने महिलाओं के प्रवास, मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित परियोजनाओं पर गुड बिज़नेस लैब में काम किया है। उन्होंने नीति और विकास अनुसंधान पर यूसी बर्कले और झारखंड राज्य खाद्य आयोग के शोधकर्ताओं के साथ भी सहयोग किया है। साहिल पवार नॉर्थईस्टर्न यूनिवर्सिटी में ग्लोबल एक्शन फॉर पॉलिसी लैब में प्रोग्राम मैनेजर हैं। इससे पहले उन्होंने कैम्ब्रिज वेल्थ में एसोसिएट के रूप में वित्तीय प्रौद्योगिकी क्षेत्र में काम किया है, साथ ही स्टैनफोर्ड डोएर स्कूल ऑफ सस्टेनेबिलिटी, पॉलिसी रिसर्च ऑर्गनाइजेशन और मूनराफ्ट इनोवेशन लैब्स तथा इवॉल्व इंक सहित प्रौद्योगिकी फर्मों में इंटर्नशिप की है। निशीथ प्रकाश पब्लिक पॉलिसी और इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर हैं, जिनकी नॉर्थईस्टर्न यूनिवर्सिटी, बोस्टन में स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी एंड अर्बन अफेयर्स और अर्थशास्त्र विभाग में संयुक्त नियुक्ति है। नॉर्थईस्टर्न यूनिवर्सिटी में शामिल होने से पहले, वे स्टोर्स के कनेक्टीकट विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग और मानवाधिकार संस्थान के साथ संयुक्त पद पर अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर थे। उन्होंने शिवाजी कॉलेज से अर्थशास्त्र में बीए (ऑनर्स), दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में एमए और टेक्सास के ह्यूस्टन विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है।

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