कोविड-19 महामारी ने भारत के स्कूलों में पहले से ही व्याप्त घोर असमानता को और बढ़ा दिया है। इस लेख में मार्टिन हॉस और अभिषेक आनंद ने तीन व्यापक विषयों पर चर्चा की है - डिजिटल डिवाइड, इंफ्रास्ट्रक्चर डिवाइड तथा फंडिंग डिवाइड। उनके अनुसार विशेष हित समूहों को निजी स्कूलों का समर्थन नहीं करना चाहिए, इसके बजाए मुफ़्त शिक्षा प्रदान करने वाले सरकारी स्कूलों में व्यापक निवेश करना चाहिए ताकि गरीब एवं अन्य वंचित बच्चों का भविष्य सुरक्षित रखा जा सके।
कोविड-19 महामारी की वजह से दुनिया भर में व्यापक पैमाने पर स्कूल बंद पड़े हैं। यूनेस्को के मुताबिक़ 188 देशों में डेढ़ अरब से ज़्यादा बच्चे इससे प्रभावित हुए हैं। यह सचमुच एक अभूतपूर्व स्थिति है। इसके साथ, इस वैश्विक महामारी ने विभिन्न देशों के बीच पहले से व्याप्त असमानता को बढाने का काम तो किया ही है, देशों के अंदर भी विषमता की खाई भी बढ़ा दी है।
इस लेख के माध्यम से तीन व्यापक विषयों पर चर्चा की जाएगी, यथा डिजिटल डिवाइड, इंफ्रास्ट्रक्चर डिवाइड और फंडिंग डिवाइड। इस क्रम में सामान्य रूप से भारत और विशेष तौर पर बिहार पर फ़ोकस किया जाएगा।
डिजिटल डिवाइड
मीडिया में दूरस्थ शिक्षा और तकनीकी-आधारित शैक्षिक उपायों (एड-टेक सॉल्युशन्स) के ज़रिए लॉक डाउन अवधि में बच्चों को शिक्षा देने संबंधी क़वायदों को ख़ासा कवरेज़ देने के साथ-साथ उन पर व्यापक चर्चा की जा रही है। लेकिन इस तरह के उपाय प्रायः सरकारी स्कूलों की ज़मीनी हक़ीक़त और उनमें पढ़ने वाले बच्चों की घरेलू विशेषताओं की अनदेखी करते हैं।
असर (एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट) 2018 के मुताबिक़ बिहार के लगभग आधे विद्यालयों में किसी सामान्य दिन पर केवल कामचलाऊ बिजली कनेक्शन ही उपलब्ध है। 2011 की जनगणना के अनुसार, बिहार की लगभग 15 फ़ीसदी आबादी के पास टेलीविजन, 7 प्रतिशत के पास कंप्यूटर और 50 फ़ीसदी से थोड़ा ज़्यादा लोगों के पास मोबाइल फ़ोन (सामान्य अथवा स्मार्ट फ़ोन) है। हालांकि यह तर्क दिया जा सकता है कि पिछले 9 वर्षों में काफ़ी बदलाव आया होगा, लेकिन इन औसत आंकड़ों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। अमूमन सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं अत्यंत गरीब परिवारों से आते हैं।
असर 2017 से कुछ और अहम जानकारियाँ मिलती हैं। मसलन, बिहार के मुज़फ्फ़रपुर ज़िले में लगभग 85 फ़ीसदी युवाओं (14-18 आयु वर्ग के) ने सर्वे के एक सप्ताह पूर्व (यानि सिर्फ़ पिछले सप्ताह में) मोबाइल का प्रयोग किया था जबकि इंटरनेट सुविधा तक पहुँच सिर्फ़ 26.3 प्रतिशत लोगों के पास थी। इतना ही नहीं, घरेलू स्तर पर 39.2% पुरुषों के मुक़ाबले महज़ 14.9% महिलाओं को ये सुविधाएं उपलब्ध थीं, जो घोर लैंगिक असमानता का सूचक है। अगर कंप्यूटर उपलब्धता की बात करें तो सर्वे में भाग लेने वाले लोगों में से मात्र 20.4% को यह सुविधा (पिछले सप्ताह में) उपलब्ध थी, जबकि अन्य 72.7% युवाओं ने दावा किया कि उन्होंने कभी कंप्यूटर का इस्तेमाल नहीं किया। इसके साथ-साथ 28.9% पुरुषों व 12.9% महिलाओं के रूप में यहाँ भी व्यापक लैंगिक असंतुलन देखा जा सकता है। इसलिए, बड़े पैमाने पर प्रचलित इस खाई को पाटने हेतु तकनीकी-आधारित उपायों की पहुँच, ख़ासकर सरकारी स्कूल के विद्यार्थियों के सन्दर्भ में, बेहद सीमित है। प्राथमिक स्कूलों के छात्रों के संबंध में तो यह संख्या संभवतः और भी कम होगी। स्वास्थ्य महामारी के साथ-साथ आर्थिक झटकों, विशेषकर असंगठित क्षेत्र में, को देखते हुए शिक्षा देने के लिए तकनीकी-आधारित उपायों की पहुँच और कम होने की संभावना है। इसका सीधा कारण यह है कि ख़र्च करने योग्य आय में भारी कमी की वजह से ग़रीब वर्ग के लोगों द्वारा इंटरनेट पैक की लागत वहन कर पाना असंभव है।
इसके विपरीत अधिकांश बच्चों को रेडियो की सुविधा उपलब्ध है। इतना ही नहीं, रेडियो कार्यक्रम के साथ-साथ ऑफ़लाइन विकल्प, जैसे मध्याहन भोजन (मिड-डे मील) अथवा खाद्य पैकेट के साथ वर्कशीट का वितरण किया जा सकता है। ऐसे वर्कशीट्स को समाचारपत्र प्रेस द्वारा मुद्रित कर उनका तेज़ी से वितरण सुनिश्चित किया जा सकता है।
इसके अलावा एसएमएस और आईवीआरएस (इंटरैक्टिव वॉयस रेस्पॉन्स सिस्टम) के ज़रिए ज़्यादातर बच्चों को निम्न तकनीक वाला उपयोगकर्ता इंटरफ़ेस मुहैया कराया जा सकता है। साथ ही, सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी तकनीक आधारित प्रणाली से वंचित आदिवासी समुदाय और अन्य कमज़ोर वर्ग के बच्चों के लिए विशेष इंतज़ाम किए जाने चाहिए।
कुछ राज्यों ने इस तथ्य को स्वीकारना शुरू कर दिया है, जिनमें बिहार भी शामिल है जहाँ रेडियो कार्यक्रम की घोषणा की गई है। ऐसे माहौल में जहां ऐप्स और चमक-दमक वाले तकनीकी गैजेट्स को राजनीतिक रूप से लाभकारी माना जाता है और जिसे अंग्रेज़ी प्रेस और मुखर मध्यम वर्गीय मतदाताओं द्वारा ख़ूब तरजीह दी जा रही है, यह निश्चित रूप से एक स्वागत योग्य क़दम है।
यद्यपि कई राज्यों ने इस तरह के प्रोत्साहनों को अपनाने के साथ-साथ ऐप्स व ऑनलाइन शिक्षण विकल्प भी विकसित किए हैं, लेकिन ये सब उपाय बहुसंख्यक विद्यार्थियों की पहुंच से काफ़ी दूर हैं। इससे एक तरफ़ जहां शैक्षिक असमानता में वृद्धि हो रही है, वहीं अपर्याप्त सार्वजनिक कोष का इस्तेमाल अपेक्षाकृत संपन्न अल्पसंख्यक विद्यार्थियों के पठन-पाठन में किया जा रहा है।
तकनीकी-आधारित शिक्षण विकल्प मुहैया कराने वाली बड़ी कंपनियां लंबे समय से भारत को अपने “उत्पादों” के प्रमुख बाज़ार के रूप में देखती रहीं हैं। साल 2016 में प्रकाशित बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप की रिपोर्ट के अनुसार भारत तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार (कुल निजी निवेश में हिस्सेदारी के आंकलन के आधार पर) है। इन कंपनियों ने आपदा स्थिति को भुनाने के प्रयास में अपने नेटवर्क को फिर से समायोजित कर लिया है जो पर्याप्त और चुस्त-दुरुस्त नियमन के अभाव में सर्वथा संभव भी है।
इंफ्रास्ट्रक्चर डिवाइड
ग़ौरतलब है कि मौजूदा असमानताएं स्कूलों के खुलने के बाद भी बढ़ती रहेंगी। जहां ग़रीबों के लिए चलने वाले सरकारी स्कूलों को अपर्याप्त मूलभूत सुविधाओं के कारण कई दिक्क़तें होंगी, वहीं छोटे आकार वाले एवं भव्य कक्षाओं से लैस सुरक्षित परिसर वाले निजी स्कूलों में नियमित कक्षाएं जल्दी से फिर शुरू हो सकती हैं जिससे अमीर बच्चों को काफ़ी फ़ायदा होगा। इसके अलावा सरकारी स्कूलों में प्रायः क़ानूनी रूप से अनिवार्य सुविधाओं, जैसे शौचालय, नल का पानी और पर्याप्त कक्षाओं का अभाव होता है। हालांकि विभिन्न राज्यों में हालात अलग-अलग हैं, लेकिन बिहार की स्थिति ज़्यादा ख़राब है।
विश्वसनीय अनुमानों के अनुसार, वर्तमान उपलब्धता की तुलना में बिहार में 75% से अधिक कक्षाओं की और दोगुने शिक्षकों की आवश्यकता है। यद्यपि संक्रमण रोकने के लिए प्रभावी उपायों (स्कूल बंद करने के अलावा, हालांकि इसको लेकर भी मतभिन्नता है) की समुचित जानकारी अपने आप में एक समस्या है, लेकिन बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव और भीड़ भरी कक्षाएं अतिरिक्त चुनौतियां हैं।
इसे देखते हुए सम-विषम योजना के तहत एक-एक दिन के अंतर पर कक्षाएं चलाई जा सकतीं हैं ताकि भीड़भाड़ से बचा जा सके। साथ ही, सरकार को मास्क, साबुन के अलावा पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराना होगा। अगर मध्याहन भोजन के अंतर्गत अतिरिक्त नाश्ते का भी प्रावधान किया जाए, तो और बेहतर होगा। चूँकि अनेक परिवार या तो घोर ग़रीबी का शिकार हो चुके हैं या होने की कगार पर हैं, इसलिए कुपोषण का जोखिम काफ़ी बढ़ जाएगा, जिससे निबटने के लिए अभी से पूरी ताक़त झोंकनी होगी। बिहार जैसे राज्य के लिए यह एक बहुत बड़ी चुनौती होगी, जिसकी एक बड़ी आबादी इस महामारी के आगमन के पहले से ही बहुआयामी ग़रीबी का शिकार है।
इन चुनौतियों के अलावा बच्चों की स्कूल वापसी सुनिश्चित करना और भी मुश्किल होगा। विभिन्न अध्ययनों के मुताबिक़ स्कूल जितने लंबे समय तक बंद रहते हैं, विद्यालय फिर से खुलने पर बच्चों की वापसी की संभावना उतनी की कम हो जाती है। हालांकि कुछ दक्षिणी राज्यों में सक्रिय अभिभावक समूह हो सकते हैं जो इस समस्या से निबटने में कारगर सिद्ध हो सकते हैं, लेकिन बिहार के आंकड़ों में विद्यालय प्रबंधन समितियों की मौजूदगी ज़्यादातर काग़ज़ों पर ही है। इसके अलावा शिक्षा नौकरशाही में भारी तादाद में रिक्तियों और बुनियादी उपकरणों के अभाव की वजह से ब्लॉक एवं ज़िला स्तरीय पदाधिकारियों के लिए अनिवार्य शिक्षा नियमों को लागू कर पाना लगभग असंभव है। इसे किसी बहाने के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि यह समुचित स्टाफ़ और संसाधनों की अविलंब उपलब्धता की ज़रूरत को रेखांकित करता है। इसे जल्द से जल्द दूर करना आवश्यक है ताकि खेतों और ईंट भट्ठियों पर जाकर अपनी क्षमता और स्वतंत्रता को बाधित किए बिना लाखों बच्चे वापस स्कूल लौट सकें।
फंडिंग डिवाइड
लॉक डाउन के दौरान भारी संख्या में प्रवासी मज़दूरों के बिहार लौटने की वजह से सरकारी स्कूलों में अतिरिक्त नामांकन की संभावना बढ़ गई है। लेकिन पूर्व-निर्धारित वार्षिक कार्ययोजनाओं और प्रायः राज्य की मांग से कम बजटीय प्रावधानों के मद्देनज़र वर्तमान योजना प्रक्रियाएं इस नई चुनौती से निबटने के लिए ज़रूरी आवश्यकताओं को समायोजित नहीं कर सकतीं, जो एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।
इससे भी चिंताजनक बात यह है कि केंद्र से राज्यों के लिए आवंटित पैसा बेहद धीमी गति से पहुंचता है, और फिर स्कूलों तक पहुंचते-पहुंचते काफ़ी देर हो जाती है। उदहारण के तौर पर, फंड प्रवाह के लिए स्थापित लंबी प्रशासनिक इकाइयों की श्रृंखला की पहली कड़ी, यानि केंद्र सरकार द्वारा दिसंबर माह तक (ध्यान रहे कि वित्तीय वर्ष का समापन मार्च महीने में होता है) मात्र 57% राशि जारी की गई है। फंड रिलीज़ के संदर्भ में इस ढुलमुल रवैये से कोविड-19 की वजह से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करना बेहद मुश्किल होगा।
फिर, अलग-अलग राज्यों में प्रति छात्र होने वाले ख़र्च में भी भारी असमानता है। उदाहरण के लिए, 2014 में सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च के तत्वावधान में किए गए पीएआईएसए (प्लानिंग, एलोकेशन्स एंड एक्स्पेंडिचर्स, इंस्टीट्यूशंस स्टडीज़ इन एकाउंटेबिलिटी) समीक्षा के मुताबिक़ बिहार द्वारा प्रति छात्र ख़र्च किए जाने वाले महज़ 4,500 रुपये की तुलना में केरल प्रति छात्र 40,000 रुपये व्यय करता है। इससे सरकारी स्कूल के विद्यार्थियों के संदर्भ में विशाल अंतरराज्यीय विभाजन को समझा जा सकता है।
इसे देखते हुए सरकारों द्वारा देश भर में पब्लिक फंड के प्रावधानों में कुछ हद तक (अगर पूरी तरह से नहीं) समानता लाने की तत्काल ज़रूरत है। अगर भीड़भाड़ वाली कक्षाओं, अयोग्य शिक्षकों और निर्धन छात्रों की बात करें, तो बिहार की हिस्सेदारी सबसे ज़्यादा है। इसलिए देश भर में सामान साझेदारी और एकरूपता सुनिश्चित करने हेतु केंद्र सरकार को बिहार जैसे राज्यों पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। साथ ही, हम उम्मीद करते हैं कि यह महामारी केंद्र-राज्य के बीच फंड स्थानांतरण और केंद्र प्रायोजित योजनाएं, जो शिक्षा पर होने वाले ख़र्च का प्रमुख स्रोत हैं, के पुनर्गठन को प्रोत्साहित कर सकती है।
इस महामारी की वजह से बड़े पैमाने पर पैदा हुए गंभीर आर्थिक प्रभावों से हालत और बदतर होने की संभावना है। इससे जहां राजस्व में अनिवार्य रूप से कमी आएगी, वहीं आवश्यक ख़र्चों, जैसे स्वास्थ्य और पोषण सहायता पर ज़्यादा से ज़्यादा व्यय करना होगा ताकि लोगों को मरने से बचाया जा सके। हालांकि स्वास्थ्य और पोषण महत्वपूर्ण हैं, लेकिन उल्लिखित चुनौतियों से निबटने के लिए शिक्षा तंत्र को सुरक्षित रखना और शिक्षा व्यय को बढ़ाए जाने की भी बराबर ज़रूरत है। साथ ही, राजकोषीय स्थिरता संबंधी नियमन, बच्चों पर होने वाले अहम ख़र्च के आड़े नहीं आने चाहिए।
हाल ही में निजी स्कूल संचालकों ने सरकार से आर्थिक मदद की गुहार लगाई है कि सरकार बच्चों के माता-पिता व अभिभावकों को पैसा हस्तांतरित करे ताकि वे इन्हें शुल्क देना जारी रख सकें। इससे हर हाल में बचा जाना चाहिए। इससे निजी व सरकारी स्कूलों के बीच व्याप्त विषमता को और बल मिलेगा जो क़तई सार्वजनिक हित में नहीं है। यह दावा कि ‘बजट’ प्राइवेट स्कूल सरकारी स्कूलों से बेहतर शिक्षा उपलब्ध करवाते हैं एक मिथक मात्र है जिसे कई स्वतंत्र अध्ययनों द्वारा साबित किया जा चुका है। साथ ही, अगर फ़ीस लेने वाले ये विद्यालय दिवालिया हो जाते हैं तो मुखर एवं गुणवत्ता को लेकर सजग बच्चे और माता-पिता सरकारी स्कूलों का रुख़ कर सकते हैं जिससे ऊर्ध्वगामी जवाबदेही को लेकर दीर्घकालिक सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। लेकिन इसे सुनिश्चित करने हेतु सरकारी स्कूलों को नामांकन वृद्धि की स्थिति से बेहतर तरीक़े से निबटने के लिए आवश्यक संसाधन ससमय मुहैया करवाया जाना अत्यंत महत्वपूर्ण होगा।
अहम बातें
इसमें दो राय नहीं कि इस महामारी ने भारत के स्कूलों में पहले से ही व्याप्त घोर असमानता को और बढ़ाने का काम किया है। साथ ही, इसने लंबे समय से क़ायम विभाजन पर एक नए सिरे से ध्यान केंद्रित करने का काम भी किया है। इस संदर्भ में इस महामारी ने एक सुअवसर दिया है कि हम इस बात को समझ सकें कि निजीकरण, लघु प्रशासनिक तंत्र एवं मितव्ययिता को लेकर किए गए वादे सामान्य स्थिति में कभी पूरे नहीं किए गए, स्वास्थ्य आपातकाल की बात ही कौन करे! हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि ये सरकारी स्कूल ही हैं जो अत्यंत दबाव की स्थिति में पोषण व शिक्षा के साथ-साथ अहम सुरक्षा कवच सुनिश्चित करते हैं।
इस स्थिति में सरकारों को सभी बच्चों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने वाले सरकारी स्कूलों की फंडिंग को प्राथमिकता देने की ज़रूरत है। साथ ही, बच्चों की सेहत पर पड़ने वाले दीर्घकालिक नकारात्मक प्रभावों से बचने के लिए उन्हें पोषण कार्यक्रमों को बढ़ाने पर अवश्य विचार करना चाहिए। इसके अलावा ऐसे राष्ट्रीय संकट के दौरान विशेष हित समूहों (निजी स्कूलों) द्वारा अपने अस्थिर बिजनेस मॉडल को समर्थन देने संबंधी अनुचित मांगों पर बिल्कुल विचार नहीं किया जाना चाहिए। इसकी बजाए मुफ़्त शिक्षा प्रदान करने वाले सरकारी स्कूलों में व्यापक निवेश किया जाना चाहिए ताकि ग़रीब एवं अन्य वंचित बच्चों का भविष्य सुरक्षित रखा जा सके।
लेखक परिचय ’:मार्टिन हॉस लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस (एलएसई), लंदन के पूर्व छात्र और बिहार शिक्षा नीति संस्थान (ईपीआईबी) के सलाहकार बोर्ड के सदस्य हैं। अभिषेक आनंद सेंटर फ़ॉर साउथ एशियन स्टडीज़, अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन केंद्र, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से पीएचडी कर रहे हैं और बिहार शिक्षा नीति संस्थान (ईपीआईबी) के प्रोजेक्ट मैनेजर हैं।
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