प्रौद्योगिकी को अक्सर स्वास्थ्य सेवा की अक्षमताओं के समाधान के रूप में सराहा जाता है, जबकि भारत के मान्यता-प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (आशा) पर इसके प्रभाव की स्थिति जटिल है। चार राज्यों में किए गए एक गुणात्मक शोध अध्ययन के आधार पर, इस लेख में आशा कार्यकर्ताओं में डिजिटलीकरण के ऐसे अनुभवों की जाँच की गई है, जिसमें डिजिटल उपकरण कार्य-प्रक्रियाओं में सुधार करते हैं और नए बोझ व असमानताएं पैदा करते हैं।
स्वास्थ्य सेवा के डिजिटलीकरण के लिए हाल ही में किए गए प्रयासों में, जिसे पिछले साल भारत की जी20 अध्यक्षता के दौरान प्रमुखता से उजागर किया गया था, मान्यता-प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं- अर्थात महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा), जो अंतिम छोर तक सामुदायिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने की रीढ़ हैं- के अनुभव एक महत्वपूर्ण और अक्सर नज़रअंदाज़ किए गए तनाव को उजागर करते हैं।
प्रौद्योगिकी को अक्सर स्वास्थ्य सेवा वितरण में, विशेष रूप से संसाधन-विवश सेटिंग्स में, अक्षमताओं के लिए रामबाण उपाय के रूप में देखा जाता है। आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन (एबीडीएम), भारत सरकार की एक प्रमुख पहल है, जो डिजिटल प्लेटफार्मों के माध्यम से सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों को अनुकूलित और सुव्यवस्थित करने का प्रयास करके इस दृष्टिकोण का उदाहरण प्रस्तुत करती है। इन प्रयासों के हिस्से के रूप में, आशा कार्यकर्ताओं के लिए डिजिटल उपकरण जैसे स्मार्टफोन, स्वास्थ्य डेटा संग्रह ऐप और अन्य डिजिटल प्लेटफार्मों तक पहुँच को सामुदायिक स्वास्थ्य सेवा को आधुनिक बनाने की दिशा में एक कदम के रूप में पेश किया गया है (इस्माइल एवं अन्य 2022)।
चार राज्यों में किए गए बहु-विधि गुणात्मक शोध पर आधारित हमारी रिपोर्ट के माध्यम से “अग्रिम पंक्ति में डिजिटलीकरण : हरियाणा, राजस्थान, केरल और मेघालय में आशा कार्यकर्ताओं के अनुभव” (श्रीरूपा, मक्कड़ और राजीव 2024) आशा कार्यकर्ताओं के प्रत्यक्ष अनुभवों और उनके काम के डिजिटलीकरण तथा इसके व्यापक प्रभावों पर उनके दृष्टिकोण की जाँच की गई है। आशा कार्यकर्ताओं, यूनियन नेताओं और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में प्रमुख सूचनादाताओं के साथ गहन साक्षात्कारों और आशा कार्यकर्ताओं के साथ फोकस समूह चर्चाओं तथा सहभागिता कार्यशालाओं का उपयोग करते हुए, हमने पाया कि डिजिटलीकरण उनके काम और जीवन को ऐसे तरीकों से बदल रहा है जो अवसरों और असमानताओं, दोनों साथ लाते हैं।
हमारी हालिया रिपोर्ट एक विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करती है जबकि इस लेख में सामुदायिक देखभाल कार्य की अग्रिम पंक्ति में श्रमिकों पर डिजिटलीकरण के प्रभाव की गंभीर रूप से जाँच करने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित किया गया है।
डिजिटलीकरण के वादे और खतरे
आशा कार्यकर्ता अग्रिम पंक्ति यानी फ्रंटलाइन हेल्थकेयर कार्यकर्ता हैं जो वंचित ग्रामीण समुदायों और भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली (गर्ग एवं अन्य 2013) के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में काम करती है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत वर्ष 2005 में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में शामिल की गई आशा कार्यकर्ताओं की मुख्य जिम्मेदारियों में मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य संवर्धन, टीकाकरण अभियान और सार्वजनिक स्वास्थ्य योजनाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाना शामिल है। डिजिटल उपकरणों की शुरूआत का उद्देश्य उनके सामुदायिक स्वास्थ्य सेवा कार्य को सुव्यवस्थित और अनुकूलित करना था, जबकि हमारे अध्ययन में पाया गया कि भारत के अलग-अलग राज्यों में डिजिटलीकरण को, न तो समान रूप से लागू किया गया है और न ही इसे समान रूप से अपनाया गया है।
राजस्थान में, जहाँ आशा कार्यकर्ताओं के लिए डिजिटलीकरण प्रयासों में अग्रणी भूमिका निभाई गई है, प्रौद्योगिकी काफी हद तक एक सक्षम उपकरण रही है। आशा कार्यकर्ताओं ने बताया कि पीसीटीएस (गर्भावस्था, बाल ट्रैकिंग और स्वास्थ्य सेवा प्रबंधन प्रणाली) ऐप जैसे डिजिटल उपकरण परिवर्तनकारी साबित हुए हैं। इस ऐप से उन्हें गर्भधारण और टीकाकरण पर अधिक कुशलता से नज़र रखने, अपने कार्यों पर समय पर अपडेट प्राप्त करने और अपने समुदायों में स्वास्थ्य सेवा वितरण को बेहतर बनाने में मदद मिली है। एक कार्यकर्ता ने बताया : "इस ऐप के ज़रिए हमें बच्चों के टीकाकरण की नियत तारीख के बारे में पता चलता है और फिर हम उनके माता-पिता को बुलाकर उनका टीकाकरण करवा लेते हैं। इससे हमारा काम आसान हो गया है।"
इसी तरह, केरल में अक्षय परियोजना नामक एक राज्य-प्रदत्त डिजिटल साक्षरता कार्यक्रम ने बड़ी उम्र की आशाओं सहित सभी को डिजिटल उपकरणों का प्रभावी ढंग से उपयोग करने के लिए सक्षम बनाया है, जिससे उनमें आत्मविश्वास और पेशेवर गौरव की भावना पैदा हुई है। आशा कार्यकर्ताओं ने समुदायों को संगठित करने, स्वास्थ्य संबंधी अपडेट साझा करने और जागरूकता बढ़ाने के लिए व्हाट्सएप जैसे प्लेटफार्मों का भी लाभ उठाया है। केरल की एक आशा कार्यकर्ता ने कहा, “मैंने अपने वार्ड के प्रत्येक परिवार का मोबाइल नंबर सेव कर लिया है और एक व्हाट्सएप ग्रुप बना लिया है। इस ग्रुप का नाम 'वार्ड हेल्थ' है। जब क्लीनिक और शिविर आयोजित किए जाते हैं, तो हम इन समूहों के माध्यम से उन्हें सूचित करते हैं ताकि संदेश जल्दी से जल्दी पहुँच सकें। एक नेत्र शिविर आयोजित किया गया था जिसके लिए हमने समूह में संदेश भेजा और हमारी उम्मीद से कहीं अधिक संख्या में लोग आए।” ये अनुभव डिजिटलीकरण की क्षमता को रेखांकित करते हैं, जब इसे मजबूत बुनियादी ढांचे, कार्यकर्ता-अनुकूल ऐप, प्रभावी प्रशिक्षण और सहायक प्रणालियों के साथ जोड़ा जाता है, इससे फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को सक्षम बनाया जा सकता है।
हालाँकि, ये सफलताएँ सार्वभौमिक नहीं हैं। हरियाणा में आशा कार्यकर्ताओं ने बहुत कम अनुकूल अनुभव बताया। विभिन्न सर्वेक्षणों के लिए ऐप्स की भरमार, खराब इंटरनेट कनेक्टिविटी, तकनीकी गड़बड़ियां और गुणवत्तापूर्ण स्मार्टफोन1 तक पहुँच की कमी के कारण कई श्रमिकों को डिजिटल के अलावा कागजी रिकॉर्ड रखने के लिए भी मजबूर होना पड़ा है। बिना किसी अतिरिक्त मुआवज़े के यह उनके कार्यभार को दोगुना कर देता है। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि कुछ डिजिटल उपकरण, जैसे कि राज्य सरकार द्वारा 2021 में आशा कार्यकर्ताओं के काम और दैनिक गतिविधियों की निगरानी के लिए लॉन्च किए गए ‘एमडीएम360 शील्ड ऐप’ को उनके स्थान-ट्रैकिंग सुविधाओं के कारण निगरानी उपकरण के रूप में माना जाने लगा। उल्लेखनीय रूप से, इस अनिवार्य ऐप के खिलाफ आशा कार्यकर्ताओं की सामूहिक कार्रवाई के कारण अंततः इसे बंद किया गया। ऐसे उपकरणों ने श्रमिकों की सहायता करने के बजाय चिंता और अविश्वास की भावना को बढ़ावा दिया।
मेघालय में, क्षेत्र की बुनियादी ढांचागत और भौगोलिक चुनौतियों के कारण वहां डिजिटलीकरण असमान रहा है। दूरदराज़ के क्षेत्रों में खराब कनेक्टिविटी ने डिजिटल उपकरणों को अप्रभावी बना दिया है- यही वास्तविकता भारत के कई ग्रामीण क्षेत्रों की भी है। कई आशा कार्यकर्ताओं के लिए डिजिटलीकरण का वादा अधूरा रह गया है, जिससे नीति निर्माण और ज़मीनी हकीकत के बीच का अंतर उजागर होता है।
लिंग, अंतर्संबंध और अनिश्चित कार्य
राज्यों में, डिजिटलीकरण के साथ आशा कार्यकर्ताओं के सामने आने वाली चुनौतियाँ मौजूदा लैंगिक और अंतर-असमानताओं में गहराई से समाहित हैं। ये कार्यकर्ता, मुख्य रूप से निचली जाति और हाशिए के समुदायों की महिलाएँ हैं, जो अक्सर सार्थक डिजिटल समावेशन के लिए आवश्यक संसाधनों तक पहुँच से वंचित रहती हैं। उदाहरण के लिए, जब प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित होते थे, तो वे अक्सर सभी के लिए एक जैसे होते थे। उनमें साक्षरता के विभिन्न स्तरों, भाषा संबंधी बाधाओं, या प्रौद्योगिकी के पूर्व अनुभव की कमी को ध्यान में नहीं रखा जाता था। राजस्थान की एक युवा आशा कार्यकर्ता ने बताया : “बड़ी उम्र की महिलाएँ इससे परिचित नहीं हैं। वे उतनी शिक्षित नहीं हैं और उन्हें फ़ोन का उपयोग करना नहीं आता। उन्हें बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वे प्रशिक्षण के लिए आती हैं और समझने की पूरी कोशिश करती हैं। लेकिन अगर वे फिर भी नहीं समझ पाती तो हम उनकी मदद करते हैं”। मेघालय की एक आशा कार्यकर्ता ने प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाषा की बाधा को उजागर किया और सुझाव दिया : “जो लोग खासी (मेघालय के कई जिलों में बोली जाने वाली एक भाषा) समझते हैं, उनके लिए एक प्रशिक्षण सत्र रखें और अगले दिन उन लोगों के लिए एक अलग प्रशिक्षण सत्र रखें जो अंग्रेजी समझते हैं। उनमें से कुछ अंग्रेजी या खासी नहीं जानते हैं और केवल हिंदी समझते हैं। उनके लिए हिंदी में अलग से प्रशिक्षण सत्र आवश्यक है। हमारे प्रशिक्षण का सबसे चुनौतीपूर्ण पहलू भाषा के मुद्दे को संबोधित करना है।"
इसके अतिरिक्त, लैंगिक सामाजिक मानदंड आशा कार्यकर्ताओं के लिए डिजिटल उपकरणों को अपनाने को और जटिल बना देते हैं। कई आशा कार्यकर्ताओं ने स्मार्टफोन प्राप्त करने की शुरुआती खुशी जाहिर की, यह एक ऐसा उपकरण है जो व्यावसायिक और व्यक्तिगत सशक्तिकरण का प्रतीक है। फिर भी, सशक्तिकरण की उनकी यह भावना अक्सर पितृसत्तात्मक प्रतिबंधों से निपटने की उनकी आवश्यकता के कारण कमजोर पड़ जाती थी। कई कार्यकर्ताओं के लिए, काम के लिए फोन का उपयोग करना परिवार के सदस्यों या उनके समुदायों से प्रौद्योगिकी के ‘अति प्रयोग’ की आलोचना को आमंत्रित करता है, जो डिजिटल उपकरणों के उपयोग में महिलाओं की बढ़ती पहुँच और स्वायत्तता के बारे में व्यापक सामाजिक चिंताओं को दर्शाता है। पारिवारिक और देखभाल संबंधी जिम्मेदारियों के साथ-साथ अतिरिक्त डिजिटल कार्यों में संतुलन बनाने का मतलब अक्सर देर रात तक काम करना होता है, जिससे तनाव बढ़ता है और थकावट होती है।
आशा कार्यकर्ताओं की भागीदारी की अनिश्चित प्रकृति के कारण ये चुनौतियाँ और भी जटिल हो जाती हैं। आधिकारिक तौर पर स्वयंसेवकों के रूप में वर्गीकृत आशा कार्यकर्ताओं को निश्चित वेतन नहीं मिलता है और इसके बजाय उन्हें नियमित और आवर्ती गतिविधियों के लिए 2,000 रुपये प्रति माह का एक छोटा मानदेय प्रदान किया जाता है और विभिन्न राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों के तहत विशिष्ट गतिविधियों को पूरा करने पर उन्हें कार्य-आधारित प्रोत्साहन भी मिलता है। उन्हें काम के लिए कम भुगतान किया जाता है क्योंकि इसे पारिवारिक काम एवं महिला देखभाल के विस्तार के रूप में लिंग आधारित सामुदायिक सेवा के रूप में देखा जाता है (विचटेरिच 2020)। अतिरिक्त डिजिटल काम के लिए वित्तीय मुआवज़े की कमी उनकी अनिश्चितता को और बढ़ा देती है, क्योंकि रिपोर्टिंग और ऐप संबंधी समस्याओं के निवारण पर बिताए गए अतिरिक्त घंटों को मान्यता नहीं मिल पाती, जिससे कर्मचारी अत्यधिक बोझ और खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं।
डिजिटलीकरण के लिए एक समावेशी दृष्टिकोण की आवश्यकता
डिजिटलीकरण को अक्सर स्वास्थ्य देखभाल चुनौतियों के संदर्भ में एक समाधान के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन इससे उत्पन्न असमानताओं की चर्चा नहीं की जाती जिससे इसके शोषण का एक और साधन बनने का जोखिम है। चूंकि भारत एबीडीएम जैसी पहलों के तहत अपने डिजिटल स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे में निवेश करना जारी रख रहा है, इसलिए यह जरूरी है कि सामुदायिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को बनाए रखने वाले कर्मचारी पीछे न छूट जाएं, या इससे भी बदतर, उन पर और अधिक बोझ न पड़े।
हमारी आगामी रिपोर्ट इन चुनौतियों से निपटने के लिए विस्तृत सिफारिशें प्रदान करेगी। सुझाई गई कुछ प्रमुख प्राथमिकताओं में शामिल हैं :
- मजबूत डिजिटल बुनियादी ढांचे में निवेश करना, विश्वसनीय कनेक्टिविटी और अच्छी गुणवत्ता वाले उपकरणों तक पहुँच सुनिश्चित करना।
- केरल के दृष्टिकोण के समान, साक्षरता स्तर, भाषा अवरोधों और आयु अंतरों को ध्यान में रखते हुए, विविध आवश्यकताओं के अनुरूप व्यापक डिजिटल कौशल प्रदान करना।
- डेटा संग्रह को सुव्यवस्थित करने और आशा कार्यकर्ताओं को उनके सामुदायिक देखभाल कार्य में सहायता के लिए डेटा तक आसान पहुँच प्रदान करने के लिए एक एकीकृत कार्यकर्ता-अनुकूल डिजिटल उपकरण तैयार करना, जो राजस्थान में पीसीटीएस ऐप के समान है।
- डिजिटल रिपोर्टिंग में शामिल अतिरिक्त समय और प्रयास को पहचानना और उसका पारिश्रमिक देना।
- महिलाओं के उपयोग और प्रौद्योगिकी तक पहुँच को सीमित करने वाले सामाजिक मानदंडों को दूर करने वाले लिंग-संवेदनशील दृष्टिकोणों को बढ़ावा देना।
निष्कर्ष रूप में, हाशिए पर पड़ी आशा कार्यकर्ताओं की वास्तविकताओं और विविध आवश्यकताओं के आधार पर डिजिटलीकरण के लिए एक अंतर्विषयक, नीचे से ऊपर की ओर वाला, दृष्टिकोण अपनाने से यह सुनिश्चित हो सकता है कि सामुदायिक देखभाल का आवश्यक कार्य इस तरह से किया जाए जो कार्यकर्ताओं और उनके द्वारा सेवा प्रदान किए जाने वाले समुदायों, दोनों को सशक्त बनाए।
टिप्पणी :
- हरियाणा आशा कार्यकर्ताओं को स्मार्टफोन उपलब्ध कराने वाले पहले राज्यों में से एक है। जबकि कुछ अन्य राज्यों ने भी स्मार्टफोन वितरित करना शुरू कर दिया है, लेकिन गुणवत्तापूर्ण उपकरणों तक पहुँच की कमी के कारण देश भर में आशा कार्यकर्ताओं को अपने काम के लिए स्मार्टफोन खरीदने या उधार लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : श्रीरूपा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज़ ट्रस्ट (आईएसएसटी) में एक रिसर्च फेलो और प्रोग्राम प्रमुख हैं, जहाँ वे अनौपचारिकता, अनिश्चित कार्य और देखभाल के विषय की शोध कार्य की अगुवाई करती हैं। उनके हालिया काम ने कार्यक्षेत्र के डिजिटलीकरण और सर्कुलर अर्थव्यवस्था सहित विभिन्न संदर्भों में श्रम अनिश्चितता और देखभाल की गतिशीलता के प्रतिच्छेदन पर ध्यान केंद्रित किया है। 15 से अधिक वर्षों के अनुभव के साथ, उनका शोध देखभाल अर्थव्यवस्था, अनौपचारिक श्रम, वृद्धावस्था, स्वास्थ्य सेवा और प्रवासन तक फैला हुआ है। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज़ से अर्थशास्त्र में पीएचडी की है और सेंटर फॉर विमेन डेवलपमेंट स्टडीज़ और किंग्स कॉलेज लंदन में पोस्टडॉक्टरल फेलोशिप की है।
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