मानव विकास के मानकों में हो रहे परिवर्तनों को मापने से हमें यह समझने में मदद मिल सकती है कि देश की अर्थव्यवस्था और मानव कल्याण में किस तरह के बदलाव आ रहे है। इस वर्ष के आर्थिक सर्वेक्षण के मानव विकास अध्याय में शिक्षा, स्वास्थ्य, और कौशल विकास से जुड़ी ऐसी कई योजनाओं और कार्यक्रमों पर बल दिया गया है जो या तो नए सिरे से शुरू की गयीं हैं या उनसे जुड़ी पुरानी योजनाओं में कुछ बदलाव किए गए हैं। इस लेख में, कॉफ़ी और स्पीयर्स ने क्षेत्रीय स्तर पर स्वतंत्र डेटा और जानकारी उपलब्ध होने की आवश्यकता पर चर्चा की है।
वर्ष 2019-2020 के आर्थिक सर्वेक्षण के पहले खंड में ‘बाजारों की अनदेखी: जब अत्यधिक सरकारी हस्तक्षेप से लाभ की बजाय नुक्सान होता है’ तथा ‘भारत में व्यवसाय को सुगम बनाने का लक्ष्य’ जैसे अध्याय शामिल हैं। और फिर ‘सामाजिक अवसंरचना, रोजगार एवं मानव विकास’ को आर्थिक सर्वेक्षण के दूसरे खंड के अंतिम अध्याय में ही जगह मिली सकी है।
अधिक से अधिक अर्थशास्त्री अब इस बात को बेहतर समझने लगे हैं कि अर्थशास्त्र के मूल में मानव विकास का यहां सहयोग होता है। किसी भी देश में उत्पादन और उसमें इस्तेमाल होने वाले विचार लोगों के स्वास्थ्य, उनकी शिक्षा और उनकी क्षमताओं पर निर्भर होते हैं। क्योंकि हर देश के बच्चे उसके भविष्य के वयस्क होते हैं, ऐसे में देश का उत्पादन उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, और क्षमताओं से भी जुड़ा होता है। मानव विकास के इन मूल्यों का बेहतर होना बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि बेहतर शिक्षित और स्वस्थ लोग अधिक लंबाऔर खुशहाल जीवन जीते हैं। इसलिए, मानव विकास में या हो रहे बदलावों को समझने से हम इस बात को और भी बेहतर तरीके समझ सकते हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था, और अधिक व्यापक रूप से कहें तो, मानव-कल्याण, दोनों ही किस दिशा में जा रहे हैं।
मानव विकास का अध्याय समय के साथ हो रहे सुधारों को दर्शाने पर जोर देता है: “मानव विकास सूचकांक में सम्मिलित कुल 189 देशों में भारत की रेंकिंग 2018 में एक स्थान बढ़कर 129 हो गई जबकि वर्ष 2017 में भारत की रैंकिंग130 थी।” इस अध्याय में कई बार इस बात पर भी जोर दिया गया है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और कौशल विकास के क्षेत्रों में या तो कई नई योजनाओं और कार्यक्रमों को शुरू किया गया या पहले से मौजूद योजनाओं और कार्यक्रमों में कुछ बदलाव किये गए है। सरकारी कार्यक्रमों की बिंदुवार सूची ये धारणा बनाने का प्रयास करती है कि मानो नीति के बदलाव ही मानव विकास का कारण होते हैं। लेकिन क्या इन नीतियों और उन पर खर्च होने वाले पैसों में ये बदलाव से भारत में मानव विकास में सुधार की गति बढ़ी है?
मानव विकास में हो रहे बदलावों को समझने के लिए क्षेत्रीय स्तर पर उपलब्ध कराए गए स्वतंत्र आंकड़ों की आवश्यकता है
भारत में मानव विकास से जुड़ी ऐसी बहुत सी जरूरी जानकारियाँ हैं जिनके बारे में कोई भी कुछ नहीं जानता है। आर्थिक सर्वेक्षण के अधिकतर अध्यायों में दिए गए ऐसे बहुतायत आँकड़े हैं जो सरकार के अपने प्रशासनिक रिकॉर्ड या निगरानी सर्वेक्षणों से लिए गयेहै। और इसके साथ ही ऐसे बहुतायत क्षेत्र हैं जिनमें विषय-विशेषज्ञों ने इन आंकड़ों को गलत बताया है। अगर हम ऐसे समय की भी कल्पना कर लें जिसमें विशेषज्ञ भारत के आधिकारिक आंकड़ों को विवादित नहीं ठहरा रहे हों, फिर भी दूसरे देशों की तरह मानव विकास में हो रहे बदलावों को समझने के लिए स्वतंत्र तौर पर इकठ्ठा की गई जानकारी और डेटा की जरूरत होगी।
विश्व स्तर पर किये जाने वाले जनसांख्यिकी और स्वास्थ्य सर्वेक्षण का भारतीय संस्करण, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन.एफ़.एच.एस.), इस तरह का एक महत्वपूर्ण स्वतंत्र डेटा स्रोत है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन.एफ़.एच.एस.) के डेटा की गुणवत्ता काफी अच्छी हैं, वो किसी भी सरकारी कार्यक्रम या नीति से स्वतंत्र हैं, और हाल ही के वर्ष 2015-16 में इकठ्ठा किया गया है। संभवतः इन आंकड़ों का सबसे महत्वपूर्ण योगदान प्रारंभिक जीवन मृत्यु दर का आंकलन है। बच्चों की मृत्यु –दर, हमें बच्चों को शुरुआती जीवन में किस तरह के बीमारी भरे माहौल का सामना करना पड़ता है ये समझने में काफी मदद करती है। इसके साथ-साथ उससे हमें उनकी माताओं के स्वास्थ्य के बारे में भी काफी जानकारी मिलती है। इन सब बातों के बीच ये आश्चर्यजनक है कि आर्थिक सर्वेक्षण के मानव विकास के अध्याय, जिसके केंद्र में स्वास्थ्य को बताया गया है, में 'मृत्यु' शब्द का केवल दो बार ही जिक्र किया गया है। ‘मृत्यु’ शब्द का जिक्र सिर्फ सैम्पल रेजिस्ट्रैशन सिस्टम (एस.आर.एस.) के मातृ और शिशु मृत्यु दर के आंकड़ों को लिखते समय ही किया गया। इसके साथ ही इन आंकड़ों पर आवश्यक चर्चा को भी कोई स्थान नहीं मिला है।
आर्थिक सर्वेक्षण के मानव विकास के अध्याय की एक और आश्चर्यजनक चूक यह है कि अध्याय में राज्य या क्षेत्र के स्तर के महत्वपूर्ण स्वास्थ्य आँकड़ों को नहीं दिखाया गया है। पूरे भारत के लिए आंकड़े प्रस्तुत करने में - या केवल ग्रामीण और शहर के अनुसार उन्हें विभाजित करने में - महत्वपूर्ण क्षेत्रीय असमानताओं का स्पष्ट विवरण नहीं मिलता है। 2015-2016 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन.एफ़.एच.एस.) में पाया गया कि उत्तर प्रदेश में पैदा होने वाले प्रत्येक 1,000 बच्चों में से 45 की मृत्यु जीवन के पहले महीने में हो गई थी, इसकी तुलना में केरल में यह आंकड़ा प्रति 1,000 पर केवल 4 था। इस तरह के अंतरों को समझना जरूरी है। ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं है कि इससे हमें नीतिगत हस्तक्षेप की जरूरत का एहसास होता है, बल्कि उन्हें इसलिए भी समझना जरूरी है क्योंकि इससे अभाव और असमानता का भी पता चलता है। इस तरह के क्षेत्रीय अंतरों से समस्या के स्पष्टीकरण और उसके समाधान के संदर्भ में खोज के लिए भी मार्गदर्शन मिलता हैं। ये अंतर ऐसे राज्य जहां बच्चों की मृत्यु की संभावना ज्यादा होती है, वहां जनसंख्या में सामाजिक असमानता और राज्य की कमजोर क्षमता को उजागर करते हैं।
अध्याय में किन मुद्दों को जगह मिली और किन मुद्दों को दरकिनार होना पड़ा
यहाँ, हम कुछ ऐसे मुद्दों पर प्रकाश डाल रहे हैं जिनका हमने अध्ययन किया है और जो हमें प्रारंभिक जीवन स्वास्थ्य और मानव विकास के लिए महत्वपूर्ण लगते हैं। इनमें से कुछ को इस अध्याय में जगह मिली है, और कुछ को दरकिनार होना पड़ा है। इस संदर्भ में एक सामान्य विचार यह है कि सबसे सरल सांख्यिकी के लिए भी बेहतर आंकड़ों की आवश्यकता होती है, और आगे की प्रगति के लिए सामाजिक असमानता पर ध्यान देने की आवश्यकता होगी।
महिलाओं की रोजगार में भागीदारी
आर्थिक सर्वेक्षण के मानव विकास का अध्याय उपयोगी रूप से बताता है कि भारत में अन्य देशों की तुलना में महिलाओं की रोज़गार में भागीदारी की संभावना कम होती है। लेखक कुशल रूप से ये प्रश्न पूछते हैं: महिलाओं की श्रम बल में भागीदारी क्यों घट रही है? और फिर यह अध्याय इस प्रश्न के जवाब के तौर पर एक महत्वपूर्ण शोध का हवाला देते हुए कहता है: “यह इसलिए भी हो सकता है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी की कीमत के बढ़ने की वजह से परिवारों की आय बढ़ गई है और इसकी वजह से महिलाओं की रोज़गार भागीदारी में कमी हो रही हैं (हिमांशु, 2011)। “महिलाओं की रोजगार में भागीदारी में कमी आना सांस्कृतिक कारकों, सामाजिक बाधाओं और महिलाओं की गतिशीलता व स्वतंत्रता को सीमित करने वाले पितृ-सत्तात्मक मानकों के कारण से भी कम हो सकती है (दास, 2006; बानु, 2016)।” एक महत्वपूर्ण संभावना, जिसका स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, वह यह है कि ये दोनों कारक परस्पर प्रभाव डालते हैं: सांस्कृतिक धारणाओं के चलते समाज महिलाओं की रोजगार में भागीदारी नहीं चाहता है, और आर्थिक सबलता की वजह से और अधिक परिवार जैसे-जैसे समृद्ध और समर्थ होते जाते हैं वे महिलाओं को काम नहीं करने देना चाहते हैं। ऐसे में यह इसलिए मायने रखता है, क्योंकि अगर यह सही है, तो और अधिक आर्थिक विकास कुछ महिलाओं के काम करने की संभावना को कम कर सकता है।
खुले में टट्टी जाना
इस अध्याय में खुले में टट्टी जाने की समस्या का एक उल्लेख “स्वच्छ भारत मिशन ग्रामीण के तहत हासिल किए गए स्वच्छता व्यवहार परिवर्तन को बनाए रखने” पर ध्यान केंद्रित करने हेतु 10 साल की रणनीति के संदर्भ में है। जो हासिल हो चुका है उसे बनाए रखने के प्रयास में नीतिकारों को उसे भी अनदेखा नहीं करना चाहिए जो हासिल नहीं हो पाया है। वास्तव में, ग्रामीण भारत में पहले की तुलना में पिछले पांच वर्षों में खुले में टट्टी जाने वाले लोगों की संख्या में काफी कमी आई है। लेकिन उत्तर भारत के पांच बड़े राज्यों की ग्रामीण जनसंख्या में किये गए सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि खुले में टट्टी जाने वाले लोगों की संख्या में कमी का कारण शौचालय उपलब्धता में तेजी और शौचालयों की संख्या में आई वृद्धि है (गुप्ता एवं अन्य, 2019)। अफसोस की बात ये है कि उन लोगों के अनुपात में जो घर में लैटरीन होने के बावजूद भी खुले में टट्टी के लिए जाते हैं, के अनुपात में कमी नहीं आई है। इसके अलावा, विशेष रूप से उत्तर भारत के कई ग्रामीण घरों में अभी भी शौचालय नहीं है। वर्तमान के स्वतंत्र आंकड़ों के बिना यह आंकलन करना मुश्किल है कि भारत में अभी भी कितने लोग खुले में टट्टी करने के लिए जाते हैं। इसके बावजूद, अध्याय में खुले में टट्टी जाने की समस्या की संक्षिप्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि नीति निर्माताओं की प्राथमिकताएं और उनका ध्यान अब खुले में टट्टी की समस्या से जूझने से आगे बढ़ चुका है। यदि नीतिगत ध्यान कभी भी बीमारी के इस स्रोत और मानव पूंजी को नुकसान पहुंचाने वाली इस समस्या पर लौटे, तो इस समस्या से निपटने के लिए व्यवहार परिवर्तन और शौचालय के उपयोग को बढ़ावा देने पर ध्यान देने की आवश्यकता होगी।
वायु प्रदूषण
दुनिया के सभी सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर अब भारत में हैं। वायु प्रदूषण का उल्लेख ‘संधारणीय विकास और जलवायु परिवर्तन’ नाम के अध्याय संख्या 6 में खेती की पराली जलाने के संदर्भ में किया गया है, लेकिन मानव विकास के अध्याय में इसका उल्लेख भी नहीं है। वायु प्रदूषण श्वांस संक्रमण व दिल-के-दौरे जैसी गंभीर बीमारियों का कारण है; और इससे बढ़ते बच्चों के विकास में कमी आती है। यह शायद आज भारत की मानव पूंजी और विकास के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इन कारणों के चलते स्वास्थ्य को समाहित करने वाले एक अध्याय में इसका उल्लेख न करना आश्चर्यजनक है।
खाना पकाने का स्वच्छ ईंधन
लकड़ी, कंडे, और पराली से खाना पकाने के कारण होने वाला वायु प्रदूषण, खासकर महिलाओं और बच्चों के लिए, बीमारी का एक मुख्य स्रोत है। क्योंकि भारत के गांवों में, लोगों के घर अक्सर एक-दूसरे के बहुत करीब होते हैं और जब पास के किसी घर में खाना पकाने के लिए गोबर या लकड़ी जलाई जाती है तो पडोसी भी उसके धुएं से प्रभावित होते हैं: खाना पकाने के ईंधन से न किवल बनाने वाले के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है, बल्कि उनके आस-पास रहने वाले दूसरे लोगों के स्वास्थ्य पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ता है (गुप्ता, 2019)। पिछले चुनाव से पहले उज्ज्वला योजना1 के अंतर्गत कई परिवारों को एलपीजी गैस कनेक्शन और सिलेंडर दिए गए। अब चुनौती यह सुनिश्चित करने की है कि गैस का उपयोग किया जाए और रिफिल निश्चित रूप से संभव हो। कई परिवार अब मिले-जुले रूप में कभी-कभी स्वच्छ ईंधन (एलपीजी गैस) और अन्य कार्यों के लिए लकड़ी, कंडे, या पराली का उपयोग करते हैं (गुप्ता एवं अन्य, 2019)। उज्ज्वला योजना से होने वाले स्वास्थ्य लाभों को प्राप्त करने के लिए इस व्यवहार को बदलना जरूरी होगा।
सफलता और विफलता; स्पष्ट रुझान और अज्ञात विवरण
हाल ही के एक समीक्षा लेख में, देवेश कपूर भारतीय नीति-निर्माण के बारे में एक महत्वपूर्ण प्रश्न पूछते हैं: भारतीय राज्य कभी-कभी सफल और कभी-कभी असफल क्यों हो जाता है? (कपूर, 2020) यह पहेलीनुमा प्रश्न स्वास्थ्य और मानव विकास की नीति में विशेष रूप से जरूरी है।
हमें प्रगति का गर्व होना चाहिए, भले ही यह भारत के अलग अलग क्षेत्रों में असमान हो। अगर हम भारत के 1998 या 2005 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षणों की तुलना अभी से करें तो निश्चित ही मानव विकास क्षेत्र में गर्व करने लायक प्रगति हुई है। लेकिन कपूर का यह सवाल महत्वपूर्ण है, और नियमित, विश्वसनीय, और स्वतंत्र डेटा की अनुपलब्धता के कारण इसका जवाब देना और भी मुश्किल हो जाता है।
कपूर अपने प्रश्न के जवाब में “स्थानीय सरकार में स्टाफ की कमी,... और जाति तथा लैंगिक भेदभाव में प्रकट भारत की 'सामाजिक असफलता' (पृष्ट 50) पर जोर देते है।” स्थानीय सरकार की क्षमता परिवारों को खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन या शौचालय का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करने जैसे लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। और साथ ही यह भी सच है कि जाति, लिंग तथा सामाजिक असमानता के अन्य आयाम वास्तव में भारत में मानव विकास से जुड़ी कई असमानताओं और चुनौतियों का कारण हैं।
कपूर का लेख हमें काफी महत्वपूर्ण जानकारी देता है। मानव विकास पर काम करने वाले लोगों की संख्या में बढ़ोतरी और सामाजिक असमानता को खत्म करने का महत्व इतनी जल्दी फीका नहींपड़ेगा। जैसा कि उज्जवला और स्वच्छ भारत मिशन ने हमें सिखाया है, भारत सरकार वस्तुओं के निर्माण या खरीद और उन्हें घरों में वितरित करने में तो सफल हो सकती हैं। पर इन निवेशों को मानव विकास में बदलने के लिए लोगों के व्यवहार परिवर्तन पर काम करने की जरूरत होगी। इसके साथ ही हमें जानकारी इकठ्ठा करने की कार्यविधि को स्वतंत्र रखना होगा। आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट में मानव विकास के बारे में लिखने से उसमें मदद मिलेगी, पर इसके साथ-साथ यह भी सच है कि मानव विकास सामाजिक शक्तियों पर भी निर्भर करता है।
नोट्स:
- प्रधान मंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाई), पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा मई 2016 में गरीबी रेखा से निचले स्तर के परिवारों को एलपीजी कनेक्शन प्रदान करने के लिए एक केंद्रीय प्रायोजित योजना है।
लेखक परिचय: डाएन कॉफी अमेरिका के ऑस्टिन स्थित टेक्सास विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र और जनसंख्या अनुसंधान की असिस्टेंट प्रोफेसर और भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आइएसआइ), दिल्ली में विजिटिंग रिसर्चर हैं। डीन स्पीयर्स अमेरिका के ऑस्टिन स्थित टेक्सास विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर और भारतीय सांख्यिकी संस्थान के दिल्ली केंद्र में विजिटिंग इकोनॉमिस्ट हैं।
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