भारतीय अर्थव्यवस्था में तेज़ी से हो रही प्रौद्योगिकी प्रगति का क्या असर रोज़गार पर हो रहा है? इस सवाल का पता लगाने के लिए, कथूरिया और देव ने इस लेख में ‘उपभोक्ता पिरामिड पारिवारिक सर्वेक्षण’ के डेटा का विश्लेषण किया है। उन्होंने विशेष रूप से कोविड-19 के बाद के दौर में विभिन्न क्षेत्रों में कम कुशल श्रमिकों की हिस्सेदारी में लगातार गिरावट और रोज़गार की संभावनाओं में कमी को रेखांकित किया है। वे इन श्रमिकों, ख़ासकर महिलाओं को प्रशिक्षित करने पर बल देते हैं ताकि वे उच्च-कौशल, उच्च-भुगतान वाली नौकरियों तक पहुँच सकें।
पिछले कुछ दशकों में, ख़ासतौर पर कोविड-19 के बाद की अवधि में, दुनिया में प्रौद्योगिकी में तेज़ी से प्रगति हुई है जिससे उद्योगों और श्रम बाज़ारों में क्रांति आई है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई), स्वचालन और इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स (आईओटी) की विशेषता वाली चौथी औद्योगिक क्रांति (‘उद्योग 4.0’) हमारे काम करने के तरीके को फिर से परिभाषित कर रही है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक प्रमुख प्रतिभागी, भारत भी, इस प्रवृत्ति का अपवाद नहीं है। इस परिदृश्य में, देश में रोज़गार के रुझानों के सन्दर्भ में प्रौद्योगिकी प्रगति के प्रभाव का आकलन किया जाना महत्वपूर्ण है।
हम अपने नए शोध (कथूरिया और देव 2024) में, भारतीय अर्थव्यवस्था में हुई प्रौद्योगिकी प्रगति तथा रोज़गार में हुए बदलावों के हालिया रुझानों का विश्लेषण करते हैं। हम सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के उपभोक्ता पिरामिड पारिवारिक सर्वेक्षण (सीपीएचएस) के डेटा का उपयोग करते हुए, वर्ष 2019 से शुरू करके पिछले पाँच वर्षों में हुए विकास की जाँच करते हैं। हमारे अध्ययन से दो प्रमुख रुझान सामने आए हैं : (i) सभी क्षेत्रों में [प्राथमिक (कृषि), माध्यमिक (विनिर्माण) और तृतीयक (सेवा)] कम कुशल श्रमिकों की हिस्सेदारी में लगातार गिरावट और (ii) कौशल गहनता में वृद्धि देखी गई है, हालांकि विभिन्न क्षेत्रों में इसकी दर अलग-अलग है। विभिन्न क्षेत्रों में कम कुशल श्रमिकों के स्थान पर अब धीरे-धीरे अधिक कुशल श्रमिकों को तैनात किया जा रहा है।
कौशल विकास बहुत ज़रूरी है
भारत के श्रम बाज़ार पर प्रौद्योगिकी विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है। महामारी के कारण स्वचालन को गति मिली है, जिससे कई उद्योगों को डिजिटल उपकरण अपनाने के लिए प्रेरित किया गया है, जिससे मानव श्रम पर उनकी निर्भरता कम हो गई है। यद्यपि इस परिवर्तन से कुशल श्रमिकों को लाभ हुआ है, हमारे शोध से कम कुशल श्रमिकों के लिए एक परेशान करने वाली वास्तविकता का पता चलता है- स्वचालन से पूरक कौशल की मांग बढती है, जबकि यह नौकरी विस्थापन का जोखिम भी साथ लाता है। महत्वपूर्ण हस्तक्षेप के बिना, कम कुशल श्रमिकों के पीछे रह जाने की संभावना है। जैसे-जैसे व्यवसायों ने कोविड-19 महामारी के दौरान नई तकनीकों और दूरस्थ कार्य-व्यवस्थाओं को अपनाया, वैसे-वैसे कम कुशल श्रमिकों की हिस्सेदारी में गिरावट तेज़ हो गई। प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक सभी क्षेत्रों में कम कुशल श्रमिकों को इस व्यवधान का खामियाजा भुगतना पड़ा, हालांकि यह अलग-अलग अनुपात में था।
भारत के सन्दर्भ में, नौकरी बदलने के डर की तुलना में प्रौद्योगिकी के साथ काम करने की क्षमता अधिक महत्वपूर्ण है। दूसरे शब्दों में, नौकरियों में ध्रुवीकरण, जो विकसित और पुरानी अर्थव्यवस्थाओं की विशेषता है, भारतीय आँकड़ों में अभी तक पूरी तरह से प्रकट नहीं हुआ है। हालांकि, कम-कुशल श्रमिकों को विकास और अर्थव्यवस्था के संरचनात्मक परिवर्तन के कारण लंबी अवधि में ज़्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, जिससे उनकी प्राथमिक क्षेत्र की हिस्सेदारी में और गिरावट आने की उम्मीद है।
यह बदलाव भारत के रोज़गार परिदृश्य में व्यापक परिवर्तन को दर्शाता है : कौशल सबसे मूल्यवान परिसंपत्ति बन रहा है, यहां तक कि उन क्षेत्रों में भी जो कभी अकुशल लोगों के लिए स्वर्ग हुआ करते थे। नीचे दी गई आकृति-1 में तीनों क्षेत्रों में श्रमिकों की कौशल संरचना में बदलते रुझान को दर्शाया गया है। कृषि में, कम-कुशल श्रमिकों की हिस्सेदारी में गिरावट आई जबकि मध्यम-कुशल श्रमिकों ने इस अंतर को भर दिया। द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों में मध्यम-कुशल और कुशल श्रमिकों के रोज़गार में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई। तृतीयक उद्योगों में पेशेवर नौकरियों में सबसे अधिक वृद्धि देखी गई, जहाँ अब उनके कार्यबल का 65% से अधिक हिस्सा योग्य श्रमिकों का है।
आकृति-1. विभिन्न क्षेत्रों में श्रमिकों की कौशल संरचना
भारत का संरचनात्मक परिवर्तन अद्वितीय रहा है। पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के विपरीत, जिन्होंने सेवाओं में उछाल से पहले तेज़ी से औद्योगिकीकरण का अनुभव किया, भारत सीधे सेवा-आधारित अर्थव्यवस्था में छलांग लगा चुका है। यद्यपि इससे आर्थिक विकास को बढ़ावा मिला है, जिसमें सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि तो ऊँची है, लेकिन उत्पादक, औपचारिक रोज़गार के अवसरों में वृद्धि अपर्याप्त होने के कारण रोज़गार संबंधी विरोधाभास पैदा हुआ है। आँकड़ों के अनुसार 90% भारतीय श्रमिक अनौपचारिक नौकरियों में लगे हुए हैं, तथा अनेक कम-कुशल व्यक्ति अनिश्चित रोज़गार में फंसे हुए हैं, जिसमें उन्हें बहुत कम सुरक्षा मिलती है या उन्नति की संभावना कम होती है।
हाल ही में, कुशल श्रमिकों की मांग में काफी वृद्धि हुई है। माध्यमिक और तृतीयक क्षेत्रों में कुशल और विशेषज्ञ श्रमिकों की हिस्सेदारी लगातार बढ़ी है। हमारा अध्ययन दर्शाता है कि आईटी (सूचना प्रौद्योगिकी), वित्तीय सेवाओं और स्वास्थ्य सेवा जैसे उद्योगों में उच्च शिक्षित श्रमिकों, जिनके पास कम से कम 12वीं कक्षा की शिक्षा या विश्वविद्यालय की डिग्री है, के रोज़गार में उछाल देखा गया है। तृतीयक उद्योगों, जिनमें ई-कॉमर्स, डिजिटल मीडिया और ऑनलाइन शिक्षा जैसे तेज़ी से बढ़ते क्षेत्र शामिल हैं, ने इस प्रवृत्ति को अपनाया है। सेवा क्षेत्र में 65% से अधिक कार्यबल अब कुशल और विशेषज्ञ कर्मचारियों से बना है। जैसे-जैसे अधिक उद्योग एआई और स्वचालन को अपना रहे हैं, आलोचनात्मक सोच, रचनात्मकता और समस्या-समाधान कौशल वाले कर्मचारी तेज़ी से मूल्यवान होते जा रहे हैं।
नौकरी में कोई ध्रुवीकरण और लैंगिक असमानता नहीं
उल्लेखनीय बात यह है कि, जबकि भारत में कुशल श्रमिकों की मांग में वृद्धि देखी जा रही है, फिर भी यह कई विकसित देशों की तरह नौकरी-ध्रुवीकरण के पथ पर नहीं चल रहा है। पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं में, मध्यम-कौशल वाली नौकरियों के गायब होने से श्रम बाज़ार में 'खोखलापन' आ गया है, जहाँ केवल उच्च और निम्न-कौशल वाली नौकरियां ही बची हैं। इसके विपरीत, भारत का मध्यम कौशल वाला वर्ग बढ़ रहा है, जो इसके श्रम बाज़ार के अधिक संतुलित विकास को दर्शाता है। श्रम बाज़ार में कुल मिलाकर कौशल विकास हुआ है।
यद्यपि कुशल महिलाओं के लिए रोज़गार के अवसरों में सुधार हुआ है, फिर भी रोज़गार में लैंगिक असमानताएं बनी हुई हैं। कम कुशल महिलाओं के लिए, रोज़गार हासिल करने की संभावना नाटकीय रूप से कम हो गई है, जो वर्ष 2019 के बाद से लगभग 50% कम हो गई है। श्रम बाज़ार में प्रचलित लैंगिक असमानताओं तथा बढती कौशल आवश्यकताओं को देखते हुए, कम कुशल महिलाओं को असमान रूप से अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। हमारे निष्कर्षों से पता चलता है कि ये महिलाएँ इन बदलावों के सन्दर्भ में सबसे अधिक प्रतिकूल रूप से प्रभावित समूहों में से हैं।
हालांकि, एक उम्मीद की किरण भी है। कुशल महिलाएँ श्रम बाज़ार में अपनी पकड़ बनाने लगी हैं। स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और डिजिटल सेवाओं जैसे उद्योग उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाओं को अधिक अवसर प्रदान करते हैं। महामारी के कारण दूरस्थ कार्य और लचीले रोज़गार विकल्पों में वृद्धि से आने वाले वर्षों में महिला कार्यबल की भागीदारी को भी बढ़ावा मिल सकता है।
आशा की किरण : भारत को कुशल बनाने का मामला
चुनौतियों के बावजूद, प्राप्त निष्कर्ष उम्मीद जगाते हैं। भारत एक चौराहे पर खड़ा है। देश की अर्थव्यवस्था जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है, उसे प्रौद्योगिकी में तेज़ी से हो रही प्रगति से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करना होगा। यद्यपि एआई और ऑटोमेशन के उदय से विकास और नवाचार के अवसर प्राप्त होते हैं, इससे असमानता के बढ़ने और कम कुशल श्रमिकों के हाशिये पर धकेले जाने का भी खतरा है। जो कर्मचारी अपने कौशल को उन्नत करते हैं, उनके पास प्रौद्योगिकी-संचालित अर्थव्यवस्था में आगे बढ़ने का बेहतर मौका होता है। जैसे-जैसे अधिक क्षेत्र एआई और ऑटोमेशन को अपनाते हैं, पूरक मानव कौशल की आवश्यकता बढ़ेगी। उदाहरण के लिए, जबकि एआई दोहराए जाने वाले कार्यों को संभाल सकता है, फिर भी डेटा की व्याख्या करने, जटिल समस्याओं को हल करने और नई प्रणालियों को डिज़ाइन करने के लिए कुशल मानव श्रमिकों की आवश्यकता होती है।
कौशल संबंधी कमियों को दूर करने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है। कम कुशल श्रमिकों को उच्च-कौशल, उच्च-भुगतान वाली नौकरियों में जाने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण प्रदान करने वाले लक्षित कार्यक्रम कौशल संबंधी कमियों को कम कर सकते हैं। यह महिलाओं के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जो उन कौशल पहलों से लाभान्वित हो सकती हैं, जो उन्हें ऐसे क्षेत्रों में प्रवेश करने में मदद करेंगी, जहाँ परंपरागत रूप से उनका प्रतिनिधित्व कम रहा है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : आकाश देव नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) के सेंटर ऑन जेंडर एंड मैक्रोइकॉनॉमी (सीजीएम) में एसोसिएट फेलो हैं। वह शिव नादर इंस्टीट्यूशन ऑफ एमिनेंस से अर्थशास्त्र में अपनी पीएचडी पूरी करने वाले हैं। उनका डॉक्टरेट अनुसंधान श्रम मैक्रोइकॉनॉमिक्स के क्षेत्र में है। उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर और दिल्ली विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातक (ऑनर्स) किया है। रजत कथूरिया शिव नादर विश्वविद्यालय में मानविकी और सामाजिक विज्ञान स्कूल के डीन और अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं। विनियमन और प्रतिस्पर्धा नीति से संबंधित कई मुद्दों पर व्यापक शोध करने के अलावा, उनके पास शिक्षण का 20 से अधिक वर्षों का और आर्थिक नीति में 15 से अधिक वर्षों का अनुभव है।
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