गरीबी के बारे में अलग-अलग अनुमानों के परिणामस्वरूप कुछ वंचित समुदाय अक्सर सरकारी कल्याण योजनाओं से बाहर रह जाते हैं। सबरवाल और चौधरी बिहार में लागू ‘सतत जीविकोपार्जन योजना’ का अध्ययन करते हैं, जिसमें अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोगों की पहचान करने और यह सुनिश्चित करने के लिए कि उन्हें सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तक पहुंच प्राप्त हो, बीआरएसी द्वारा अपनाए गए ‘ग्रेजुएशन अप्रोच’ कार्यप्रणाली के ज़रिए सामुदायिक ज्ञान का उपयोग किया जाता है। वे इस बात की चर्चा करते हैं कि यह लक्ष्यीकरण दृष्टिकोण किस तरह से गैर-मौद्रिक अभाव को ध्यान में रखता है और महिलाओं व अन्य हाशिए पर रहने वाले समूहों का समावेश सुनिश्चित करता है।
भारत में, गरीबी की परिभाषा और उसके अनुमान पर एक लम्बे समय से बहस चल रही है। गरीबी को मापने और परिभाषित करने के बारे में सर्वसम्मति की परंपरागत कमी रही है। इस कमी ने सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों को अत्यधिक गरीबी का सामना करने वाले लाखों लोगों की पहचान करने और उसका समाधान खोजने के लिए अलग-अलग तरीकों का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया है।
हाल के दिनों में, इन अलग-अलग दृष्टिकोणों की वजह से गरीबी के बिल्कुल अलग-अलग माप सामने आये हैं : अप्रैल 2022 में, सुरजीत भल्ला, करण भसीन और अरविंद विरमानी द्वारा लिखित अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि भारत की केवल 0.8% आबादी अत्यधिक गरीबी में रहती है, जिसके लगभग उन्मूलन का संकेत मिलता है, जबकि विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार यह आंकड़ा 10% है। इस अनुमान के अनुसार, लगभग 13 करोड़ लोग अत्यधिक गरीबी में रहते हैं और वर्ष 2020 में महामारी की शुरुआत के बाद और 5 करोड़ 60 लाख लोगों के गरीबी में चले जाने का अनुमान है। इसके साथ ही, वर्ष 2021 में जारी किए गए नीति आयोग के बहुआयामी गरीबी सूचकांक (मल्टीडायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स) अनुमान कई मापदंडों के आधार पर भारत की 25.01% प्रतिशत जनसंख्या को गरीबी में जी रही वर्गीकृत करते हैं।
हालांकि किसी भी दृष्टिकोण की प्रभावशीलता और सटीकता नियमित और कठोर डेटा के संग्रह पर निर्भर होती है, इसे बड़े पैमाने पर लागू करना मुश्किल है। इसके परिणामस्वरूप अक्सर उन लोगों के समावेशन और बहिष्करण संबंधी त्रुटियाँ बनी रहती हैं, जो इन योजनाओं के हकदार हैं– पहले में गैर-ज़रूरतमंदों के लिए सामाजिक समर्थन के प्रावधान का और बाद वाले में अपर्याप्त कवरेज या उन लोगों तक पहुंचने में विफलता का जिक्र है।
‘सतत जीविकोपार्जन योजना’ बिहार सरकार द्वारा जारी एक योजना है, जिसमें इस चुनौती का समाधान करने और अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोगों की पहचान करने के लिए एक नवल साधन, सामुदायिक ज्ञान, का उपयोग किया जा रहा है। बिहार के व्यापक समुदाय-आधारित संगठनों द्वारा अपनाई गई पहचान प्रक्रियाओं का लाभ उठाने से बहिष्करण त्रुटियों को सीमित करने और राज्य के 2,00,000 अति-गरीब1ग्रामीण परिवारों में महिलाओं को आजीविका सहायता प्रदान करने में मदद मिली है।
क्या स्थानीय परिस्थितियों और प्रासंगिक बारीकियों के बारे में सामुदायिक ज्ञान का बड़े पैमाने पर लाभ उठाने जैसे वैकल्पिक तरीकों को लागू करके भारत के गरीबी डेटा में व्याप्त अंतर को पाटा जा सकता है? बिहार के अनुभव बताते हैं कि ऐसा हो सकता है।
गरीबी की अत्यधिक सूक्ष्म परिभाषा तय करना
गरीबी को आमतौर पर, उस मौद्रिक सीमा के आधार पर मापा जाता है जिसके नीचे किसी व्यक्ति की ज़रूरतें पूरी नहीं हो सकती। प्रमुख रूप से, विश्व बैंक की प्रति व्यक्ति प्रति दिन $2.15 की सीमा का उपयोग दुनिया के कुछ सबसे गरीब देशों में अत्यधिक गरीबी के राष्ट्रीय स्तर को परिभाषित करने के लिए किया गया है।
हालांकि विश्व स्तर पर गरीबी की कई परिभाषाएँ हैं, लेकिन इस बात पर सहमति है कि गरीबी कई और एक साथ आसन्न ज़रूरतों से वंचित होने की स्थिति2 है। यह नीति-निर्माताओं और शोधकर्ताओं को न केवल मौद्रिक गरीबी के एकाधिकार से आगे की सोचने के लिए प्रोत्साहित करता है, बल्कि गैर-मौद्रिक अभावों की सापेक्ष और विषम प्रकृति को समझने के लिए और अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रोत्साहित भी करता है जो परिवारों की समग्र भलाई को निर्धारित करते हैं। भारत में, केवल मौद्रिक उपायों से आगे की सोचने के प्रयासों का उदाहरण सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना (पिछली बार वर्ष 2011 में आयोजित) और बहुआयामी गरीबी सूचकांक (वर्ष 2015-16 में आयोजित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के आधार पर) में मिलता है, जिसका उद्देश्य एकाधिक और अतिव्यापी अभावों को समझना है ।
मौजूदा स्थानीय बुनियादी ढांचों जैसे अन्य कारकों के अलावा, गैर-मौद्रिक अभाव अक्सर विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भों में निहित होते हैं। अक्सर ये स्थितियाँ एक ही राज्य में भी भिन्न होती हैं। उदाहरण के लिए, तटीय तमिलनाडु में अत्यधिक गरीबी में बसर करनेवाले परिवार की विशेषताएं राज्य के पहाड़ी क्षेत्र में स्थित परिवार से भिन्न होंगी। गरीबी के आम तौर पर उपयोग किए जाने वाले माप, जैसे कि पंखे जैसे घरेलू उपकरणों तक पहुंच, के परिणामस्वरूप गर्म तटीय क्षेत्रों (जहां आवश्यकता के कारण पंखे होने की अधिक संभावना है) के परिवारों को गरीबी के अनुमान से गलत तरीके से बाहर रखा जा सकता है।
बांग्लादेश के एक गैर-सरकारी संगठन, बीआरएसी, द्वारा विकसित स्थायी आजीविका कार्यक्रम क्रमस्थापन दृष्टिकोण या ग्रेजुएशन अप्रोच, अति-गरीब परिवारों की पहचान करते समय अशुद्धियों को कम करने में सहायक हो सकता है। नियमित माइक्रोफाइनेंस सेवाओं और सरकारी कल्याण कार्यक्रमों तक पहुंच के बिना अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए इस कार्यक्रम को पहली बार वर्ष 2006 में लागू किया गया था।
यह कार्यक्रम छह पूरक और अनुक्रम घटकों (उत्पादक संपत्ति, प्रशिक्षण, कोचिंग, बचत तक पहुंच और उपभोग समर्थन आदि) से बना है, जिसमें से प्रत्येक को अति-गरीब परिवारों द्वारा सामना किए जाने वाले विशिष्ट अभावों के समाधान के लिए डिज़ाइन किया गया है। यह कार्यक्रम दो वर्षों में कार्यान्वित किया गया और इसका लक्ष्य है अत्यधिक गरीबी में रहने वाले लोगों को अधिक सुरक्षित आजीविका की ओर बढ़ने में मदद करने के लिए एक 'बड़ा प्रोत्साहन' प्रदान करना। आज तक, 100 से अधिक संगठनों ने 1 करोड़ 40 लाख लोगों तक पहुंचने के लिए 50 विभिन्न देशों में इस दृष्टिकोण को अपनाया है।
क्रमस्थापन या ग्रेजुएशन अप्रोच के तहत अति-गरीब परिवारों को लक्षित करना
इस कार्यक्रम की सफलता के कारणों में से एक, इस दृष्टिकोण द्वारा अपनाई गई लक्ष्यीकरण की पद्धति है, जिसमें एक कठोर प्रक्रिया के ज़रिए पात्र परिवारों का पता लगाया जाता है और बहिष्करण को कम किया जाता है। इन लक्ष्यीकरण तंत्रों या पात्रता मानदंडों में राष्ट्रीय गरीबी डेटा, परिवारों के बारे में वर्तमान में उपलब्ध डेटा, सामुदायिक ज्ञान, और कार्यक्रम कर्मचारियों द्वारा प्रशासित सर्वेक्षण का संयोजन शामिल है। इसके साथ-साथ ही, एक सत्यापन प्रक्रिया भी की जाती है जिससे यह सुनिश्चित होता है कि सभी मानदंड पूरे हो गए हैं।
उच्च स्तर की सामुदायिक भागीदारी और गांव के नेताओं, सदस्यों जैसे समुदाय के प्रभावशाली लोगों के साथ जुड़ाव के माध्यम से, क्रमस्थापन दृष्टिकोण में प्रभावी लक्ष्यीकरण को अपनाया जाता है। यह लैंगिक समानता के संदर्भ में बाधाओं को कम करता है और हाशिए पर रहने वाले समूहों की कमाई क्षमता को ध्यान में रखते हुए उन्हें शामिल करना सुनिश्चित करता है (एलाटस एवं अन्य 2012)।
छह देशों में इस ग्रेजुएशन अप्रोच के मूल्यांकन के परिणाम दर्शाते हैं कि यह कार्यक्रम अति-गरीब परिवारों, अर्थात लाभार्थी समूह में शामिल मुख्य रूप से यूएस $1.25 प्रति दिन (या गरीबी रेखा से नीचे) के नीचे रहने वाले परिवारों की पहचान करने और उन्हें लक्षित करने में सफल रहा है (अब्दुल लतीफ जमील पॉवर्टी एक्शन लैब- जे-पीएएल, 2015)। हालांकि, क्या इस प्रक्रिया को बड़े पैमाने पर दोहराना संभव है?
बिहार में बड़े पैमाने पर अत्यधिक गरीबों की पहचान करना
वर्ष 2019 में बिहार सरकार ने गरीबों में से सबसे गरीब लोगों को अत्यधिक गरीबी से बाहर निकलने में मदद करने के लिए एक सामाजिक सुरक्षा योजना- सतत जीविकोपार्जन योजना (एसजेवाई) शुरू की। एसजेवाई के तहत बिहार राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन वर्तमान में 2 लाख अति-गरीब परिवारों को लक्षित करने के लिए ‘ग्रेजुएशन अप्रोच’ द्वारा अनुशंसित तंत्र का उपयोग और अनुकूलन कर रहा है।
एसजेवाई के तहत ग्रामीण परिवारों को ‘अति-गरीब’ की श्रेणी में आने के लिए, इस प्रणाली में उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थितियों को समझने के लिए बारह अलग-अलग संकेतकों (आय, जाति और व्यवसाय के अलावा) पर विचार किया जाता है। इन संकेतकों में किसी भी प्रकार की बचत का होना, सरकारी योजनाओं तक पहुंच जिसके लिए परिवार पात्र है, सामाजिक समूहों (स्वयं सहायता समूहों-एसएचजी या अन्य समुदाय-आधारित संगठनों) में सक्रिय भागीदारी, औपचारिक ऋण तक पहुंच, और अन्य कारकों के अलावा, परिवारों में स्कूल जाने वाले बच्चों की शैक्षिक स्थिति संबंधी संकेतक शामिल हैं। बंधन-कोन्नगर3 के सहयोग से किए गए एक पायलट अध्ययन में इस्तेमाल किए गए लक्ष्यीकरण दृष्टिकोण के आधार पर, एसजेवाई में इन मानदंडों के आधार पर अति-गरीब परिवार की पहचान करने के लिए ट्रांसेक्ट वॉक4, सोशल मैपिंग और धन रैंकिंग का उपयोग किया जाता है। महत्वपूर्ण रूप से, इसमें प्रचलित सामुदायिक ज्ञान का उपयोग किया जाता है और मौजूदा समुदाय-आधारित संगठनों और कैडरों (जैसे एसएचजी, सामुदायिक संसाधन व्यक्ति- सीआरपी, और अन्य ग्राम संगठनों) से इनपुट का लाभ उठाया जाता है ताकि गरीबी की सबसे चरम स्थितियों में रहने वाले अति-गरीब परिवारों की पहचान और रैंकिंग की जा सके। इसके बाद, कुलीन वर्ग के कब्जे की घटनाओं से बचने के लिए ब्लॉक-स्तरीय जीविका अधिकारी एसजेवाई प्रतिभागियों की समर्थित सूची की अंतिम जांच करते हैं (समरनायके एवं अन्य 2021)। इसके पश्चात अनुवर्ती कार्रवाई के रूप में विशेष पहचान अभियान चलाया जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी पीछे न रह जाए।
अत्यधिक गरीबी में रहने वाले व्यक्तियों का पता लगाने और उन्हें लक्षित करने की दिशा में यह दृष्टिकोण, इस प्रक्रिया में सामुदायिक स्वामित्व को बढ़ावा देता है और इन आंकड़ों के समय पर अपडेट को भी सुनिश्चित करता है– जो स्थानीय परिस्थितियों के सामुदायिक ज्ञान का उपयोग करके किया गया कार्य है। प्रक्रिया निगरानी डेटा में भी न्यूनतम बहिष्करण त्रुटियाँ होती है।
एसजेवाई का वैकल्पिक दृष्टिकोण बहिष्करण त्रुटियों को ठीक करने में भी मदद कर रहा है जो आम तौर पर अति-गरीब परिवारों की महिलाओं को एसएचजी जैसे सामुदायिक संगठनों तक पहुंचने से रोकता है। भारत में 80 लाख पंजीकृत एसएचजी में, सदस्यों के उच्चतम अनुपात (55%) में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के अलावा अन्य समुदायों से संबंधित सदस्य हैं। ऐसा इस तथ्य के बावजूद है कि भारत में 6 में से 5 बहुआयामी गरीब निचली जनजातियों या जातियों के हैं।
इस चुनौती को स्वीकार करते हुए, भारत सरकार की दीन दयाल अंत्योदय योजना- राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एनआरएलएम) के तहत सितंबर 2022 में, स्व-चयन प्रक्रिया के माध्यम से छूटे हुए परिवारों को अपने दायरे में शामिल करने के लिए एक राष्ट्रीय अभियान शुरू किया गया। इसमें मौजूदा एसएचजी सदस्यों को किसी ऐसे मित्र या पड़ोसी को समूह में शामिल करने के लिए प्रोत्साहित किया गया, जो एसएचजी-सदस्य नहीं है। इससे सबसे गरीब लोगों तक पहुंचने की क्षमता सीमित हो सकती है, जो आमतौर पर सामाजिक रूप से अच्छी तरह से एकीकृत नहीं हैं।
परिवारों को वर्तमान सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से जोड़ना
किसी भी सामाजिक कल्याण योजना की प्रभावशीलता उसके इच्छित लाभार्थियों तक पहुंचने की क्षमता पर निर्भर करती है। बहिष्करण त्रुटियों के माध्यम से कम गिनती के परिणामस्वरूप, अक्सर उन असंख्य योजनाओं तक पहुंच सीमित हो जाती है, जो उन लोगों को समर्थन देने के लिए शुरू की गई हैं, जिन्हें उनकी सबसे अधिक आवश्यकता है। इसके चलते वे गरीबी में फंसे रहते हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) की एक रिपोर्ट में पाया गया कि, सबसे कम मासिक प्रति व्यक्ति व्यय (एमपीसीई) वाले ग्रामीण परिवारों में से केवल 41% और शहरी परिवारों में से केवल 29% के पास गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) वाला राशन कार्ड है।
बिहार में एसजेवाई के कार्यान्वयन से मिले सबक से पता चलता है कि क्रमस्थापन दृष्टिकोण न केवल प्रासंगिक ज्ञान के साथ मौद्रिक उपायों को बढ़ावा देकर अति-गरीब परिवारों की सटीक पहचान करने में मदद करता है, बल्कि इस प्रक्रिया में इन परिवारों को अन्य सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की मुख्यधारा से जोड़ने में भी मदद करता है (मार्कहोफ 2020)।
कार्यक्रम के विकास का अध्ययन करने के लिए 11,000 से अधिक प्रतिभागियों के साथ, पांच वर्षों (2019-2023) में नियमित प्रक्रिया निगरानी सर्वेक्षण आयोजित किए गए। वर्ष 2020 में किए गए सर्वेक्षणों के डेटा में, योजना के पात्रता मानदंडों के अनुसार परिवारों के सटीक लक्ष्यीकरण पर प्रकाश डाला गया है- सर्वेक्षण किए गए लाभार्थी परिवारों में से 6% ताड़ी उत्पादन5 में शामिल थे, 47.43% एससी/एसटी समुदायों से थे, और 52.26% अन्य पिछड़े वर्गों से थे। इसके अतिरिक्त, सर्वेक्षण में शामिल 42.31% परिवारों ने बताया कि पिछले वर्ष उनकी कोई आय नहीं थी। शेष 56.41% में से, परिवारों की औसत वार्षिक आय 9,679.55 (या लगभग 807 रुपये प्रति माह) रुपये बताई गई थी।
समुदाय-आधारित लक्ष्यीकरण न केवल उन लोगों की पहचान करने से परे है जिन्हें समर्थन की आवश्यकता है, बल्कि उन लोगों को पहले से उपलब्ध न होने वाली सीमा तक अति-गरीब वाली पहुंच प्रदान करके, यह अदृश्य को दृश्यमान बनाने के एक शक्तिशाली मार्ग के रूप में भी कार्य करता है। उदाहरण के लिए, बिहार में एसजेवाई के तहत प्रतिभागियों के लिए बैंक खाते खोले गए हैं ; प्रतिभागियों को राष्ट्रीय सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) योजना से जोड़ा गया है ;पात्र परिवारों को प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना (पीएमएसबीवाई) और प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना (पीएमजेजेबीवाई)6 के तहत नामांकित किया गया है।
भविष्य की राह
समुदाय-आधारित संगठनों के माध्यम से व्यक्तियों और परिवारों के साथ सीधे काम करना बड़े पैमाने पर लाभार्थियों की पहचान करने और उन्हें लक्षित करने का एक प्रभावी मार्ग हो सकता है। बिहार का मामला दर्शाता है कि क्रमस्थापन दृष्टिकोण या ग्रेजुएशन अप्रोच जैसे मॉडल के रूप में समर्थन अति-गरीबों को गरीबी से बाहर निकलने और उन्हें अधिक सतत आजीविका दिलाने में मदद कर सकता है।
टिप्पणियां :
- अति-गरीब परिवार वैश्विक गरीबी रेखा के आधे से भी कम पर अत्यधिक गरीबी की स्थिति में रहते हैं (बीआरएसी, 2013)।
- वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) तीव्र गरीबी का एक आंतर्राष्ट्रीय माप है जिसमें 100 से अधिक विकासशील देशों को शामिल किया गया है। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर के संबंध में प्रत्येक व्यक्ति को एक ही समय में जिन अभावों का सामना करना पड़ता है, उन्हें ध्यान में रखकर पारंपरिक आय-आधारित गरीबी मापों को दर्शाया जाता है।
- बंधन-कोन्नगर एक गैर-लाभकारी संगठन है, जिसने वर्ष 2007 में क्रमस्थापन (ग्रेजुएशन अप्रोच) दृष्टिकोण के आधार पर टारगेटिंग द हार्ड-कोर पूअर (टीएचपी) लॉन्च किया था। तब से विस्तार करते हुए यह संगठन पूरे भारत में 160,000 से अधिक परिवारों तक पहुंचा है और यह बिहार स्केल-अप संबंधी कार्यक्रम के लिए तकनीकी सहायता भी प्रदान करता है ।
- ट्रांसेक्ट वॉक को विश्व बैंक द्वारा किसी दिए गए ट्रांसेक्ट, या लैंडस्केप के साथ निश्चित रेखा के साथ संसाधनों, विशेषताओं, परिदृश्यों और मुख्य भूमि उपयोगों के स्थान और वितरण का वर्णन करने और दिखाने के लिए एक साधन के रूप में परिभाषित किया गया है।
- वर्ष 2016 में बिहार में शराब प्रतिबंध का पारंपरिक ताड़ी उत्पादक समुदायों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इस कार्यक्रम के शुभारंभ के समय पात्रता मानदंडों में से एक ताड़ी निकालने वाले परिवारों के अति-गरीब परिवारों को शामिल करना था।
- पीएमएसबीवाई एक दुर्घटना बीमा योजना है जो 18 से 70 वर्ष के बीच के व्यक्तियों को मृत्यु और विकलांगता कवर प्रदान करती है; पीएमजेजेबीवाई इसी तरह 18 से 50 वर्ष के बीच के व्यक्तियों के लिए किसी भी कारण से मृत्यु के लिए जीवन बीमा कवर प्रदान करता है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : परिक्रमा चौधरी जे-पैल (जे-पीएएल) दक्षिण एशिया के स्केल-अप टीम में एक वरिष्ठ नीति प्रबंधक हैं। शगुन सबरवाल वूमेनलिफ्ट हेल्थ की निगरानी, मूल्यांकन व शिक्षण और दक्षिण एशिया निदेशक हैं।
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