नए 'एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी) बाइपास एक्ट' को 'डुअल रेगुलेशन ऑफ एग्रीकल्चर मार्केटिंग एक्ट' या ‘ड्रामा’ बताते हुए ज्यां द्रेज़ यह तर्क देते हैं कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा दोहरे नियंत्रण की इस कानून की विषम रूपरेखा से इसके द्वारा किसानों का हित होने की संभावना नहीं है।
भारत के किसानों और भारत सरकार के बीच चल रहे विवाद में किसी एक का पक्ष लेना मुश्किल नहीं है। एक तरफ साहसी एवं दक्ष किसानों का जन-सागर है, जो हमें एकजुटता और अहिंसक विरोध का एक सुंदर उदाहरण दे रहे हैं। तो दूसरी ओर, एक सत्तावादी सरकार इनके आंदोलन को नकारते हुए इनकी एकता को तोड़ने की पूरी कोशिश कर रही है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि किसी का भी दिल किसानों की ओर झुके।
हालांकि, यह मामले की गंभीरता को खारिज नहीं करता है। क्या यह सम्भव है कि किसानों को गलत समझा गया या उन्हें गुमराह किया गया? भारत सरकार और उसके समर्थक यही तर्क दे रहे हैं। उनका दावा है कि किसान अपने हितों को लेकर ही भ्रमित हैं। वे इससे अनभिज्ञ हैं कि सरकार द्वरा पारित किये गये तीन अधिनियमों से वे लाभान्वित होनेवाले हैं, जिनमें विशेष रूप से किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020 शामिल है।
इसमें तर्क कुछ इस प्रकार है। अब तक, किसानों को कृषि उपज मंडी समितियों (एपीएमसी) द्वारा प्रबंधित मंडियों के माध्यम से कृषि उपज बेचने के लिए मजबूर किया जाता था। ये एपीएमसी उन लोगों द्वारा नियंत्रित होते हैं जो उनका शोषण करते हैं। अधिनियम जिसका उपनाम ‘एपीएमसी बायपास अधिनियम’ है, एपीएमसी को समाप्त नहीं करता है, बल्कि यह एपीएमसी के बाहर एक नया व्यापार क्षेत्र बनाता है, जहाँ किसान अपनी इच्छानुसार अपना माल किसी को भी बेचने के लिए स्वतंत्र होंगे। यह उनके लिए एक तरह की स्वयंत्रता होगी।
यह तर्क जितना आकर्षक लग रहा है, उतना हीं गुमराह करनेवाला है। सबसे पहले यह दावा अभी तक गलत रहा है कि किसान एपीएमसी मंडियों के बाहर बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं थे,। जानकारों के अनुसार, कृषि विपणन का बड़ा हिस्सा, वास्तव में एपीएमसी मंडियों के बाहर ही होता है। यह सच है कि विशिष्ट वस्तुओं और क्षेत्रों के मामले में, जैसे पंजाब में गेहूं और चावल का अधिकांश विपणन एपीएमसी मंडियों के जरिए ही होता है। लेकिन ऐसा इसलिए है क्योंकि किसानों को वहां अच्छा मूल्य - न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिलता है। वे किसान या बिचौलिए न होकर थोक व्यापारी हैं जो कुछ राज्यों के एपीएमसी अधिनियमों के तहत एपीएमसी मंडियों के बाहर व्यापार करने हेतु प्रतिबंधित हैं।
इसके अलावा, ऐसा अनुमान करना कि गैर-एपीएमसी व्यापार क्षेत्र एक प्रकार का 'मुक्त बाजार' होगा, बेबुनियाद है। 'एपीएमसी बायपास एक्ट' में ऐसा कुछ भी नहीं है जो व्यापार विनियमन को रोकता है। इसके विपरीत, इस अधिनियम को व्यापार विनियमन के लिए एक नये विषम ढांचे के रूप में देखा जा सकता है - जहां एपीएमसी मंडियों को राज्य सरकार द्वारा और अन्य क्षेत्रों को केंद्र सरकार द्वारा विनियमित किया जाएगा।
निश्चित रूप से, यह अधिनियम केंद्र सरकार को एपीएमसी मंडियों के बाहर के तथाकथित ‘व्यापार क्षेत्र’- को विनियमित करने के लिए व्यापक अधिकार देता है। एपीएमसी बायपास एक्ट ’को कृषि विपणन अधिनियम के दोहरे विनियमन’ या ड्रामा के रूप में भी वर्णित किया जा सकता है।
व्यापार क्षेत्र में नियमन के लिए जगह बनाना निश्चित रूप से सही है। असंगठित बाजार से जनहित होता है, ऐसा मानना सामान्य रूप से काफी त्रुटिपूर्ण है और यह कृषि विपणन के मामले में भी बेतुका है। असंगठित कृषि बाजार अक्सर अनिश्चितता, इक्विटी, मिलीभगत, गुणवत्ता नियंत्रण, असममित जानकारी, पैमाने की अर्थव्यवस्थाएं, अनुबंध प्रवर्तन और गैर-आर्थिक शक्ति के दुरुपयोग जैसी बाजार विफलता के संभावित स्रोतों से संबंधित समस्याओं को जन्म देते हैं।
यही कारण है कि कृषि बाजार में आमतौर पर कुछ विनियमन, या किसानों की सहकारी समितियों जैसे सामूहिक कार्रवाई के विभिन्न प्रकार शामिल होते हैं। भारत में डेयरी सहकारी समितियों की सफलता इस क्षेत्र में मुक्त बाजार के विपरीत विकल्प के महत्व को दर्शाती है। इसलिए, वास्तविक प्रश्न विनियमन बनाम मुक्त व्यापार नहीं है, बल्कि यह है कि हमें व्यापार क्षेत्र में किस तरह के विनियमन की उम्मीद करनी चाहिए।
‘ड्रामा’ इस प्रश्न का उत्तर नहीं देता है। यह केवल संभावित विनियमन मुद्दों - जैसे व्यापार-माध्यम, फीस, तकनीकी पैरामीटर..., रसद व्यवस्था, गुणवत्ता मूल्यांकन, समय पर भुगतान ... और ऐसे अन्य मामलों को सूचीबद्ध करता है और केंद्र सरकार को सभी शक्तियां प्रदान करता है। इस संबंध में, यह हाल के श्रम कोडों के समान है। यह ध्यान देने योग्य है कि ड्रामा के तहत नियम बनाने की शक्ति विशेष रूप से केंद्र सरकार को सौंपी गई है - राज्य सरकारों को कोई अधिकार नहीं है।
यह अनुमान लगाने में कोई आश्चर्य नहीं है कि कृषि-व्यवसाय और अन्य कॉर्पोरेट हितों की ओर इन शक्तियों का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाएगा। ‘ड्रामा’ से पता चलता है कि केंद्र सरकार का मुख्य ध्यान इलेक्ट्रॉनिक व्यापार पर है। इसका उद्देश्य केंद्र के नियंत्रण में एक राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक व्यापार का पारिस्थितिकी तंत्र बनाना है। काफी संभावना है कि इसमें आधार,1 डिजिटल भुगतान, डेटा निर्माण करना, फिनटेक प्रयोगों, तथाकथित एग्री स्टैक’ और इस तरह की जाज जैसी चीजें शामिल होंगी, जो हो सकता है निश्चित रूप से किसानों की मदद करने के लिए होंगी, लेकिन इसमें व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखा जाएगा।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा)2 और माल एवं सेवा कर (जीएसटी) जैसे अन्य संदर्भों में इसी तरह के केंद्रीयकरण के हाल के अनुभवों को देखते हुए, इस नए पारिस्थितिकी तंत्र के साथ कम से कम गंभीर 'शुरुआती समस्याएं' होने की संभावना है। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि केंद्रीयकरण से किसानों और राज्य सरकारों के लिए व्यापार क्षेत्र में विपणन व्यवस्था में कोई भी बात करना कठिन हो जाएगा।
इस दृष्टिकोण से ड्रामा शायद ही किसानों के लिए एक स्वतंत्रता है। इसके अलावा, एपीएमसी मंडियों का भविष्य नई योजना में स्पष्ट नहीं है। मंडी, कृषि विपणन में विनियमन और सामूहिक कार्रवाई दोनों को सुविधाजनक बनाने का एक सहज तरीका है। यह एक प्रकार से सार्वजनिक वस्तु है। शायद एपीएमसी अधिनियमों ने हाल के सुधारों के बावजूद, मंडियों के इस पहलू के साथ न्याय नहीं किया है, लेकिन वह अपरिवर्तनीय नहीं है।
नए शासन में, मंडियों के अस्तित्व को मुश्किल हो सकती है। व्यापार क्षेत्र के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए, उन्हें अपनी फीस कम करनी पड़ सकती है। बढ़े हुए शुल्क में कमी करना बुरी बात नहीं होगी। लेकिन इससे परे, जब तक कि राज्य सरकारें या स्थानीय प्राधिकरण कदम नहीं उठाते, मंडियों के लिए कम शुल्क से सार्वजनिक अवसंरचना और सुविधाएं प्रदान करना कठिन हो जाएगा। अगर इस प्रकार से मंडियों का पतन होता है तो यह किसानों की मदद में हितकारी नहीं होगा।
इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि कृषि विपणन की मौजूदा व्यवस्था में दक्षता, समानता और स्थिरता जैसे गंभीर मुद्दे हैं। लेकिन दोहरा विनियमन ढांचा शायद ही इसका कोई जवाब होगा। यह एक खराब अर्थशास्त्र है जो मुख्य मुद्दों का हल खोजने में विफल रहता है, और विपणन प्रणाली पर किसानों के नियंत्रण को कम करता है। उन्हें केंद्र सरकार के 'सख्त प्रेम' की जरूरत नहीं, बल्कि उनसे सम्बंधित वास्तविक सुधारों में मत की आवश्यकता है। साथ ही देश को ऐसे सुधारों की आवश्यकता है जिससे नागरिकों - किसानों और उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा हो। इसमें एग्री-बिजनेस, सॉफ्टवेयर कंपनियों और डेटा ब्रोकरों के निजी हितों का महत्व नगण्य होना चाहिए।
इस पोस्ट का मूल संस्करण द इकोनॉमिक टाइम्स में अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ था।
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- आधार या विशिष्ट पहचान (यूआईडी) संख्या एक 12-अंकों की पहचान संख्या है जो भारत सरकार की ओर से भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) द्वारा भारतीय निवासियों को जारी किए गए एक व्यक्ति के बायोमेट्रिक्स (उंगलियों के निशान, आईरिस और फोटोग्राफ) से जुड़ी होती है।
- मनरेगा एक ग्रामीण परिवार को एक वर्ष में 100 दिनों के मजदूरी-रोजगार की गारंटी देता है, जिसके वयस्क सदस्य निर्धारित न्यूनतम मजदूरी पर अकुशल मैनुअल काम करने के लिए तैयार हैं।
लेखक परिचय: ज्यां द्रेज़ रांची विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में मानद प्रोफेसर हैं।
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