राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के आंकड़ों के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि भारत में महिला श्रम-बल भागीदारी के कम दर, ग्रामीण क्षेत्रों की विवाहित महिलाओं पर केंद्रित है। यह कॉलम सुझाव देता है कि आंशिक रूप से ऐसा इसलिए है क्योंकि मध्यम स्तर की शिक्षा-प्राप्त महिलाएं बच्चों की देखभाल और घरेलू काम पर अधिक समय बिताने को प्राथमिकता देती हैं।
विश्व स्तर पर, लगभग आधी महिलाएं काम करती हैं, और हाल ही में कई देशों में महिला श्रम-बल में वृद्धि के कारण रोजगार में महिला-पुरुषों के बीच का अंतर कम हुआ है। फिर भी, भारत की बाजार अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी के रुझान इसकी विपरीत दिशा में बढ़ रहे हैं। तीव्र प्रजनन क्षमता संक्रमण के बावजूद, महिलाओं द्वारा शिक्षा अर्जित करने में व्यापक वृद्धि हुई है, और पिछले दो दशकों में पर्याप्त आर्थिक विकास हुआ है, फिर भी काम करने वाली भारतीय महिलाओं की हिस्सेदारी समय के साथ कम हो गई है। वर्तमान में, भारत की आधी अरब वयस्क महिलाओं में से केवल एक-तिहाई हीं महिला श्रम-बल का हिस्सा हैं। महिला रोजगार की इन कम दरों और महिलाओं की श्रम-बल भागीदारी दरों में गिरावट के रुझान चिंता का कारण हैं, क्योंकि महिलाओं के लिए बाजार का काम अक्सर आर्थिक अवसरों के लिए उनकी बेहतर पहुंच और घर के भीतर अधिक अच्छे निर्णय लेने की शक्ति के साथ जुड़ा हुआ है। एक व्यापक आर्थिक दृष्टिकोण से, महिलाओं के बीच बाजार के काम की कम दर का एक अर्थ यह भी है कि अर्थव्यवस्था में श्रम संसाधनों का पूरा उपयोग नहीं हो पा रहा है।
महिला श्रम-बल की भागीदारी में भारतीय महिलाओं का रुझान वैश्विक रुझानों के विपरीत कैसे हो सकता है, जबकि महिलाओं के बाजार के काम को सुविधाजनक बनाने के लिए कई कारकों पर विचार किया जा रहा है? हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय विकास केंद्र (आईजीसी) के एक अध्ययन में हम (अफरीदी, डिंकलमैन और महाजन 2016), 1987 से 2011 तक के भारतीय राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (एनएसएस) के तीन दौरों का उपयोग यह दिखाने के लिए किया है कि महिला श्रम-बल भागीदारी की कम दर ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां अधिकांश भारतीय महिलाएँ निवास करती हैं, विवाहित महिलाओं के बीच केंद्रित है। हम इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि महिला श्रम-बल की कम भागीदारी कोई नई घटना नहीं है और हाल के दशकों में इन रोजगार दरों में और कमी देखी गई है। फिर, हम जांच करते हैं कि क्या महिलाओं की जन-सांख्यिकीय और सामाजिक-आर्थिक विशेषताओं में पाया गया परिवर्तन 1987-1999 तथा 1999-2011 के बीच उनकी श्रम-बल भागीदारी दरों में गिरावट का कारण हो सकता है।
ग्रामीण भारत में विवाहित महिलाएं समय के साथ बाजार के काम से बाहर हो रही हैं
आकृति 1 में, हम 25 से 65 वर्ष की आयु के वयस्कों के लिए लिंग और शहरी/ग्रामीण क्षेत्रों के अनुसार समय के साथ श्रम-बल भागीदारी दर (एलएफ़पीआर) दिखाते हैं। महिलाओं की तुलना में पुरुषों के काम करने की दर काफी ज्यादा है, और शहरी महिलाओं की तुलना में ग्रामीण महिलाओं के काम करने का दर भी ज्यादा है। समय के साथ, ग्रामीण भारतीय महिलाओं के एलएफ़पीआर में सबसे बड़ी गिरावट देखी गई है1। 1987 में, उनका एलएफ़पीआर लगभग 55% था; 2011 तक, बाजार में केवल 44% महिलाएं ही काम कर रहीं थीं। आकृति 2 से ज्ञात होता है कि ग्रामीण महिलाओं के प्रतिरूप में, विवाहित महिलाएं एलएफ़पीआर में समग्र गिरावट का कारण बनती हैं। समय के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में विवाहित महिलाओं के श्रम-बल भागीदारी में इन परिवर्तनों के लिए व्यक्तिगत और घरेलू विशेषताओं में किस हद तक बदलाव हो सकता है?
आकृति 1. समय के साथ लिंग के आधार पर श्रम-बल भागीदारी दर (एलएफ़पीआर)
(a) ग्रामीण
(b) शहरी
स्रोत: अफरीदी, डिंकलमैन और महाजन (2016)
आकृति में प्रयोग किए गए अंग्रेज़ी शब्दों के अर्थ:
LFPR – एलएफ़पीआर; Male – पुरुष; Female – महिला;
Confidence Interval - विश्वास अंतराल (एक 95% विश्वास अंतराल मूल्यों की एक सीमा ह; इस बात की 95% संभावना है कि मूल्यों की इस श्रेणी में जनसंख्या का औसत होगा।)
नोट: आकृति में भारतीय राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (एनएसएस) डेटा (1987, 1999, 2011), रोजगार और बेरोजगारी अनुसूची का उपयोग किया गया है।
आकृति 2. समय के साथ वैवाहिक स्थिति के अनुसार महिला एलएफ़पीआर
स्रोत: अफरीदी, डिंकलमैन और महाजन (2016)।
आकृति में प्रयोग किए गए अंग्रेज़ी शब्दों के अर्थ:
Never married – अविवाहित; Currently married - विवाहित; Widowed – विधवा; Separated – जुड़ा
नोट: यह आकृति भारतीय एनएसएस के रोजगार एवं बेरोजगारी अनुसूची डेटा (1987, 1999, 2011) का उपयोग करती है। इस प्रतिरूप में 25-65 आयु वर्ग की ग्रामीण महिलाएं शामिल हैं।
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शिक्षा का बढ़ता स्तर महिला एलएफ़पी की घटती दरों से जुड़ा है
हमने समय के साथ महिला एलएफ़पीआर में इन परिवर्तनों को दो हिस्सों में विभाजित किया हैं, पहला - जो अवलोकनीय विशेषताओं में परिवर्तन के कारण से हो सकता है, और दूसरा - जो इन विशेषताओं के प्रतिफल में परिवर्तन के कारण से हो सकता है2। हमने ऐसा, यह समझने के लिए किया हैं कि समय के साथ महिला एलएफ़पीआर में कितनी कमी ऐसी महिलाओं के कारण होती है जो निम्न रोजगार दरों वाले व्यक्तियों की श्रेणी में आ जाती हैं।
हमारे परिणाम तीन व्यापक प्रतिमान प्रकट करते हैं:
- व्यक्तिगत विशेषताओं में परिवर्तन (जैसे शिक्षा स्तर में वृद्धि और आयु-फैलाव में परिवर्तन) और घरेलू कारक (जैसे कि घरेलू संपत्ति में वृद्धि और पुरुषों के शिक्षा स्तर में सुधार) 1987 और 1999 के बीच महिलाओं के श्रम-बल की भागीदारी में गिरावट के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं।
- इन चरों में परिवर्तन 1999 से 2011 के बीच एलएफ़पीआर में गिरावट के एक छोटे हिस्से (आधे से अधिक) का कारण बनता है। हमने इस बात के कोई पक्के साक्ष्य नहीं पाए हैं कि घर के बाहर काम करने वाली महिलाओं के खिलाफ सामाजिक अस्वीकार्यता सहित अवलोकन योग्य चर (उदाहरण, जाति, धर्म) किसी भी अवधि में महिलाओं के एलएफ़पीआर में गिरावट के पर्याप्त अनुपात के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं।
- ग्रामीण विवाहित महिलाओं और उनके घरों में पुरुषों के बीच शिक्षा के बढ़ते स्तर दोनों दशकों में एलएफ़पीआर में गिरावट के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं।
महिलाओं की शिक्षा को कम एलएफ़पीआर में अधिक योगदान क्यों देना चाहिए? आकृति 3 महिलाओं की शिक्षा और श्रम बाजार में उनकी भागीदारी के बीच एक यू-आकार संबंध दर्शाता है। जब महिलाएं अशिक्षित से प्राथमिक एवं मिडिल स्तर की स्कूली शिक्षा प्राप्त करती हैं तो एलएफ़पीआर गिर जाता है। एलएफ़पीआर केवल तभी बढ़ना शुरू होता है जब उनकी स्कूली शिक्षा माध्यमिक एवं स्नातक स्तर तक पूरी हो जाती है। पिछले तीन दशकों में, ग्रामीण भारत में महिलाओं ने इतनी शिक्षा अर्जित कर ली है कि युवा महिलाएं अशिक्षित से कम और मध्यम स्तर की शिक्षा प्राप्त महिलाओं में बदल चुकी हैं। लेकिन, शहरी क्षेत्रों के विपरीत, ग्रामीण क्षेत्रों की स्कूली शिक्षा का अभी इतना विस्तार नहीं हुआ है कि हाई स्कूल या उससे अधिक शिक्षा प्राप्त महिलाएं स्नातक स्तर की शिक्षा अर्जित कर सकें। आकृति 3 से ज्ञात होता है कि ग्रामीण भारत में बाजार के कामों में महिलाओं को पर्याप्त रूप से उच्च आय अर्जित करने के लिए मानव पूंजी सुधार अभी तक उचित उच्च स्तर तक नहीं पहुंच सका है3।
आकृति 3. समय के साथ शिक्षा स्तर के अनुसार महिला एलएफ़पीआर
Source: NSS (1987, 1999, 2011), Employment and Unemployment Schedule.
स्रोत: एनएसएस (1987, 1999, 2011), रोजगार और बेरोजगारी अनुसूची।
आकृति में प्रयोग किए गए अंग्रेज़ी शब्दों के अर्थ:
Illiterate - Illiterate;
नोट: प्रतिरूप में ग्रामीण भारत में 25-65 आयु की महिलाएं शामिल हैं। ‘हाइ सेक’ माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक शिक्षा स्तर को संदर्भित करता है। स्तंभों के माध्यम से शिक्षा श्रेणी के अनुसार प्रत्येक एनएसएस सर्वेक्षण वर्ष के लिए शिक्षा के स्तर से एलएफ़पीआर का औसत प्रदर्शित होता है। रेखाएं शिक्षा श्रेणियों के औसत को जोड़ती हैं।
पहेली का भाग: क्या कम शिक्षित ग्रामीण महिलाएं बाजार से ज्यादा घर में काम कर रही हैं?
ग्रामीण भारत में ये विवाहित महिलाएं अगर श्रम-बल में नहीं हैं तो वे क्या काम कर रही हैं? एक परिकल्पना यह है कि अधिक शिक्षा और कम बच्चे होने के कारण ग्रामीण महिलाओं का समय घरेलू उत्पादन में अपेक्षाकृत अधिक मूल्यवान हो सकता है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि उच्च स्तर की शिक्षा के साथ महिलाएं घर पर उद्देश्यपूर्ण रूप से अधिक उत्पादक हैं, या इसलिए कि पुरुषों या महिलाओं की बाजार के सापेक्ष घर के काम की प्राथमिकता अधिक शिक्षा के साथ बदल जाती हैं।
आकृति 4 में, हमने दिखाया है कि पिछले संदर्भ वर्ष 1987-2011 के दौरान (1987 में 55% से 2011 में 69%) ग्रामीण विवाहित महिलाओं की एलएफ़पीआर में गिरावट में घरेलू कार्य को अपनी प्राथमिक गतिविधि के रूप में चुनने वाली महिलाओं के लगभग समान अनुपात में वृद्धि जुड़ जाती है। अन्य परिणामों से पता चलता है कि दोनों दशकों में 25-40 आयु की महिलाओं की एलएफ़पीआर में गिरावट 40-65 आयु वाली महिलाओं की तुलना में अधिक थी। एनएसएस में 40-65 आयु की महिलाओं की तुलना में कम आयु की महिलाओं के स्कूल जाने वाली आयु के बच्चे, अर्थात लगभग 6-14 साल आयु के बच्चे, होने की संभावना लगभग दोगुनी है, और इसलिए उनकी बच्चे की देखभाल हेतु घर में उच्च प्रतिलाभ प्रदर्शित होने की अधिक संभावना है।
आकृति 4. वैवाहिक स्थिति के अनुसार घरेलू कार्यों में समय के साथ महिला भागीदारी
स्रोत: एनएसएस (1987, 1999, 2011) रोजगार और बेरोजगारी अनुसूची (लेखक की आकलित)।
आकृति में प्रयोग किए गए अंग्रेज़ी शब्दों के अर्थ:
Domestic work – घरेलू कामकाज
नोट: नमूने में ग्रामीण भारत में 25-65 वर्ष की महिलाएं शामिल हैं। उपरोक्त ग्राफ उन महिलाओं के अनुपात की रिपोर्ट करता है जिनका प्राथमिक गतिविधि घरेलू काम है।
हम 1998 के भारतीय समय-उपयोग सर्वेक्षण के समय-उपयोग डेटा का उपयोग करके शिक्षा तथा बच्चों की देखभाल एवं अन्य घरेलू गतिविधियों पर व्यय किए गए समय के बीच संबंधों का पता लगाते हैं। आकृति 5, शिक्षा के उच्च स्तरों पर, उच्चतर माध्यमिक विद्यालय तक बच्चों की देखभाल एवं अन्य कार्यों में महिलाओं द्वारा व्यय किए गए समय में अलग-अलग वृद्धि दर्शाता है। कम से कम प्राथमिक, मध्य और उच्चतर माध्यमिक विद्यालय तक अधिक शिक्षा का अर्थ है, घर में माँ के लिए और अधिक काम।
अन्य शोध के निष्कर्ष कुछ हद तक यह सोचने का कारण प्रदान करते हैं कि अधिक शिक्षा घर में महिलाओं के समय को अधिक मूल्यवान बनाती है। सबसे पहले, हमारे अध्ययन की अवधि के दौरान घरेलू उत्पादन में शिक्षा से प्रतिलाभ में वृद्धि हुई है क्योंकि बच्चों की मानव पूंजी में प्रतिलाभ बढ़ रहा था। पहले की अवधि में, शोधकर्ताओं ने दिखाया है कि भारत में हरित क्रांति तकनीक (बेह्रमैन एवं अन्य, 1999) की शुरुआत के बाद पुरुष शिक्षा में निवेश के लिए प्रतिलाभ बढ़ गया था और इसके कारण विवाह बाजार में शिक्षित महिलाओं की मांग में वृद्धि हुई। प्राथमिक शिक्षा प्राप्त महिलाओं ने घर पर अधिक समय बिताया और कम पढ़ी लिखी माताओं की तुलना में शिक्षित माता की उपस्थिति के कारण बच्चों ने पढ़ाई में अधिक समय व्यतीत किया। इसी तरह की कार्य प्रणाली 1987-2011 की अवधि के दौरान कार्यरत हो सकती है, जब श्रम बाजार का प्रतिलाभ शिक्षा के उच्च स्तर (हाई स्कूल और ऊपर) पर बढ़ रहा है (उदाहरण के लिए, आज़म 2012, मेंदिरत्ता एवं गुप्ता 2013, और खरबंदा 2012)।
दूसरा, आकृति 5 में तिर्यक-खंड साक्ष्य (वर्ष 1998 से) दुनिया के कुछ अन्य हिस्सों, जैसे ब्राजील (लैम और दुरैया 1999) में व्यापक पैटर्न के अनुरूप है, जहां महिला शिक्षा में नाटकीय सुधार और परिवार के आकार में कटौती, बाजार कार्य में केवल तभी परिवर्तित हो सकती हैं जब महिलाएं आठ से अधिक वर्षों की शिक्षा प्राप्त कर लें। समय के साथ हमारे सभी वर्णनात्मक साक्ष्यों को एक साथ लेने से ग्रामीण भारत में महिलाओं के एलएफ़पीआर में गिरावट क्यों आई है, इसकी एक बाध्यपूर्वक व्याख्या का पता चलता है। जैसे-जैसे महिलाओं (और पुरुषों) को अधिक शिक्षा मिलती गई है और गरीबी की दर में गिरावट आई है, घरेलू उत्पादन बनाम बाजार के काम के प्रतिलाभ के बीच का अंतर बड़ा होता गया है। भविष्य के शोध भारतीय महिलाओं के लिए बाजार और घरेलू उत्पादन में बदलते सापेक्ष प्रतिलाभ की मात्रा निर्धारित करने के प्रयास में उपयोगी हो सकते हैं।
आकृति 5. शिक्षा के स्तर के अनुसार बच्चों की देखभाल और अन्य घरेलू कामों में लगने वाला समय
स्रोत: 1998 के भारतीय समय उपयोग सर्वेक्षण से लेखक का आकलन।
आकृति में प्रयोग किए गए अंग्रेज़ी शब्दों के अर्थ:
Child care hours per week - बाल देखभाल पर प्रति सप्ताह कितने घंटे बिताए
नोट: आकृति में केवल बच्चों की देखभाल और अन्य घरेलू कार्यों पर एक हफ्ते में बिताए गए घंटों को प्रदर्शित किया गया है जो अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों की भलाई में योगदान देते हैं, या बच्चों की देखरेख करते समय किए जा सकते हैं। इसमें खाना पकाने और घर की सफाई, कपड़े और बर्तन धोने के साथ-साथ बच्चों की विशेष देखभाल की गतिविधियों में बिताया गया समय शामिल है। बच्चों की देखभाल में बच्चों की शारीरिक देखभाल (कपड़े धोना, कपड़े पहनाना, खिलाना), स्वयं बच्चों को शिक्षण-प्रशिक्षण और अनुदेशित करना, बच्चों को डॉक्टर के पास/ स्कूल/ खेल के मैदान/ तथा अन्य स्थानों पर ले जाना, बच्चों की देखरेख, बच्चों की देखभाल से संबंधित यात्रा शामिल है। ‘हाइ सेक’ माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक शिक्षा स्तर को संदर्भित करता है। इसका प्रतिरूप ग्रामीण, विवाहित महिलाओं का है, जिनकी उम्र 25-65 है, जिनमें कम से कम एक बच्चा 0 से 15 वर्ष की आयु का है। प्रेक्षणों की कुल संख्या 7,593 है।
निष्कर्ष
भारत में 1980 के दशक के बाद से शिक्षा के स्तर में बड़े स्तर पर सुधार, प्रजनन दर में कमी और आय वितरण में आय में वृद्धि हुई है। इस संदर्भ में, थोड़ी-बहुत आश्चर्य की बात है कि भारत में ग्रामीण महिलाओं द्वारा समय के साथ खुद को श्रम बाजार से दूर करने की दरों में वृद्धि दिखाई है। हमारा विश्लेषण बताता है कि पुरुषों और महिलाओं के लिए शिक्षा का बढ़ता स्तर इस गिरावट का एक महत्वपूर्ण कारक है। आंशिक रूप से समझा जाए तो यह मामला इस प्रेक्षण से संबंधित है कि मध्यम स्तर की शिक्षा प्राप्त महिलाएं घरेलू काम करना अधिक पसंद करती हैं, और बच्चे की देखभाल एवं घरेलू उत्पादन पर अधिक समय बिताती है। कुल मिलाकर, हमारे वर्णनात्मक विश्लेषण से पता चलता है कि, शहरी महिलाओं की तुलना में, भारत में ग्रामीण महिलाएं अभी भी महिला एलएफ़पी के यू-आकार के वक्र के निचले ढलान वाले हिस्से पर हो सकती हैं।
टिप्पणियाँ:
- संबंधित कार्य में, क्लासेन और पीटर (2015) शहरी क्षेत्रों में महिला एलएफ़पीआर पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे समान समय अवधि में लगातार कम (बजाय घटने के) एलएफ़पी पाते हैं।
- हमने प्राचलिक (ब्लाइंडर-ओक्साका) और अर्ध-प्राचलिक (डिनार्डो-फोर्टिन-लेमीक्स) अपघटन तकनीक दोनों का उपयोग किया है।
- 1987-2011 के दौरान 25-65 वर्षीय ग्रामीण विवाहित महिलाओं के प्रतिरूप में निरक्षर महिलाओं का प्रतिशत 80% से 54% तक गिर गया है। दूसरी ओर, प्राथमिक और मध्यम स्तर तक शिक्षित महिलाओं का प्रतिशत 10% से बढ़कर 23% हो गया है, और उच्चतर माध्यमिक स्तर तक शिक्षित महिलाओं प्रतिशत 2% से बढ़कर 9% हो गया है। इसलिए यू-वक्र पर ग्रामीण और शहरी महिलाओं की सापेक्षिक आरंभिक स्थिति शहरी (क्लासेन एवं पीटर 2015) और ग्रामीण क्षेत्रों (यह शोध) के मध्य शिक्षा और महिला एलएफ़पीआर में बदलाव के बीच के विभिन्न संबंधों के लिए जिम्मेदार हो सकती है।
लेखक परिचय: फरजाना आफरीदी भारतीय सांख्यिकी संस्थान दिल्ली के अर्थशास्त्र एवं योजना विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। टारिन डिंकलमैन डार्टमाउथ कॉलेज में अर्थशास्त्र की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। कनिका महाजन अशोका यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।
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