मानव विकास

भारत में रोज़गार की विशाल समस्या और इसके कुछ समाधान

  • Blog Post Date 11 अक्टूबर, 2024
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Pranab Bardhan

University of California, Berkeley

bardhan@econ.berkeley.edu

भारत के केन्द्रीय बजट 2024-25 की घोषणा में रोज़गार सृजन की आवश्यकता पर महत्वपूर्ण ज़ोर दिया गया है। प्रणब बर्धन इस लेख के ज़रिए लम्बे समय में अच्छी नौकरियों के स्थाई सृजन हेतु एक चार-आयामी रणनीति- बड़े पैमाने पर व्यावसायिक शिक्षा व प्रशिक्षुता, पूंजी सब्सिडी को सशर्त मज़दूरी सब्सिडी से बदलना, गैर-कृषि घरेलू उद्यमों को विस्तार सेवाएँ प्रदान करना और कमज़ोर समूहों के लिए बुनियादी आय अनुपूरक के माध्यम से मांग को बढ़ावा देना प्रस्तुत करते हैं।

समीक्षक आमतौर पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) या सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) द्वारा किए गए घरेलू सर्वेक्षणों से प्राप्त बेरोज़गारी सम्बन्धी आँकड़ों का हवाला देते हैं ताकि भारत में कुछ समय से चल रहे रोज़गार संकट की भयावहता को इंगित किया जा सके। वे इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि इससे भी बड़ी संख्या में लोग अल्परोज़गार (या ‘छिपी’ बेरोज़गारी में हैं) की स्थिति में हैं। क्योंकि उनमें से अधिकतर इतने गरीब हैं कि वे किसी भी लम्बे समय तक की नौकरी की तलाश नहीं कर सकते और इसके बजाय कम उत्पादकता वाली, अंतहीन नौकरियों में कार्यरत रहते हैं। (यह इस तथ्य के अनुरूप है कि आँकड़ों में अधिक शिक्षित लोग भी अधिक बेरोज़गार हैं)।

आमतौर पर यह माना जाता है कि 2024 के हालिया चुनावों में, विशेष रूप से भारत की बढ़ती युवा आबादी के लिए, अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियों की कमी एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। कुछ राज्यों के चुनाव परिणाम दर्शाते हैं कि मुफ्त में धन (अक्सर नेताओं द्वारा 'उपहार' के रूप में वितरित) मुहैया कराने के अर्थ में कल्याणकारी योजनाएं मतदाताओं के बड़े वर्ग को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।

यद्यपि चुनाव-पूर्व कांग्रेस के घोषणा-पत्र में अन्य दलों की तुलना में रोज़गार के मुद्दे पर अधिक संवेदनशीलता दिखाई गई थी और कुछ ठोस सुझाव भी दिए गए थे (हालांकि उन पर पूरी तरह अमल नहीं किया गया), लेकिन यह सर्वविदित है कि बेरोज़गारी वास्तव में कई दशकों से और सभी सरकारों के दौरान एक निरंतर समस्या रही है। जो लोग सोचते हैं कि विकास से रोज़गार की समस्या अपने आप हल हो जाएगी, वे इस बात को नज़रअंदाज़ करते हैं कि रोज़गार और बेरोज़गारी पर एनएसएसओ के 50 वर्षों के सर्वेक्षणों से यह स्पष्ट हो गया है कि भारत में रोज़गार की उपलब्धता आर्थिक विकास की दर के साथ तालमेल नहीं रख पाई है। अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह सामाजिक रूप से विस्फोटक समस्या बन जाएगी। यह समस्या पहले से ही युवाओं की बेचैनी, हिंसा, बर्बरता, बेरहमी से पीटने और देश के कई हिस्सों में व्याप्त स्थानीय माफिया-शैली के अत्याचार और संरक्षण रैकेट के रूप में सुलग रही है। समय आ गया है कि अब केन्द्र और राज्य स्तर पर सभी राजनीतिक दल विभिन्न प्रकार की रोज़गार-संवर्धन नीतियों के डिज़ाइन, लागत-प्रभावशीलता और कार्यान्वयन के मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करें। मैं इस लेख में ऐसी नीतियों के कुछ उदाहरण देकर भारत तथा अन्य विकासशील देशों में उनके बारे में उपलब्ध अनुभव की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ।

रोज़गार गारंटी योजनाएँ पर्याप्त क्यों नहीं हैं

बेशक अब हमारे पास ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजनाओं को चलाने का कुछ संचित अनुभव है, जिन्हें वर्ष 2005 में राष्ट्रीय स्तर पर शुरू किया गया था। ये योजनाएँ शायद बहुत गरीब लोगों के लिए चिलचिलाती धूप में शारीरिक, अक्सर कमरतोड़, काम करने के लिए बनाई गई हैं। लेकिन यहाँ भी, मूल कानून के कुछ अंश अभी भी बड़े पैमाने पर लागू नहीं हुए हैं। जैसे कि अगर 15 दिनों के भीतर काम नहीं दिया जाता है तो कर्मचारी को शायद ही बेरोज़गारी लाभ मिलता है, मज़दूरी भुगतान में अत्यधिक देरी, प्रति परिवार निर्धारित 100 दिनों के आधे दिन भी काम नहीं दिया जाना इत्यादि।

शहरी क्षेत्र में रोज़गार गारंटी का ऐसा केन्द्रीय कार्यक्रम लाने के बारे में कुछ चर्चा हुई है (कुछ राज्यों में छिटपुट प्रयासों के अलावा, हाल ही में राजस्थान में)। इस पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है। सितंबर 2020 में ज्यां ड्रेज़ द्वारा ‘आइडियाज़ फॉर इंडिया’ में "विकेंद्रीकृत शहरी रोज़गार और प्रशिक्षण" (ड्यूएट) योजना शीर्षक से इस विषय पर कुछ चर्चा की गई है (शहरी महिलाओं द्वारा तथा उनके लिए चलाई जाने वाली योजना के बारे में मार्च 2021 में ड्रेज़ द्वारा संशोधित चर्चा)। विशेष रूप से शहरी बुनियादी ढांचे, जल निकायों और अन्य स्थानीय पर्यावरणीय संसाधनों के सुधार, रखरखाव और मरम्मत के लिए लोगों को काम पर लगाने के विभिन्न तरीकों के बारे में सोचा जा सकता है। यह निश्चित रूप से महंगा साबित होगा- अनुमान है कि 2 करोड़ शहरी अस्थाई श्रमिकों को नौकरी देने के लिए आसानी से 10 खरब रुपयों से अधिक की राशि खर्च होगी। इस आँकड़े की विशालता का एक तुलनात्मक अंदाजा इस उदाहरण से लगाया जा सकता है- वित्त मंत्रालय ने सितंबर 2019 में एक ही झटके में कॉर्पोरेट टैक्स की दर में भारी कटौती कर दी जिससे अगले दो वर्षों में 10 खरब 84 अरब रुपयों का राजस्व घाटा हुआ और वह भी निजी निवेश बढ़ाने के कथित उद्देश्य में बिना किसी सफलता के हुआ।

तथापि ऐसी ग्रामीण और शहरी रोज़गार गारंटी योजनाएं मुख्य रूप से गरीबों के लिए राहत या 'संकट' रोज़गार से संबंधित हैं। हमें वास्तव में दीर्घकालिक आधार पर, उचित रूप से अच्छी नौकरियों के स्थाई कार्यक्रमों की एक श्रृंखला की आवश्यकता है जो अल्पकालिक राहत से परे हों। मैं ऐसे चार क्षेत्रों का सुझाव देता हूँ जिनमें अधिक संभावनाएँ हो सकती हैं।

अच्छी नौकरियों के सृजन के लिए दीर्घकालिक, स्थाई रणनीति

प्रशिक्षुता से जुड़ी बड़े पैमाने पर व्यावसायिक शिक्षा : हमारी बेरोज़गारी की समस्या का एक हिस्सा वास्तव में कम कौशल और प्रशिक्षण के वर्तमान स्तर पर रोज़गार की समस्या है। इस मुद्दे पर हुई दशकों की लापरवाही की भरपाई के लिए व्यावसायिक फर्मों में प्रशिक्षुता से जुड़े बड़े पैमाने पर व्यावसायिक शिक्षा कार्यक्रम को युद्ध स्तर पर शुरू करने की आवश्यकता है। सीखने के लिए बहुत सारे सफल मामले हैं- जर्मनी में, संभावित नियोक्ता व्यावसायिक कार्यक्रमों में योगदान देते हैं, जिनमें स्कूल छोड़ने वाले लोग शामिल होते हैं, जिससे उन नियोक्ताओं के लिए कर्मचारी-स्क्रीनिंग लागत की बचत होती है। कैलिफ़ोर्निया में, सामुदायिक कॉलेज-सह-व्यावसायिक प्रणाली स्थानीय फर्मों के साथ साझेदारी में काम करती है। यहाँ तक ​​कि विकासशील देशों में भी अब कुछ अपेक्षाकृत सफल मामले हैं जिनका अध्ययन और नीति साहित्य में उनका विश्लेषण किया गया है। जैसे केन्या युवा रोज़गार और अवसर परियोजना, जनरेशन इंडिया कार्यक्रम, कोलंबिया में युवा भविष्य निर्माण कार्यक्रम, कई अफ्रीकी देशों में हरामबी युवा रोज़गार त्वरक परियोजनाएं आदि। अधिकांश मामलों में फर्मों, स्थानीय सरकारों, व्यापार संघों और नागरिक संगठनों के बीच समन्वय आवश्यक है।

पूंजी सब्सिडी की जगह सशर्त वेतन सब्सिडी देना : भारत में निवेश को प्रोत्साहित करने के नाम पर विभिन्न क्षेत्रों में पूंजी सब्सिडी की भरमार है। वे श्रम-प्रतिस्थापन, पूंजी-गहन दिशा में निवेश को बिगाड़ देते हैं। हमें इन पूंजीगत सब्सिडी का जायजा लेना चाहिए और इनमें से कई को वेतन सब्सिडी से प्रतिस्थापित करना चाहिए, विशेष रूप से संगठित क्षेत्रों की बड़ी कंपनियों के लिए, इस शर्त पर कि वे नए नियमित रोज़गार का सृजन करें। हालिया केन्द्रीय बजट में कांग्रेस के चुनाव-पूर्व घोषणापत्र से उधार लेकर मज़दूरी सब्सिडी के लिए छोटे कदम उठाए गए हैं, लेकिन उनकी अस्थाई प्रकृति निजी कंपनियों के लिए उनके श्रम-नियुक्ति निर्णयों में किसी भी निरंतर प्रोत्साहन को बाधित करती है। अर्थशास्त्री प्रणब सेन ने ब्याज़ दरों की संरचना में बदलाव लाने का तर्क दिया है जिससे दीर्घकालिक ऋणों पर पूंजी महंगी हो जाएगी और अल्पकालिक कार्यशील पूंजी सस्ती हो जाएगी। इसका उपयोग मुख्य रूप से श्रमिकों को भुगतान करने के लिए किया जा सकता है, इस प्रकार व्यवसाय प्रोत्साहन को पूंजी-गहन परियोजनाओं से हटाकर अधिक रोज़गार-अनुकूल परियोजनाओं की ओर ले जाया जाएगा।

व्यापारिक प्रेस और कुछ अर्थशास्त्री इस बात पर मुखर हैं कि हमारे श्रम कानूनों में छंटनी पर प्रतिबंध (जो प्रभावी रूप से श्रम रोज़गार कर के रूप में कार्य करते हैं) मुख्य रूप से उत्पादन के कम श्रम-गहन तरीकों के लिए जिम्मेदार हैं। हालांकि, यदि आप उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण से अलग-अलग फर्म-स्तरीय आँकड़ों को देखते है तो श्रम कानून प्रतिबंधों के इस प्रभाव के महत्व के बारे में अधिक साक्ष्य नज़र नहीं आते हैं। उदाहरण के लिए, यदि श्रम कानून बाध्यकारी बाधा होते तो इन प्रतिबंधों में आकार की सीमा के आसपास फर्मों का उस अपेक्षा से बहुत कम समूहन है।

उपरोक्त तर्क मुख्य रूप से संगठित क्षेत्र के बारे में हैं। लेकिन रोज़गार की समस्या विशेष रूप से छोटे आकार की फ़र्मों या तथाकथित एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम) क्षेत्र के एक बड़े हिस्से के संदर्भ में बहुत बड़ी और गम्भीर है। इस हद तक कि इनमें से कुछ कम्पनियाँ संगठित क्षेत्र के साथ मज़बूत आपूर्ति-श्रृंखला सम्बन्ध में हैं, अतः संगठित क्षेत्र में वृद्धि से उन्हें लाभ होगा। भारत में डेटा की कमी के कई पहलुओं में से एक यह है कि किसी को भी इस बात का सही अंदाजा नहीं है कि अनौपचारिक क्षेत्र की कितनी कंपनियों का संगठित क्षेत्र के साथ महत्वपूर्ण आपूर्ति-श्रृंखला सम्बन्ध है। अब हम असंगठित उद्यमों के नवीनतम सर्वेक्षण से यह जानते हैं कि संभवतः विमुद्रीकरण के विनाशकारी प्रभावों, जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) के गलत तरीके से लागू किए जाने, और अनावश्यक रूप से कठोर लॉकडाउन के कारण हाल के वर्षों में लाखों ऐसे उद्यम खत्म हो गए। जिसके चलते नौकरियाँ भयंकर तरीके से खत्म हो गईं और पर्याप्त राहत उपायों में नीतिगत उपेक्षा हुई। यदि बैंक अपनी ऋण देने की नीति में इसका गम्भीरता से पालन करें तो एमएसएमई क्षेत्र में बची हुई फ़र्मों के लिए वर्ष 2024-25 के बजट में ऋण गारंटी का प्रावधान उस क्षेत्र में नौकरियों को बनाए रखने में मदद कर सकता है। मेरे बाद के नीतिगत सुझाव एमएसएमई क्षेत्र के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक हैं।

गैर-कृषि घरेलू उद्यमों के लिए विस्तार सेवाएँ : हम कृषि विस्तार सेवाओं से परिचित हैं, लेकिन अब हमें गैर-कृषि घरेलू उद्यमों को तकनीकी सहायता और विस्तार सेवाओं (प्रबंधन प्रशिक्षण सहित) पर समान ध्यान देना चाहिए ताकि उन्हें उत्पादक रोज़गार सृजन की दिशा में मदद मिल सके। सामुदायिक स्वास्थ्य एवं देखभाल कर्मियों की सहायता के ऐसे ही मामले सामने आए हैं (जैसे उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में आशा1 कार्यकर्ताओं को सॉफ्टवेयर सहायता प्रदान करने सम्बन्धी मामला, जिसका अध्ययन किया गया है)।

बुनियादी आय अनुपूरक के माध्यम से मांग को बढ़ावा देना : अंततः नौकरी के प्रचार पर होने वाली अधिकांश चर्चा में मांग की कमी की समस्या को गम्भीरता से नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है जिसका सामना हमारे निजी निवेशक बड़े पैमाने पर उपभोक्ता बाज़ार में करते हैं। यह समस्या हमारी आय और संपत्ति की बड़ी असमानता के कारण और भी गम्भीर हो गई है, जिसमें विकास का लाभ शीर्ष पर केन्द्रित है और निचले स्तर पर लोग स्थिर वेतन और रोज़गार की समस्या से पीड़ित हैं। परिणामस्वरूप, भारतीय अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक द्वंद्व बढ़ता जा रहा है जो असमान लैटिन अमेरिकी अर्थव्यवस्थाओं की विशेषता है- सीमित क्षेत्र अपेक्षाकृत पूंजी-प्रधान और कौशल-प्रधान वस्तुओं की मांग करने वाले समृद्ध अभिजात वर्ग की जरूरतों को पूरा करता है, जबकि सामान्य अर्थव्यवस्था का अधिकांश हिस्सा (काफी अनौपचारिक) अपर्याप्त मांग और क्षमता के कम उपयोग से ग्रस्त है और इस प्रकार निजी निवेश और उत्पादक रोज़गार कम है।

इन बाद के क्षेत्रों में लोगों की आय बढ़ाने से मांग बढ़ेगी और इस प्रकार बड़े पैमाने पर अधिक नौकरियाँ पैदा होंगी। ऐसा करने का एक अपेक्षाकृत प्रभावी तरीका यह है कि ऐसे सभी समूहों को (न कि केवल किसानों को, जैसा कि वर्तमान में है) एक बुनियादी आय अनुपूरक दिया जाए। न्यूनतम आय एक ‘खराब’ नौकरी में फंसे एक गरीब कर्मचारी को बेहतर नौकरी की तलाश करने (और ऐसी नौकरियों के लिए अधिक योग्यता प्राप्त करने) का साधन भी देती है। ऐसे बुनियादी आय अनुपूरक के लिए पैसा कहाँ से आएगा? जैसा कि मैंने अन्यत्र चर्चा की है– हाल ही में मेरी पुस्तक, “अ वर्ल्ड ऑफ़ इनसिक्योरिटी” (2022) के अध्याय 8 में, एक मामूली बुनियादी आय अनुपूरक को सरकार द्वारा वर्तमान में बेहतर स्थिति वाले लोगों को दी जाने वाली प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सब्सिडी में भारी कमी करके वित्त-पोषित किया जा सकता है। इसे अमीरों पर अधिक कर लगाकर पूरा किया जा सकता है। भारत, जो वंशानुगत धनिकतंत्र का देश है, जहाँ आँकड़े दर्शाते हैं कि धन असमानता तेजी से बढ़ रही है, उत्तराधिकार और धन कर शून्य हैं, हाल ही में बजट में की गई वृद्धि के बाद भी पूंजीगत लाभ कर की दर संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में बहुत कम है तथा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के रूप में स्थानीय संपत्ति कर प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे कम है।

हाँ यह सच है, इन कार्यों के लिए राजनीतिक साहस और कल्पनाशीलता की आवश्यकता है।

टिप्पणी :

  1. आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं, जिन्हें स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के एक भाग के रूप में स्थापित किया गया है।

 अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।

लेखक परिचय : प्रणब बर्धन कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में अर्थशास्त्र विभाग में ग्रेजुएट स्कूल के प्रोफेसर हैं। बर्कले में शामिल होने से पहले वे एमआईटी, भारतीय सांख्यिकी संस्थान और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के संकाय में रह चुके हैं। वे ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज, सेंट कैथरीन कॉलेज, ऑक्सफोर्ड और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में विजिटिंग प्रोफेसर/फेलो रह चुके हैं। उन्होंने इटली के सिएना विश्वविद्यालय में प्रतिष्ठित फुलब्राइट सिएना चेयर (2008-09) और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में बीपी सेंटेनियल प्रोफेसर (2010 और 2011) का पद संभाला है। 

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