इस लेख के सह-लेखक देबाशीष बारिक, पल्लवी चौधरी, बिजय चौहान, ओम प्रकाश शर्मा, दिनेश कुमार तिवारी (एनसीएईआर) और शरण शर्मा (मैरीलैंड कॉलेज पार्क विश्वविद्यालय और एनसीएईआर) हैं।
ऐतिहासिक रूप से सामाजिक सुरक्षा जाल के प्रति भारत के दृष्टिकोण में गरीबों की पहचान करना और उन्हें सामाजिक सुरक्षा तक प्राथमिकता प्रदान करना शामिल रहा है। भारत मानव विकास सर्वेक्षण के 2004-05, 2011-12 और 2022-24 में तीन चरणों में एकत्र किए गए आँकड़ों का विश्लेषण करते हुए, इस लेख में पाया गया है कि अर्थव्यवस्था के बढ़ने के साथ-साथ परिवारों को गरीबी में और उससे बाहर निकलने में काफी बदलाव का सामना करना पड़ता है, जिससे गरीबों की सटीक तरीके से पहचान करना और उन्हें लक्षित करना मुश्किल हो जाता है।
यह आइडियाज़@आईपीएफ2024 श्रृंखला का तीसरा लेख है।
भारत में 21वीं सदी के दौरान गरीबी में लगातार कमी आई है। मैरीलैंड विश्वविद्यालय और नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) द्वारा आयोजित भारत मानव विकास सर्वेक्षण (आईएचडीएस) के तीन दौरों से प्राप्त प्रारम्भिक अनुमान1 के मुताबिक, गरीबी दर में 2004-05 के आईएचडीएस-1 के 38.6% की तुलना में 2011-12 के आईएचडीएस-2 में 21.2% की गिरावट आई है, जो 2022-23 के आईएचडीएस-3 में और भी कम होकर 8.5% हो गई है। गरीबी संबंधी इन अनुमानों में मुद्रास्फीति-समायोजित गरीबी रेखा का उपयोग किया गया है, जिसे सबसे पहले तेंदुलकर समिति ने प्रस्तावित किया था। यह प्रवृत्ति अन्य स्रोतों से प्राप्त आँकड़ों के अनुरूप है, जो राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा हाल ही के घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) में भी नज़र आती है, हालांकि सटीक अनुमान अलग-अलग हैं।
गरीबी में कमी आने पर क्षणिक गरीबी का महत्व बढ़ जाता है
भारत में गरीबी के बारे में अधिकांश चर्चाएँ ‘स्थिर’ हैं। इनमें गरीब परिवारों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है, लेकिन गरीबी में आने और इससे बाहर निकलने की प्रक्रिया पर कम ध्यान दिया जाता है, जिसका कारण सम्भवतः अनुदैर्ध्य या लोंगिटूडिनल डेटा का अभाव है। सापेक्ष आर्थिक स्थिरता के समय में भी जब गरीबी की दर धीमी गति से बढ़ती है, तब भी प्रत्येक परिवार की आय और उपभोग में परिवर्तन हो सकता है, क्योंकि परिवार की संरचना बदल जाती है, श्रमिक सेवानिवृत्त हो जाते हैं तथा बच्चे बड़े होकर रोज़गार पा लेते हैं। बीमारी, शादी के खर्च और प्राकृतिक आपदाएँ भी आय को प्रभावित कर सकती हैं। आर्थिक परिवर्तन की अवधि के दौरान, अप्रत्याशित परिस्थितियाँ विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो सकती हैं। भारत ने आर्थिक विकास में क्षेत्रीय विचलन को भी देखा है, जिसमें तमिलनाडु के कॉलेज स्नातक मध्य प्रदेश में अपने साथी की तुलना में बहुत अधिक कमाते हैं। कुछ व्यवसायों में अवसर कम हुए हैं जबकि अन्य में विस्तार हुआ है।
यह अनुदैर्ध्य (लोंगिटूडिनल) दृष्टिकोण से परिवार की आर्थिक स्थिति की जाँच करने की आवश्यकता को इंगित करता है। आकृति-1 और 2 में पारिवारिक उपभोग में परिवर्तन को दर्शाया है, जो 2004-05 और 2011-12 के बीच तथा 2011-12 और 2022-24 के बीच अत्यधिक गरीबी में प्रवेश करने वाले और उससे बाहर निकलने वाले दोनों को दर्शाता है।
आकृति-1 में 2004-05 में 38% गरीब परिवारों और 62% ग़ैर-गरीब परिवारों के गरीबी में आने और जाने की प्रक्रिया को दर्शाया गया है। 2011-12 तक गरीबी में कमी आई थी और 25% परिवार गरीबी से बाहर निकल आए थे, फिर केवल 13% गरीबी में फंसे हुए थे। इसी समय, पिछले दौर के 62% ग़ैर-गरीब परिवारों में से 8% अब गरीब हो गए थे। 2011-12 में गरीबी में आए ये गरीब परिवार कुल गरीब परिवारों का लगभग 39% थे। आकृति-2 में 2022-24 के आँकड़ों के साथ इसी प्रकार का अभ्यास एक समान प्रवृत्ति दर्शाता है, जिसमें 18.1% परिवार गरीबी से बाहर निकल रहे हैं और 5.3% वापस गरीबी में आ रहे हैं। दोनों अवधियों के बीच परिवर्तन यह है कि 2022-24 में समग्र गरीबी का स्तर काफी कम है, जबकि नव गरीब सभी गरीब परिवारों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए हैं- लगभग 62%।
आकृति-1. आईएचडीएस दौर 1 और 2 के बीच गरीबी में बदलाव/प्रसार
आकृति-2. आईएचडीएस दौर 2 और 3 के बीच क्षणिक गरीबी का बढ़ता हिस्सा
2004-05 और 2011-12 के बीच गरीबी में हुए बदलाव को समझने के लिए, हम गरीबी में आने और इससे बाहर निकलने की विशेषताओं का विस्तृत विश्लेषण करते हैं (थोरात एवं अन्य 2017), जो यह दर्शाता है कि गरीबी से बाहर निकलने की यह प्रवृत्ति ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों जैसे अनुसूचित जातियों (एससी) के सन्दर्भ में अधिक है। हालांकि, इन समूहों के पुनः गरीबी में गिरने की अत्यधिक सम्भावना बनी हुई है, जो निम्न-मध्यम वर्ग की स्थिति में अनिश्चितता का संकेत देती है। आईएचडीएस दौर 1 और 2 के डेटा का उपयोग करने वाले अन्य अध्ययनों ने आईएचडीएस-1 में अंतर्निहित स्थितियों की जाँच करने की कोशिश की है, जैसे कि परिवार का आकार, परिवार में बुजुर्गों की उपस्थिति, भूमि स्वामित्व और जाति/धर्म, जो आईएचडीएस-2 में गरीबी में फंसने की सम्भावना का अनुमान लगा सकते हैं (बंद्योपाध्याय और भट्टाचार्य 2022) और पाया कि उनका पूर्व-संवेदनशीलता माप भविष्य की गरीबी का एक सकारात्मक और महत्वपूर्ण संकेत है। हालांकि, गुणांक अपेक्षाकृत छोटे हैं, जो गरीबी में गिरने का पूरी तरह से अनुमान लगाने में हमारी असमर्थता को दर्शाते हैं। यह 20वीं सदी की गरीबी (मेहता एवं अन्य 2011) पर किए गए अध्ययनों से प्राप्त टिप्पणियों के बिल्कुल विपरीत है, जिसमें अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों (एसटी), भूमिहीन परिवारों और कई सदस्यों वाले बड़े परिवारों में पुरानी गरीबी की काफी निरंतरता पाई गई। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अनुसूचित जनजातियों के सन्दर्भ में पुरानी गरीबी सदियों में अधिक पाई गई है।
गरीबी के परिवर्तनशील स्वरूप के चलते गरीबों की पहचान करना मुश्किल हो जाता है।
सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों का उद्देश्य सबसे गरीब परिवारों तक अपने लाभ को सीमित रखके लागत दक्षता लाना है। भारत ने 1997 में खाद्यान्न के लिए सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) से लक्षित पीडीएस की ओर कदम बढ़ाते हुए इस दृष्टिकोण को लागू करना शुरू किया। इसके लिए परिवारों को गरीब के रूप में या भारतीय अधिकारियों के शब्दों में, 'गरीबी रेखा से नीचे' (या बीपीएल) परिवारों2 के रूप में परिभाषित करना आवश्यक था। ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 1992, 1997, 2002 और 2011 (सक्सेना 2015) में राष्ट्रव्यापी जनगणना के माध्यम से यह पहचान की।
वर्ष 2011 में ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी क्षेत्रों में आवास और शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय द्वारा सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) के माध्यम से नया अध्ययन किया गया था। वंचित परिवारों की पहचान ‘स्वचालित बहिष्करण’ (उदाहरण के लिए, कोई वाहन या सरकारी नौकरी का होना), ‘स्वचालित समावेशन’ (उदाहरण के लिए, आदिम जनजाति समूह या भिक्षा मांग पर रहने वाले लोग) और व्यवसाय, रहन-सहन की स्थिति, जाति/जनजाति और परिवार की संरचना के आधार पर एक श्रेणीबद्ध स्कोर के मानदंडों पर आधारित थी। इन मानदंडों का चयन ग्रामीण क्षेत्रों के लिए डॉ. एन सी सक्सेना (ग्रामीण विकास मंत्रालय, 2009) और शहरी क्षेत्रों के लिए प्रोफेसर एस आर हाशिम (योजना आयोग, 2012) की अध्यक्षता वाले कार्य-समूह की सिफारिश के आधार पर ग्रामीण क्षेत्रों में उपयोग के लिए किया गया है। इसके पश्चात स्थानीय सरकारी प्राधिकारी लक्षित परिवारों के सत्यापन के लिए प्रावधान करते हैं। यद्यपि इस विधि में एक क्रमबद्ध सूची तैयार की जाती है, लेकिन पात्र माने जाने वाले परिवारों के कट-ऑफ का निर्धारण 2011-12 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आधार पर किसी राज्य में गरीब माने जाने वाले परिवारों के अनुपात के आधार पर किया जाता है।
एकरलोफ (1978) के अनुसार, सामाजिक लाभ के लिए सत्यापन-योग्य आय के बिना ‘प्रातिनिधिक साधन परीक्षण- प्रॉक्सी मीन्स टेस्टिंग’ (प्रॉक्सी, जैसे व्यवसाय और पारिवारिक विशेषताओं को गरीबी से जोड़कर देखना) का एक लम्बा इतिहास रहा है (बनर्जी एवं अन्य (2024) भी देखें)। हालांकि, बीपीएल कार्ड जारी करने के एक हिस्से के रूप में वंचित परिवारों की पहचान करने में उपयोग किए जाने वाले विशिष्ट मानदंडों की वैधता की काफी आलोचना हुई है (अलकिरे और सेठ 2013, ड्रेज़ और खेरा 2010, शरण, 2011), यहाँ तक कि पहचान योजना के प्रवर्तकों में से एक (सक्सेना 2015) ने भी इसकी आलोचना की है। इन समीक्षाओं में पाया गया कि कई गरीब परिवारों को बीपीएल सूची से बाहर रखा गया था, जबकि कई ग़ैर-गरीब परिवारों को शामिल किया गया था।
जब ‘समावेशन’ और ‘बहिष्करण’ देखे गए, तो उन्हें अक्सर स्थानीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया, जो कुछ व्यक्तियों को उनकी आर्थिक स्थिति चाहे जो भी हो, बीपीएल कार्ड प्राप्त करने का मौका देती है। शोध से पता चलता है कि अभिजात वर्ग का कब्ज़ा और सामाजिक नेटवर्क इस बात में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं कि किसे बीपीएल कार्ड मिल सकता है (बेस्ले एवं अन्य 2005, पांडा 2015)। कुछ नवाचार के साथ, सावधानीपूर्वक तैयार किए गए ‘समावेशन’ और ‘बहिष्करण’ मानदंडों का उपयोग करके गरीबों की पहचान में सुधार लाना सम्भव हो सकता है (उदाहरण के लिए, असरी एवं अन्य (2022) देखें)। हालांकि, इस बात पर बहुत कम ध्यान दिया गया है कि तेज़ी से बदलती अर्थव्यवस्था में ये लक्ष्यीकरण रणनीतियाँ कैसे कारगर हो सकती हैं।
जैसा कि हमने पहले दिखाया है, जैसे-जैसे पुरानी गरीबी कम होती जाती है, गरीबी में आने और बाहर निकलने वाले परिवारों की आवाजाही का पता लगाना अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। हालांकि, सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) जैसी प्रमुख पहलों को शुरू करने में लागत और तार्किक कठिनाइयों का अर्थ है कि ये अभ्यास अनियमित होंगे और तीव्र परिवर्तन के इस युग में प्रभावी नहीं होंगे।
हम आईएचडीएस की विभिन्न दौरों के डेटा का उपयोग करते हुए, बीपीएल कार्ड3 के स्वामित्व और प्रति-व्यक्ति उपभोग व्यय के बीच सह-सम्बन्ध की जाँच करते हैं। परिणाम इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि जबकि गरीबों के पास बीपीएल कार्ड होने की अधिक सम्भावना है, हम प्रत्येक व्यय स्तर पर दोनों प्रकार के परिवार पाते हैं। यद्यपि वितरण उत्तरोत्तर अभिसरित होते गए हैं (परिणाम यहाँ नहीं दिखाए गए हैं), बहिष्करण और समावेशन संबंधी त्रुटियाँ बनी हुई हैं।
आईएचडीएस दौरों-1 और 2 के समय, बीपीएल कार्ड 2002 के सर्वेक्षण का उपयोग करके जारी किए गए होंगे, लेकिन आईएचडीएस-3 द्वारा, बीपीएल को परिभाषित करने हेतु एसईसीसी सर्वेक्षण 2011 का उपयोग किया गया था। बीपीएल कार्ड के लिए पात्र परिवारों की कुल संख्या आईएचडीएस-1 और आईएचडीएस-2 के बीच थोड़ी बढ़ी, लेकिन आईएचडीएस-3 के संचालन के समय तक काफी बढ़ गई थी। यह बढ़ोत्तरी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के कार्यान्वयन के कारण हुई, जिसमें यह अनिवार्य किया गया था कि 75% ग्रामीण और 50% शहरी परिवारों को अत्यधिक सब्सिडी वाले खाद्य वितरण के तहत कवर किया जाए। इस व्यापक विस्तार से बहिष्करण संबंधी त्रुटियां दूर हो जानी चाहिए थी और सभी गरीब परिवारों को बीपीएल (या प्राथमिकता वाले घरेलू (पीएचएच)) कार्ड प्राप्त होने चाहिए थे। इसके विपरीत, कार्यक्रम के विस्तार के कारण समावेशन त्रुटियाँ बढ़ गई होंगी, जो एनएफएसए के तहत त्रुटि का एक स्वीकार्य रूप है।
यह उम्मीद आंशिक रूप से ही पूरी हुई है। 2022-24 में बीपीएल कार्ड अधिक आम हो गए, जबकि लगभग 30% गरीबों की अभी भी उन तक पहुँच नहीं है, न ही 35% परिवार गरीबी रेखा से ऊपर हैं, लेकिन एक ऐसे क्षेत्र से नीचे हैं जहाँ से वे किसी भी समय गरीबी में जा सकते हैं (गरीबी रेखा से दोगुना माना जाता है)। विडंबना यह है कि, जबकि आईएचडीएस-2 और आईएचडीएस-3 के बीच ग़ैर-गरीब परिवारों की संख्या में वृद्धि हुई (30% से 56%), बीपीएल कार्ड तक पहुँच वाले परिवारों की संख्या 59% से बढ़कर 66% हो गई।
हालाँकि, अभिजात वर्ग पर ध्यान केन्द्रित करने से मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा सकता है। गरीबों के ‘बहिष्करण’ का एक कारण यह भी हो सकता है कि बीपीएल कार्डों के मूल डिज़ाइन को आवासीय स्थानों से जोड़ दिया गया था, जिसके कारण प्रवासी इसके दायरे से बाहर हो गए। 'एक राष्ट्र, एक राशन' कार्ड पहल बीपीएल कार्ड की पोर्टेबिलिटी को बढ़ाने में मदद कर सकती है, जिससे गरीब शहरी प्रवासी श्रमिकों के बीच भेद्यता (कमज़ोरी) कम हो सकती है। एक बड़ी समस्या यह हो सकती है कि ऐसा असंगति गरीबी में कमी के कारण है। कई गरीब परिवार (जिनके पास कार्ड जारी होने के समय सही तरीके से बीपीएल कार्ड थे) अब ग़ैर-गरीब श्रेणी में आ गए हैं, लेकिन गरीबों की पहचान कम होने के कारण ये कार्ड उनके पास बने हुए हैं। इसके विपरीत, जो परिवार एसईसीसी सर्वेक्षण के दौरान गरीब नहीं थे, वे गरीबी या ग़ैर-गरीब लेकिन कमजोर श्रेणी में आ गए होंगे। हालाँकि, उनकी पहले की श्रेणी केवल नए मूल्याँकन के साथ ही बदली जा सकती थी, इसलिए उन्हें बीपीएल कार्ड प्राप्त करने से बाहर रखा गया।
गरीबों की गलत पहचान के ठोस परिणाम होते हैं
कई लाभों के लिए पात्रता, विशेष रूप से आयुष्मान भारत योजना के तहत सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली स्वास्थ्य बीमा तक पहुँच, परिवार के गरीब होने की श्रेणी से जुड़ी हुई है। हालांकि, चुनिंदा व्यवसायों में काम करने से भी इनमें से कुछ लाभ मिल सकते हैं। हम पाते हैं कि विभिन्न उपभोग श्रेणियों में, बीपीएल कार्ड वाले और बिना बीपीएल कार्ड वाले परिवारों की सार्वजनिक बीमा तक पहुँच में काफी अंतर है। चाहे वे गरीब हों, कमजोर हों या अमीर, बीपीएल कार्ड वाले परिवारों में से लगभग 40-43% के पास केन्द्र और राज्य, दोनों योजनाओं-सहित सरकारी बीमा तक पहुँच है। बीपीएल कार्ड के बिना परिवारों में, यह संख्या लगभग 23-25% तक गिर जाती है। जबकि निजी बीमा तक पहुँच भी बढ़ रही है, लेकिन यह बीपीएल कार्ड के बिना गरीब परिवारों की कमी को पूरा नहीं करती है।
गरीबी के परिवर्तनशील स्वरूप से पता चलता है कि गरीब परिवारों की पहचान करना और यह निर्धारित करना कि उन्हें एक दशक में केवल एक बार सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जाए, इससे ऐसे लोग छूट सकते हैं जो बीच के समय में गरीबी में आ जाते हैं, जबकि उन लोगों को सहायता देना जारी रख सकता है, जिन्हें अब सामाजिक सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है।
टिप्पणी:
- परिणाम आईएचडीएस-3 सर्वेक्षण के प्रारम्भिक डेटा पर आधारित हैं, जिनकी डेटा गुणवत्ता के लिए जाँच नहीं की गई है और सर्वेक्षणों के बीच कमी पर विचार किए बग़ैर प्रारम्भिक नमूना भार का उपयोग किया गया है। इसलिए, परिणाम को सावधानी से लिया जाना चाहिए।
- हाल के वर्षों में परिभाषा बदल कर 'प्राथमिकता वाले परिवार' हो गई है, क्योंकि इसमें शामिल वर्ग का विस्तार हो गया है और जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा इसमें शामिल हो गया है, लेकिन बीपीएल अब भी आम बोलचाल में लोकप्रिय है और हम अपने लेखन में इसका प्रयोग करना जारी रखते हैं।
- अन्नपूर्णा योजना (यह एक ऐसी योजना है जिसके तहत 65 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों को प्रति माह 10 किलोग्राम खाद्यान्न मुफ्त में वितरित किया जाता है, जिनके पास कोई या बहुत कम जीविका-साधन हैं) और अंत्योदय अन्न योजना (एक ऐसी योजना जिसका उद्देश्य गरीब परिवारों को अत्यधिक रियायती दरों पर भोजन उपलब्ध कराना है) जैसे कार्यक्रमों के लिए पात्र परिवारों की अन्य श्रेणियों को यहाँ बीपीएल परिवारों के साथ जोड़ा गया है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : सोनाल्डे देसाई मैरीलैंड विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं तथा वे राष्ट्रीय अनुप्रयुक्त आर्थिक अनुसंधान परिषद (एनसीएईआर), नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो के रूप में संयुक्त रूप से नियुक्त हैं।
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