बिहार में 1 अप्रैल 2016 से शराबबंदी लागू करने का मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का निर्णय इस तर्क पर आधारित है कि शराब का सेवन महिलाओं के प्रति हिंसा का प्राथमिक कारण है। इस लेख के जरिये कुमार और प्रकाश तर्क देते हैं कि शराब पर पूर्ण प्रतिबंध से महिलाओं के प्रति हिंसा नहीं रुकेगी- लेकिन शराब महँगी करने से जरूर मदद मिल सकती है।
बिहार में 1 अप्रैल 2016 से शराबबंदी लागू हुई | नीतीश कुमार द्वारा की गई घोषणा हवा में तीर चलाने का एक बढ़िया उदाहरण है। शराब जैसे पसंदीदा पदार्थ पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने से काला-बाजारी और गुप्त उत्पादन सम्बंधित गतिविधियां, कीमतों में वृद्धि, और उन गतिविधियों को रोकने के लिए के लिए सीमित क्षमता वाले शासन व्यवस्था का ध्यान बंटा होने के कारण कानून व्यवस्था और कमजोर हो सकती है | जबकि शराब सेवन करने से जो व्यक्ति, परिवार, और समाज की हानि होती है उन्हे सीमित करने के लिए राज्य और बाजार आसानी से एक साथ काम कर सकते हैं।
और दिलचस्प बात ये है कि एक बहुत ही सरल और साधारण नीति प्रयोग में लाई जा सकती है | शुरू में, पहले शराब पर उच्च कर लगाया जाये और इसको आसानी से नहीं उपलबध किया जाये —ये दोनों कदम शराब के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कीमत में वृद्धि करेंगे | प्रत्यक्ष कीमत में वृद्धि, और शराब की कम कीमत के प्रति संवेदनशीलता, राजस्व को बढ़ाएंगे, और उस बढ़ी हुई राजस्व का उपयोग शराब की मांग को अधिक मूल्य-संवेदनशील बनाने के लिए किया जा सकता हैं |
शराब और घरेलू हिंसा
इस प्रकार की नीति के सन्दर्भ में कुमार का यह तर्क है कि शराब का सेवन महिलाओं के प्रति हिंसा का प्राथमिक कारण है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) (2005-06) पर नज़र डालने पर वास्तव में एक भयावह तस्वीर उभरती है। प्रमुख राज्यों में गुजरात शीर्ष पर है, जहां 74% पुरुषों की राय है कि पत्नी को पीटना जायज है। और वहीँ इस क्रम में बिहार और उत्तर प्रदेश (यूपी) में यह प्रतिशत क्रमशः 51% और 38% है।
बिहार में जहां 33% और यूपी में 25% पुरुष शराब पीते हैं, वही गुजरात में यह संख्या केवल 15% है। हालाँकि, यह देखते हुए कि ये आंकड़े स्व-सूचित हैं और गुजरात में शराब प्रतिबंधित है, ऊपर दिए गए आंकड़ों को शराब पीने वाले पुरुषों के प्रतिशत के निम्नतर आकलित सीमा ही माना जाना चाहिए।
इन राज्यों में महिलाओं द्वारा अपने जीवन-साथी द्वारा शराब का सेवन किये जाने के बारे में सूचित की गई संबंधित संख्या 40%, 26% और 16% है। राष्ट्रीय स्तर पर, जिन महिलाओं ने बताया कि उनके जीवन-साथी शराब का सेवन करते हैं, उनमें से 46% महिलाओं ने घरेलू हिंसा का भी अनुभव किया है। जिन्होंने यह सूचित किया कि उनके जीवन-साथी शराब का सेवन नहीं करते हैं उनकी संख्या 25% है।
जब सभी भारतीय राज्यों को एक साथ देखा गया तो पुरुषों द्वारा शराब का सेवन महिलाओं द्वारा घरेलू हिंसा का सामना करने की 17% अधिक स्व-सूचित संभावना से जुड़ा पाया गया। जब विश्लेषण को केवल गुजरात तक सीमित रखा गया, तो यह संभावना 26% तक बढ़ गई थी; बिहार के लिए यह 15% और यूपी के लिए 17% थी। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि शराब का सेवन वास्तव में महिलाओं द्वारा घरेलू हिंसा का सामना करने की अधिक संभावना से जुड़ा है।
कार्यान्वयन से संबंधित मुद्दें
गुजरात राज्य, जहां सबसे लंबी अवधि के लिए शराबबंदी रही है, वहां न केवल शराब आसानी से मिलती है, बल्कि ऐसा भी लगता है कि वहां के शराब सेवन करने वाले पुरुषों की अपनी पत्नियों को पीटने की संभावना भारतीय औसत की तुलना में अधिक रही है। इस प्रकार की कमजोर शासन क्षमता को देखते हुए यह बात तय है कि इस तरह का प्रतिबंध खुद पर कम नियंत्रण वाले पुरुषों को शराब का सेवन करने से नहीं रोक सकता है | और इस की ज्यादा सम्भावना हैं कि जिन पुरुषों को खुद पर कम नियंत्रण हैं वह ही महिलाओं के प्रति अधिक हिंसक हो सकते हैं|
हमारे ये आंकलन हमें अच्छे इरादों से शराब पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास करने वाले नीति-निर्माताओं के सोच पर सवाल उठाने के लिए मजबूर करते हैं।
1986 के बाल श्रम (निषेध और नियमन) अधिनियम को देखें तो बात कुछ और स्पष्ट होती हैं। 2013 में प्रशांत भारद्वाज, लिआ के. लकड़ावाला और निकोलस ली द्वारा प्रस्तुत राष्ट्रीय आर्थिक अनुसंधान ब्यूरो (एनबीईआर) का लेख, 'वेल इंटेंटेड रेगुलेशन: एविडेंस फ्रॉम इंडियाज चाइल्ड लेबर बैन' से पता चलता है कि प्रतिबंध के बाद बाल मजदूरी दर में कमी आई है और बाल श्रम में वृद्धि हुई है।
नीतियों के ऐसे अनपेक्षित परिणामों से यह कल्पना करना कठिन हो जाता है कि राज्य की शासन व्यवस्था शराबबंदी को अच्छी तरह से लागू करने में सफल हो सकेगी। | एक बेहतर नीति यह होगी कि लोगों को धीरे-धीरे शराब से दूर किया जाए, जैसा कि अमेरिका में तंबाकू के उपयोग के लिए किया गया है।
वैकल्पिक प्रभावक नीति
अधिक विवेकपूर्ण कदम यह होगा कि शराब पर करों को बढ़ाया जाए और बढ़ी हुई राजस्व का उपयोग लोगों को लाभप्रद रोजगार देने के लिए किया जाए और उन्हें अधिक अर्थपूर्ण जीवन जीने में मदद की जाए, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जहां नीरसता, उदासी, और बेरोजगारी शराब में लिप्त होने का कारण हो सकती है।
पीनेवाले लोग अक्सर अन्य संभवतः हानिकारक पदार्थों का भी उपयोग करते हैं अतः इसे देखते हुए बढे हुए राजस्व का उपयोग शराब और अन्य मादक द्रव्यों के नशामुक्ति केंद्रों को खोलने के लिए भी किया जा सकता है।
इन कदमों से शराब की मांग भी कीमतों से ज्यादा प्रभावित1 हो सकती है। हमारा विश्लेषण जीवन- साथी द्वारा हिंसा (आईपीवी) को रोकने के लिए अन्य सामान्य नीति प्रभावकों (लीवरों) को भी इंगित करता है, जैसे जीवन- साथी द्वारा हिंसा (आईपीवी) के हानिकारक प्रभावों के बारे में समुदायों को संवेदनशील बनाना, महिलाओं की शिक्षा और उनके स्वास्थ्य में सुधार, आयु-केंद्रित परामर्श, गरीबी में कमी लाना, और पुरुषों के लिए रोजगार में वृद्धि लाना।
नरक का मार्ग अच्छे आशय से तैयार किया जाता है
भारत की लगभग 30% आबादी स्वेच्छा से और मध्यम मात्रा में शराब का सेवन करती है; व्यापक प्रतिबंध इस उपभोक्ता समूह के लिए कल्याणकारी नहीं होगा। इसके अलावा, इससे संसाधनों की कमी वाले बिहार राज्य में 4,000 करोड़ रुपये का भारी राजस्व नुकसान होगा। ऐसी नीति बिहार में आने वाले कल के लिए एक स्वस्थ संकेत नहीं देता है | कोई भी राज्य अपने ही लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करके, अपनी गलत नीति के कारण बने 'अपराधियों' के पीछे जाने में राज्य की ऊर्जा को बर्बाद करके, और अपनी खराब वित्तीय स्थिति के साथ प्रगति के पथ पर अग्रसर नहीं हुआ है ।
लोगों के लिए लोकतंत्र कितना कारगर है यह राज्य प्रशासन की नागरिकों के बीच साख और मतदाताओं की परिपक्वता पर निर्भर करता है। लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता जिन बेअसर नीतियों से हनन होती हो, और जिससे लोगो को अपनी गलतियों से सीखने की संभावना कम होती हो– ये लोगों की बौद्धिक विकास में रूकावट डालती हैं| और इस तरह की बेबुनियादी नीतियां, न केवल लोगों को अपने खुद के बारे में एक अच्छी समझ बनाने में मुश्किल खड़ी करेंगी, बल्कि वे नीतीश कुमार की 'सुशासन बाबू'2 की छवि को भी क्षति पहुचांएगी।
शराब पर पूर्ण प्रतिबंध महिलाओं के प्रति हिंसा को रोकने में मददगार नहीं होगा। शराब महंगी करने से हो सकता है।
इस आलेख का एक संस्करण इकोनॉमिक टाइम्स ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ है।
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टिप्पणियाँ:
- शराब की कीमतों में बदलाव से शराब की मांग में ज्यादा बदलाव नहीं होता है।
- 'सुशासन बाबू', 'सुशासन वाले व्यक्ति' का हिंदी पर्याय है।
लेखक परिचय: संजीव कुमार येल युनिवर्सिटी में येल स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में स्वास्थ्य नीति और प्रबंधन विभाग में स्वास्थ्य अर्थशास्त्र और स्वास्थ्य नीति के व्याख्याता हैं। निशीथ प्रकाश अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर हैं और कनेक्टिकट विश्वविद्यालय, स्टोर्स में अर्थशास्त्र विभाग और मानवाधिकार संस्थान के साथ संयुक्त पद पर हैं।
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