दहेज भुगतान भारत में पारिवारिक वित्तव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो आम तौर पर सालों की कमाईसे भी अधिक होता है। इस आलेख में बीसवीं सदी में दहेज के विकास (इवोल्यूशन) के बारे में तथ्यों के प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए सम्पूर्ण भारत से 70,000 से भी अधिक विवाहों के सेंपल का विश्लेषण किया गया है। इसमें अनुभव के आधार पर दहेज के अनेक सिद्धांतों की जांच की गई है और पाया गया है कि दहेज की सबसे अच्छी व्याख्या किसी खास वर से विवाह करने के लिए दिए जाने वाले ‘ भेंट’ के रूप में की जा सकती है।
भारतीय परिवारों में एक महत्वपूर्ण वित्तीय लेनदेन विवाह के समय होती है। वधू के परिवार द्वारा उसके वर को दिया जाने वाला दहेज वर्तमान भारत में लगभग हर जगह है, और यह आम तौर पर किसी भी परिवार के सालों की कमाई से अधिक होता है। भारत सरकार दहेज को एक बड़ी सामाजिक बुराई मानती है लेकिन दहेज को समाप्त करने के लिए उनके कानूनी प्रयास निष्प्रभावी साबित हुए हैं। और यही नहीं, व्यापक शोध में प्रमाण प्रस्तुत किया गया है कि कैसे दहेज चुनिंदा लिंग-आधारित व्यवहार को बढ़ावा दे सकता है (भालोत्रा एवं अन्य 2016, बोरकर एवं अन्य 2017, अलफानो एवं अन्य 2017), अधिक दहेज ऐंठने की आशा में पत्नियों के साथ हिंसा का कारण बन सकता है (ब्लॉख 2002) और परिवार के निवेश संबंधी निर्णयों को बदल सकता है (वॉग्ल 2013, अनुकृति एवं अन्य 2019)।
अर्थशास्त्र में दहेज पर प्रचुर सैद्धांतिक साहित्य मौजूद हैं जिसमें दहेज के अस्तित्व में रहने की संभावित व्याख्या करने वाले अनेक मॉडल उपलब्ध हैं। मगर आश्चर्य की बात यह है कि इन व्याख्याओं की जांच के लिए, या यह दर्शाने के लिए कि समय के साथ भारत में दहेज का कैसे उद्भव हुआ है, बहुत कम परिमाणात्मक प्रमाण मौजूद हैं। हमारे विश्लेषण (चिपलूणकर और वीवर 2019) का लक्ष्य दुहरा है: पहला तो यह कि भारत में बीसवीं सदी के अधिकांश हिस्सों में वैवाहिक प्रचलनों और दहेज के बारे में तथ्यों को प्रमाणित करने के लिए हमने अनेक डेटासेट का उपयोग किया है। और दूसरा यह कि इन आंकड़ों का उपयोग हमने दहेज के विकास पर मौजूद विभिन्न सिद्धांतों की प्रमाण-आधारित जांच के लिए किया है। दहेज के मूल कारण को समझना उपयुक्त नीतिगत प्रतिक्रियाएँ तैयार करने के लिए उपयोगी है।
वैवाहिक प्रचलनों और दहेज भुगतान पर जानकारी के लिए हमने तीन मुख्य डेटासेट का उपयोग किया है: (क) ग्रामीण आर्थिक एवं जनसांख्यिक सर्वेक्षण (आरईडीएस - रेड्स)1, जिसमें भारत में 1930 से 1995 के बीच हुए 72,093 विवाहों और उनमें दहेज भुगतान से संबंधित सूचनाएं मौजूद हैं, (ख) भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण (आइएचडीएस), और (ग) राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस)। अंतिम दोनो सर्वे कई चक्रों वाले राष्ट्रीय प्रतिनिधि सर्वेक्षण हैं।
भारत में वैवाहिक प्रचलनों का विकास
जैसा कि दूसरे शोध अध्ययनों में भी दर्शाया गया है, भारत में कुछ वैवाहिक प्रचलनों में बीसवीं सदी के दौरान बहुत मामूली बदलाव ही दिखे हैं :
- आज भी 90 प्रतिशत से अधिक विवाह पहले की ही तरह दंपति के माता-पिता द्वारा “आयोजित” होते हैं। हालांकि विवाहों का वो हिस्सा जिसमें वर-वधू की बात को भी कुछ महत्व मिलता है, वह 1960 में 20 प्रतिशत से दोगुना होकर 2005 में 40 प्रतिशत हो गया।
- विवाह छोटे भौगोलिक क्षेत्रों में ही संकेंद्रित रहते हैं। 80 प्रतिशत वधुओं का विवाह उसी के जिले में रहने वाले वरों से होता है, और वर-वधू के घरों के बीच यात्रा का औसत समय लगभग 3 घंटे होता है।
- जैसी कि ऐतिहासिक स्थिति भी रही है, 95 प्रतिशत विवाह एक ही जाति (उप-जाति समूह) के लड़के-लड़कियों के बीच होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अंतर्जातीय विवाहों की दर आज भी लगभग वही है जो 1950 में थी। वहीं शहरी क्षेत्रों में इसमें लगभग 2 प्रतिशत अंकों की वृद्धि हुई है।
दहेज का प्रचलन
पिछली सदी में जहां कुछ वैवाहिक प्रचलनों में कोई बदलाव नहीं हुआ, वहीं दहेज के प्रचलन में काफी बदलाव आया है। जैसा कि नीचे दी गयी आकृति 1 में दर्शाया गया है, 1940 के पहले लगभग 40 प्रतिशत विवाहों में ही दहेज दिए जाते थे। वहीं, 1940 से 1075 के बीच पूरे भारत में दहेज अपनाने के मामले में काफी तीव्रता आई और 1975 तक लगभग 90 प्रतिशत विवाहों में दहेज भुगतान किया जाने लगा।2
आकृति 1. 1930 से 1995 के बीच दहेज का प्रचलन
ऊपर दिये गए आकृति में शब्दों का अर्थ:
Proportion of marriages with Dowry - दहेज-युक्त विवाह का अनुपात
Fraction - हिस्सा
Year of marriage - विवाह का वर्ष
दहेज भुगतान का विकास
जैसे-जैसे दहेज का प्रचलन बढ़ता गया, दहेज भुगतान की औसत रकम भी उसी लिहाज से बढ़ती गई। वर्ष 1940 और 1970 के बीच दहेज भुगतान का माध्य औसत तिगुने से भी बढ़कर लगभग 5,000 रु. से 15,000 रु. हो गया (2010 में रुपए के मूल्य के आधार पर) । दहेज में व्यापक वृद्धि की प्रचलित धारणा के विपरीत 1970 से दहेज भुगतान का माध्य औसत वास्तविक अर्थों में मोटे तौर पर बराबर ही रहा है।3 हालांकि केवल माध्य औसत पर ध्यान एकत्रित करने से दहेज भुगतानों के वितरण में हुए महत्वपूर्ण बदलाव छुप जाते हैं।
नीचे दी गयी आकृति 2 में 1940 से 2000 के बीच के हर दशक के लिए वास्तवित दहेज भुगतानों के संपूर्ण वितरण का डेंसिटी प्लॉट दर्शाया गया है। रेखा (कर्व) की ऊंचाई किसी निजी दशक में उतने दहेज देकर हुए विवाहों के अनुपात को दर्शाती है। दहेज भुगतान के विकास को मोटे तौर पर दो चरणों में बांटा जा सकता है:
वर्ष 1970 के पहले: जैसा कि आकृति 2अ में दर्शाया गया है कि 1940 से 1970 के बीच के दौर मे में दहेज भुगतान बढ़ा है, इस परिघटना को पहले के sहोढ़करताओं ने ‘‘दहेज-स्फीति’’ (डाउरी इनफ्लेशन) नाम दिया है (काल्डवेल 1983, राव 1993)। इस अवधि में दहेज भुगतानों के सारे वितरण दायीं ओर खिसके हैं जो यह दर्शाता है कि सभी सामाजिक-आर्थिक हैसियत वाले व्यक्तियों ने दहेज की रकम में वृद्धि देखी है।
वर्ष 1970 के बाद: पारंपरिक समझ यही है कि दहेज भुगतान की मात्रा में वृद्धि आज तक जारी है। हालांकि जैसा कि आकृति 2ब में दर्शाया गया है, यह पैटर्न वास्तव में अधिक जटिल है। दहेज भुगतान के वितरण के निचले हिस्से में बहुत कम बदलाव आया है जो यह दर्शाता है कि निम्न सामाजिक-आर्थिक हैसियत वाले व्यक्तियों ने इस अवधि में दहेज भुगतान में बहुत अंतर अनुभव नहीं किया है। हालांकि, दहेज संबंधी वितरण के ऊपरी प्रतिशत वाले हिस्सों में दहेज में काफी गिरावट आया है, जो यह दर्शाता है कि 1970 के बाद की अवधि में संपन्न परिवार अपेक्षाकृत कम दहेज लेने-देने लगे हैं।
आकृति 2. 1940 से 2000 के बीच दहेज भुगतान का विकास
2अ. 1940-1980 2ब. 1970-2000
ऊपर दिये गए आकृति में शब्दों का अर्थ:
Dowry payments distribution - दहेज भुगतान का वितरण
Kdensity lndowry net_real - दहेज के लघुगणक (लॉग) के कर्नल घनत्व शेष वास्तविक रूप में (हजार में) [कर्नल घनत्व, घनत्व आकलन करने का एक सांख्यिकीय तकनीक है।]
नीचे आकृति 3 में यह जांच किया गया है कि परिवार की वार्षिक आय की तुलना में दहेज भुगतान कैसे बदला है4। आकृति 2ब में देखी गयी दहेज भुगतान में कमी, पारिवारिक आय की तुलना में दहेज में हो रही गिरावट के अनुरूप ही है। हालांकि, दहेज भुगतान की मात्रा काफी है और दहेज भुगतान का माध्य औसत वार्षिक आय से अभी भी अधिक है।
आकृति 3. दहेज पारिवारिक आय के हिस्से के रूप में
ऊपर दिये गए आकृति में शब्दों का अर्थ:
Median dowry / average earnings - माध्य औसत दहेज / औसत उपार्जन
दहेज के विकास पर मौजूद सिद्धांतों की जांच के लिए डेटा का प्रयोग
इसके बाद हमने अपने डेटा का उपयोग करके भारत में दहेज के विकास पर मौजूद चार प्रमुख सिद्धांतों की जांच-परख की है।
‘‘संस्कृतिकरण’’: दहेज के प्रचलन में आए बदलाव की प्रसिद्ध व्याख्या श्रीनिवास (1984) की संस्कृतिकरण की परिकल्पना है। इस सिद्धांत में प्रस्तावित है कि दहेज का प्रचलन हमेशा से उच्च जातियों में रहा था, और उच्च जातियों की नकल करने के कारण यह निम्न जातियों में भी फैला। इस नकल का कारण निम्न-जातीय समूहों द्वारा अपनी सामाजिक हैसियत बढ़ाने (‘संस्कृतिकरण करने’) के लिए उच्च-जातीय समूहों के आचरणों की नकल करने के प्रयास को बताया जाता है। नीचे दिया गया आकृति 4 दर्शाता है कि यह सिद्धांत दहेज वृद्धि की व्याख्या नहीं कर सकता है। दोनो निम्न-जातीय और उच्च-जातीय समूहों ने लगभग एक ही समय में और एक ही दर से दहेज को व्यापक रूप से अपनाना शुरू किया।
आकृति 4. व्यापक जातीय समूहों में दहेज भुगतान
ऊपर दिये गए आकृति में शब्दों का अर्थ:
Proportion of marriages with dowry – दहेज-युक्त विवाहों का अनुपात
Brahmins - ब्राह्मण Non-Brahmin, General Caste अब्राह्मण सामान्य जातियां
Scheduled Caste & Tribes - अनुसूचित जातियां और जनजातियां Other Backward Castes - अन्य पिछड़ी जातियां
लिंग अनुपात और दहेज : एक अन्य सिद्धांत में दहेज में बदलाव को जनसंख्या वृद्धि के कारण लिंग अनुपात में हुए बदलाव का परिणाम तर्क के आधार पर उचित बताया गया है (जैसे राव 1993, बिल्लीग 1991, 1992, डालमिया एवं अन्य 2005, सौतमान 2011)। पुरुष महिलाओं की अपेक्षा अधिक उम्र में शादी करते हैं इसलिए जब जनसंख्या बढ़ती है, जैसा कि भारत के मामले में 1950 और 1960 के दशकों में हुआ, तो विवाह की उम्र वाले पुरुषों की तुलना में विवाह की उम्र वाली महिलाओं की संख्या बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप होने वाले ‘‘वैवाहिक दबाव’’ (मैरेज स्क्वीज) में अपेक्षाकृत कम वरों को लेकर प्रतिस्पर्धा बढ़ने से दहेज में वृद्धि हो सकती है। इन अनुमानों के विपरीत हमने ऐसा नहीं पाया की विवाह के बाजार में मौजूद लिंग अनुपात का दहेज के प्रचलन या उसकी मात्रा से कोई संबंध है। बल्कि, एंडर्सन (2007) द्वारा सैद्धांतिक रूप से दर्शाया है कि विवाह की उम्र में बदलाव होने से इस ‘‘दबाव’’ में कमी नज़र आती है, जब वर एवं वधू के उम्र का औसत अंतर कम होता है।
आधुनिकीकरण, आर्थिक विकास, और दहेज : एंडरसन (2003) ने दहेज में वृद्धि को आधुनिकीकरण के दौरान संपत्ति का फैलाव बढ़ने और उसके साथ-साथ वरों को लेकर जातियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ने से जोड़ा है। इस सिद्धांत का मुख्य तत्व यह है कि परिवार अपनी बेटियों की शादी ऊंची हैसियत वाली जाति के पुरुषों से करना चाहते हैं, और उसे निम्न-जातीय पुरुषों के साथ विवाह की तुलना में काफी अधिक तरजीह दी जाती है। वरों में यह जाति-आधारित प्रतिस्पर्धा होने एवं वरों की गुणवत्ता में बढ़े हुए फैलाव के कारण दहेज-स्फीति (डाउरी इनफ्लेशन) पैदा होती है (मॉडल की अधिक जानकारी के लिए आलेख देखें)। हमने इस मॉडल के एक मुख्य पूर्वानुमान का प्रमाण आधारित जांच किया की निम्न-जातीय वरों की गुणवत्ता में विस्तार होने के कारण उच्च जातियों में दहेज-स्फीति की स्थिति पैदा होगी। हमें जातियों के बीच इस प्रकार की प्रतिस्पर्धा का कोई प्रमाण नहीं मिला क्योंकि वास्तविक संभावना यही होती है कि लोग उच्च जाति के बजाय अपनी जाति समूह में शादी करना ही पसंद करते हैं (बनर्जी एवं अन्य 2013)।
दहेज और वर की गुणवत्ता: हमने प्रमाण उपलब्ध कराया कि दहेज में वृद्धि का कारण आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में वर की गुणवत्ता में बढ़ते अंतर को माना जा सकता है जो एंडरसन और बिडनर (2015) के सैद्धांतिक मॉडल के अनुरूप है। 1930 और 1940 के दशकों से हीं प्राथमिक शिक्षा अधिक व्यापक रूप से उपलब्ध होती गई और भारतीय पुरुषों को अच्छे भुगतान वाले वर्गों एवं वेतनभोगी पदों पर काम उपलब्ध होने लगा था। अधिक शिक्षित और संपन्न vआर अधिक दहेज की मांग कर सकता था क्योंकि विवाह के बाजार में उन विशेषताओं का बड़ा महत्व होता है। ऊंची गुणवत्ता वाले वरों की संख्या बढ्ने से दहेज की रकम में स्फीति पैदा की हो सकती है।
एक ही पंचवर्षीय अवधि में विवाह बाजार में परिवार के नजदीकी सदस्यों को होने वाले दहेज भुगतान में परिवर्तन करके हमने प्रमाणित किया कि वर की ‘गुणवत्ता’ उनको मिलने वाले दहेज का महत्वपूर्ण निर्धारक होती है। चूंकि लगभग सभी अपने जाति समूह में ही विवाह करते हैं, हमने विवाह बाजार के इस बंटवारे का प्रयोग करके यह दिखाया कि यह अपने जाति समूहों में वरों की सापेक्ष रैंकिंग के कारण नहीं होकर शिक्षा के पूरे किए गए वर्षों का प्रतिफल (रिटर्न) है। दहेज-स्फीति वरों की बढ़ती गुणवत्ता के साथ-साथ, शिक्षा से प्राप्त होने वाले प्रतिफल से भी होनी चाहिए।
एक बचा सवाल है कि 1975 के बाद की अवधि में बड़े दहेज भुगतानों में गिरावट क्यों आई। हमने इसका कारण यह दर्शाया है कि विवाह बाजार का चरित्र-चित्रण सबसे अच्छी तरह से ‘‘सर्च (जांच) मॉडल’’ द्वारा किया जाता है जिसमें संभावित वरों और वधुओं का मिलान किया जाता है और दहेज पर मोलतोल की जाती है। अगर संभावित वर-वधू किसी दहेज पर सहमत हो जाते हैं तो उनका विवाह होता है। वहीं, ऐसा नहीं होने पर उनका विवाह नहीं होता है और अन्य जोड़ीदारों से पुनः मिलान किया जाता है। बेहतर गुणवत्ता वाले वरों को अधिक दहेज मिलेगा क्योंकि वधुओं को उनके साथ जोड़ी बनाने की बेहतर उपयोगिताएँ मिलती है। इसलिए वधुएँ दुबारा मिलान के बजाय अधिक दहेज पर उनके साथ जोड़ी बनाना पसंद करती हैं । हालांकि जैसे-जैसे ऊंची गुणवत्ता वाले वरों की संख्या तुलनात्मक रूप से बढ़ती जाता है, दुबारा मिलान की स्थिति में ऊंची गुणवत्ता वाला वर मिलने की संभावना भी बढ़ती जाती है। फलतः उच्च गुणवत्ता वाले वरों के मामले में दहेज की संभावित रकम घट जाती है, जो उच्च मूल्यों वाले दहजों में कमी के साथ संगतिपूर्ण है (मॉडल आलेख में देखें)। हम डेटा में ठीक यही पैटर्न पाते हैं : किसी क्षेत्र में शिक्षित वरों का समूह जैसे-जैसे बढ़ता है, वैसे-वैसे वह अधिक शिक्षित वरों को मिलने वाले दहेज की बढ़ौती को घटाता जाता है। एंडरसन और बिडनर (2015) के मॉडल के अनुरूप ही इस सर्च (जांच) मॉडल के जरिए पिछली सदी में दहेज भुगतान पूरे ट्रैक रेकॉर्ड का बेहतर व्याख्या हो जाता है।
निष्कर्ष
पिछली सदी में भारत में विवाहों के कुछ पहलू तो एक जैसे ही रहे हैं (जैसे कि अंतर्जातीय विवाहों की निम्न दरें), लेकिन अन्य पहलुओं में काफी बदलाव आया है। हमारा शोध, दहेज भुगतानों के विकास तथा दहेज अधिकांश भारतीय परिवारों के लिए बड़ी वित्तीय लेनदेन कैसे बनते चले गए, इन दोनों बातों पर केन्द्रित है। हमने यह भी दिखाया है कि किसी खास वर को विवाह के मामले में मिलने वाले प्रतिफल पर आधारित विवाह बाजारों का एक सरल मॉडल किस तरह से बदलावों के समय और प्रकार को कैसे समझा सकता है। भविष्य के कार्यों में इन विचारों को नीति में लागू करने पर ध्यान देना चाहिए और ऐसी योजनाओं पर विचार किया जाना चाहिए जो दहेज के अधिकांश नुकसानदेह परिणामों का निवारण कर सके।
लेखक परिचय: गौरव चिपलंकर डारसन स्कूल ऑफ बिजनेस, यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जिनिया में ग्लोबल इकनॉमीज एंड मार्केट्स ग्रुप में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। जेफरी वीवर यूनिवर्सिटी ऑफ़ सदर्न कैलिफ़ोर्निया में अर्थशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।
नोट्स:
- ग्रामीण आर्थिक एवं जनसांख्यिक सर्वेक्षण (आरईडीएस) में किसी परिवार में हुए विवाहों के रिट्रोस्पेक्टिव (भूतापेक्षी) डेटा दिए गए हैं। डेटा पर विस्तृत चर्चा के लिए पूरे आलेख को देखें।
- ग्रामीण आर्थिक एवं जनसांख्यिक सर्वेक्षण (आरईडीएस) में किसी परिवार में हुए विवाहों के रिट्रोस्पेक्टिव (भूतापेक्षी) डेटा दिए गए हैं। डेटा पर विस्तृत चर्चा के लिए पूरे आलेख को देखें।
- दहेज अपनाने के मामले में भौगोलिक आधार पर काफी अंतर है: जैसे की हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में 1930 के दशक में भी दहेज की दर काफी ऊंची थी, लेकिन अधिकांश स्थानों पर उस समय दहेज की प्रचलित दरें काफी कम थीं। दहेज अपनाने के राज्य-स्तरीय पैटर्न के बारे में आलेख को देखें।
- दहेज की रकम का अंकित मूल्य काफी बढ़ा है, इसलिए इस धारणा को ‘‘मुद्रा संबंधी भ्रम’’ कहा जा सकता है (शफीर एवं अन्य 1997)।
- पारिवारिक आय किसी राज्य की औसत पारिवारिक आय है जिसकी गणना 1960 से 1990 के बीच राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (एनएसएस) के कई चक्रों का उपयोग करके की गई है।
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